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भारतीय रिजर्व बैंक 90 के दशक के आर्थिक सुधार का वास्तविक सूत्रधार

Last Updated- December 12, 2022 | 3:10 AM IST

जुलाई 1991 भारतीय अर्थव्यवस्था के इतिहास में एक ऐसे वर्ष के रूप में जाना जाता है जब कठिन परिस्थितियों के बीच देश में बड़े आर्थिक सुधारों की घोषणा की गई थी। सितंबर 1991 में ही इन सुधारों पर राजनीतिक उठपटक शुरू हो गई जब केवल एक वस्तु यूरिया पर उर्वरक सब्सिडी घटाने का प्रस्ताव वापस लेना पड़ा। इसकी कीमत महज 1 रुपये बढ़ाई गई। इस रस्साकशी के बीच तत्कालीन वित्त मंत्री ने त्यागपत्र देने तक की पेशकश कर दी थी।
आखिर, ऐसी राजनीतिक असहमति के बीच 1990 के दशक में आर्थिक सुधार कार्यक्रम किस तरह आगे बढ़ा? लोगों को इससे जुड़ी सच्चाई जानने का पूरा हक है। दरअसल 1990 के दशक में शुरू हुए सुधारों को आगे बढ़ाने में सरकार की नहीं बल्कि भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) की अहम भूमिका रही। उस दशक की तीन सरकारें- कांग्रेस, संयुक्त मोर्चा और राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन- इसलिए इन सुधारों पर एकमत रहीं क्योंकि आरबीआई ने जो भी कदम उठाए थे उनसे मतदाताओं पर कोई असर नहीं हुआ था।
आरबीआई ने उस समय देश के वित्तीय क्षेत्र में अहम बदलाव किए। आर्थिक सुधार आगे बढ़ाने का सारा दायित्व आरबीआई ने अपने कंधे पर लिया। आरबीआई को उसकी इस मुहिम में तीनों सरकारों का भी साथ मिला जिन्हें लगा कि आर्थिक सुधार समय की मांग है और इसके सिवा दूसरा कोई विकल्प नहीं है। इसके साथ ही, आरबीआई तीनों सरकारों को यह भरोसा दिलाने में भी सफल रहा कि उसके उपायों का कोई विपरीत राजनीतिक असर नहीं होगा।
आरबीआई ने धीरे-धीरे वित्तीय क्षेत्र का नियमन करने के लिए एक मजबूत व्यवस्था तैयार कर दी। उस समय भारतीय प्रतिभूति एवं विनिमय बोर्ड (सेबी) एक पूर्ण नियामक के तौर पर नहीं उभर पाया था और लंबा अनुभव होने की वजह से आरबीआई वित्तीय क्षेत्र के नियमन में अग्रणी भूमिका निभा रहा था।
धीमी गति से ही सही लेकिन आरबीआई ने अपनी छवि में सुधार किया और एक सुस्त नियामक होने का चोला उतारकर वह सक्रियता से आर्थिक सुधारों को अंजाम देने लगा। वर्ष 1997 के मध्य में उत्पन्न एक परिस्थिति ने आरबीआई के सक्रिय होने का सबसे पुख्ता सबूत दे दिया। उस समय राजनीतिक स्थिरता चरम पर थी और ऐसा लग रहा था कि तत्कालीन सरकार नहीं चल पाएगी और लोग सरकार गिरने के समय को लेकर अटकलें लगाने लगे थे। इसका एक मतलब यह भी होता कि अगर सरकार नहीं रहती तो सालाना मौद्रिक नीति की घोषणा के समय कोई सक्रिय वित्त मंत्री भी नहीं होता। कुछ हिचकिचाहट के बाद आरबीआई के तत्कालीन गवर्नर सी रंगराजन ने मौद्रिक नीति कार्यक्रम नहीं रोका और 1997 में एक बड़ा बदलाव लाने वाली मौद्रिक नीति की घोषणा हुई। दुख की बात यह है कि मोटे तौर पर इसे भुला दिया गया है और आरबीआई के आधिकारिक इतिहासकार भी इसे याद नहीं कर रहे हैं। 1980 के दशक में रंगराजन ने वित्तीय क्षेत्र में सुधारों पर चक्रवर्ती समिति रिपोर्ट तैयार की थी।
इसके बाद आरबीआई ने छोटे स्तरों के बाद बड़े स्तरों पर नियमन शुरू कर दिए जिससे बैंकों को अधिक आजादी मिलती गई। इसके बाद आरबीआई वृहद दिशानिर्देश और सिद्धांत तैयार करता था और बैंक इन तय निर्देशों की सीमा में ही सुविधानुकसार कदम उठाने के लिए स्वतंत्र थे। रंगराजन के मन में इस बात को लेकर कोई संशय नहीं था कि बैंक के कामकाज एवं परिचालन का निर्धारण बाजार के कारक करेंगे।
रंगराजन बैंक दर व्यवस्था की जरूरत महसूस कर रहे थे। बैंक दर वह होती है जिस दर पर बैंक एक दूसरे को उधार देते हैं। किसी अर्थव्यवस्था में यह मुद्रा की आधार कीमत होती है। भारत में भी बैंक दर हुआ करती थी लेकिन सरकार ने 1970 के दशक में इसे समाप्त कर दिया था। दुनिया के सभी विकसित देशों में यह व्यवस्था थी और रंगराजन भी इस दिशा में काम करना चाहते थे।
आरबीआई ने विदेशी मुद्रा विनिमय बाजार में भी बदलाव करना शुरू कर दिया। उन्होंने बाजार में कारोबारियों से भी वही कहा जो उन्होंने बैंकों से कहा था, अर्थात बैंकिंग नियामक हर छोटी-मोटी बातों में दखल नहीं देगा।
1990 के दशक के दौरान आरबीआई ने वित्तीय क्षेत्र में एक के बाद एक कई सुधार किए। ये सुधार हमेशा मुद्दा बने लेकिन इसमें निहित बातों पर कोई बहस नहीं हुई। इन सुधारों की दिशा भी पूरी तरह स्पष्ट थी यानी वित्तीय क्षेत्र पर सरकार का नियंत्रण नहीं रहेगा। आरबीआई का पहला दायित्व बाह्य भुगतान व्यवस्था को दुरुस्त करना था और इसके लिए उसने कई नए प्रस्ताव दिए। विदेशी मुद्रा संकट जब चरम पर था तब आरबीआई की एक विशेषज्ञ समिति ने लिबरलाइज्ड एक्सचेंज रेट मैंनेजमेंट सिस्टम (एलईआरएमएस) की सिफारिश की थी। आरबीआई गवर्नर के मौखिक निर्देश पर इस विशेषज्ञ समिति का गठन किया गया था। इस समिति के बारे में काफी कम लोगों को जानकारी थी।
इसे शुरू में नेरा (न्यू एक्सचेंज रेट अरेंजमेंट) नाम दिया गया था। एलईआरएमएस को द बैलेंस ऑफ पेमेंट्स ग्रुप की रिपोर्ट में शामिल किया गया था और बजट से पहले कोई समाधान खोजने