लगभग दो वर्ष पहले मैंने सीऐंडसी टावर्स लिमिटेड (CCTL) से जुड़े एक मामले पर लेख लिखा था। उसने अप्रैल 2009 में अंतर-राज्यीय बस टर्मिनल (आईएसबीटी) के लिए ग्रेटर मोहाली क्षेत्र विकास प्राधिकरण (जीएमएडीए) के साथ 20 वर्षों के लिए कन्सेशन एग्रीमेंट पर हस्ताक्षर किए थे।
इस टर्मिनल में तीन बहुमंजिला इमारतें बनाने का प्रस्ताव था। इन इमारतों में खुदरा कारोबार एवं कार्यालयों के लिए जगह, एक मल्टीप्लेक्स, एक पांच सितारा होटल, एक बैंक्वेट हॉल, हाइपरमार्केट और इमारत की छत पर एक हेलीपैड तैयार करने की योजना थी। मगर यह परियोजना दिवालिया हो गई और इसके लिए ऋण समाधान योजना की अनुशंसा कर दी गई।
राष्ट्रीय कंपनी विधि न्यायाधिकरण (NCLT) के चंडीगढ़ पीठ ने 19 अक्टूबर को इस मामले में एक आदेश पारित कर दिया। इस आदेश ने साबित कर दिया कि बैंक से ऋण आवंटन से लेकर ऋण समाधान तक पूरी प्रक्रिया में कितना घालमेल था।
दूसरी तरफ सरकार बढ़-चढ़ कर यह दावा करते थकती नहीं है कि 2016 में शुरु हुई ऋण शोधन एवं अक्षमता संहिता (आईबीसी) दिवालिया समाधान में महत्त्वपूर्ण बदलाव लाएगी।
आइए, सीसीटीएल के मामले पर विचार करते हैं। 19 अक्टूबर को एनसीएलटी के आए आदेश में कहा गया कि 579 करोड़ रुपये के स्वीकृत दावे में समाधान योजना केवल 81.5 करोड़ रुपये (14.08 प्रतिशत) ही मुहैया कर पाई। इस मामूली रकम की वसूली पर एक दिवालिया विशेषज्ञ ने कहा कि उन्होंने किसी शहरी आधारभूत ढांचे में इतनी बड़ी लूट होते कभी नहीं देखी थी।
आखिर, यह कैसे संभव हो पाया? ऐसी कई अन्य परियोजनाओं में हजारों करोड़ रुपये की चपत लग चुकी है। बैंक अधिकारियों और ऋणधारकों की मिलीभगत के बिना यह सब संभव नहीं है। सीसीटीएल को जैसे ही बड़ी मल्टीप्लेक्स परियोजना का ठेका हाथ लगा, वैसे ही उसने निर्माण पूर्व अग्रिम रकम के रूप में और 63.30 करोड़ रुपये समूह की ही एक कंपनी सीऐंडसी कंस्ट्रक्शन लिमिटेड (सूचीबद्ध कंपनी जो स्वयं दिवालिया हो गई) को दे दिए।
सार्वजनिक क्षेत्र के कई बैंकों ने 2010 में ऋण की रकम मंजूर कर दी। सीसीटीएल ने भी 400 जायदाद खरीदारों से 490 करोड़ रुपये जुटा लिए। इस परियोजना के शुरू होने में असाधारण देरी हो गई जिसके बाद जीएमएडीए ने अप्रैल 2016 में टर्मिनेशन नोटिस भेज दिया और 11.90 करोड़ रुपये की बैंक गारंटी की शर्त लगा दी। आखिरकार, 10 अक्टूबर, 2019 को इस मामले में निगमित ऋण शोधन अक्षमता एवं दिवालिया प्रक्रिया (सीआरआईपी) की शुरुआत हुई।
सभी ऋणदाताओं के प्रारंभिक सकल दावे 580.12 करोड़ रुपये के थे जबकि 399.89 करोड़ रुपये मूल्य के पूंजीगत कार्य चल रहे थे। हालांकि, समाधान योजना के अंतर्गत ऋणदाताओं (फिक्स्ड डिपॉजिट धारक, आवंटी, जीएमएडीए, सांविधिक बकाया आदि) को वास्तविक आवंटन महज 14.05 प्रतिशत रहा।
सवाल उठता है कि बैंकर कर क्या रहे थे? जीएमएडीए के इंजीनियर क्या कर रहे थे? दिवालिया के ऐसे सभी मामलों में उत्तर बिल्कुल स्पष्ट है मगर हम इसे जानना या देखना नहीं चाहते हैं। ऐसे मामलों में शामिल सभी पक्ष व्याप्त फर्जीवाड़े एवं भ्रष्टाचार में लिप्त रहते हैं। इसे और गहराई से समझने के लिए संबंधित पक्षों के लेनदेन पर विचार करते हैं।
सीसीटीएल ने अनुबंध की रकम का 35 प्रतिशत हिस्सा सीऐंडसी को अग्रिम भुगतान के रूप में दिया था। ट्रांजैक्शन ऑडिटर ने कहा था कि अक्सर अनुबंधित रकम का 15-20 प्रतिशत हिस्सा ही अग्रिम रकम के रूप में भुगतान किया जाता है। निर्माण के मद में अब तक लगभग 25.93 करोड़ रुपये रकम का समायोजन नहीं हो पाया है।
सीसीटीएल ने सीऐंडसी को बिल एवं मोबिलाइजेशन एडवांस से 40.87 करोड़ रुपये अधिक भुगतान किया था। एनसीएलटी ने अपने आदेश में कहा कि इसके लिए ऋणदाताओं से अनुमति भी नहीं मांगी गई थी।
अनुबंध की शर्त के अनुसार सीसीटीएल को प्रति सप्ताह अनुबंध मूल्य का 0.25 प्रतिशत शुल्क बतौर परिसमापन क्षति लगाने का अधिकार था और ठेकेदार (सीऐंडसी) की तरफ से भुगतान में चूक होने की स्थिति में यह शुल्क अधिकतम कुल अनुबंध मूल्य का 5 प्रतिशत तक यानी 15.82 करोड़ रुपये तक हो सकता था।
आईएसबीटी और होटल एवं वाणिज्यिक परिसर के लिए दिसंबर 2009 से 18 से 30 महीनों के भीतर कार्य पूरा होना निर्धारित हुआ था। मगर इसमें असाधारण देरी होने के बावजूद सीसीटीएल ने सीऐंडसी से परिसमापन क्षति राशि नहीं ली।
जब आईबीसी प्रक्रिया शुरू हुई थी तो तर्क दिया गया था कि यह फंसे ऋण कम कर देगी और ऐसे मामलों का समाधान तेजी से हो पाएगा। कुछ लोगों ने तो यह भी उम्मीद जताई थी कि फंसे ऋणों की वसूली कहीं अधिक रहेगी। ऋणदाता आईबीसी प्रक्रिया के माध्यम से अपने दावे का केवल 17 प्रतिशत हिस्सा ही प्राप्त करने में सफल रहे हैं।
सूचना के अधिकार के अंतर्गत की गई पूछताछ के बाद मिले जवाबों से पता चला है कि सरकार को 2014 से 10.41 लाख करोड़ रुपये मूल्य के फंसे ऋण बट्टे खाते में डालने पड़े हैं। इस फर्जीवाड़े एवं भ्रष्टाचार का मुख्य कारण सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों में ऋण आवंटन के समय अधिकारियों एवं ऋणधारकों की मिली-भगत है। फर्जीवाड़े की योजना पहले ही तैयार हो जाती है ताकि बाद में वसूलने के लिए बहुत मामूली रकम ही बचे।
सीसीटीएल प्रवर्तकों ने बड़ी रकम झटकने का अनुबंध तैयार किया था और वे ऐसा करने में कामयाब भी हो गए। बैंकर और जीएमएडीए के स्वतंत्र निदेशकों ने परियोजना की निगरानी नहीं की और समूह की दूसरी कंपनियों को रकम स्थानांतरित करने से रोकने के लिए कुछ नहीं किया। वे मुख्य रूप से इस फर्जीवाड़े के लिए उत्तरदायी हैं और मगर वे भी बच निकले। सीसीटीएल आईबीसी की विफलता का एक प्रमुख उदाहरण है।
नियमित अंतराल के बाद बट्टे खाते में डाले जाने वाले भारी भरकम ऋणों के स्रोत का कमजोर दिवालिया कानून से कुछ लेना देना नहीं है। मगर इसके बावजूद बैंक अधिकारियों के खिलाफ आपराधिक कदम उठाने को लेकर भारी हिचकिचाहट है। बैंक अधिकारियों के इन कारनामों को सामान्य ‘कारोबारी विफलताओं’ के तौर पर देखा जाता है।
समाधान प्रक्रिया स्वयं अपने आप में पेचीदा है। आदेश मनमाने ढंग से पारित होते हैं और ये विरोधाभासी भी होते हैं। सभी मामले समय रहते पूरे नहीं हो पा रहे हैं। उच्चतम न्यायालय तो फिनोलेक्स केबल्स मामले में निर्णय सुनाने में इसके निर्देशों का पालन नहीं करने के लिए राष्ट्रीय कंपनी विधि अपील न्यायाधिकरण के दो सदस्यों को अवमानना का नोटिस तक भेज चुका है।
इन सभी समस्याओं की जड़ें सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों तक पहुंचती है। अगर इन बैंकों की जवाबदेही तय की जाए तो फंसे ऋणों में स्वतः ही कमी आ जाएगी और वसूली भी बढ़ जाएगी। इसके साथ ही एनसीएलटी प्रक्रिया भी अच्छी तरह से प्रबंधित हो पाएगी। मगर अफसोस की बात है कि बैंकों के काम करने के तरीके दुरुस्त करने में सरकार दिलचस्पी नहीं दिखा रही है।
(लेखक डब्ल्यूडब्ल्यूडब्ल्यू डॉट मनीलाइफ डॉट इन के संपादक एवं मनीलाइफ फाउंडेशन के न्यासी हैं)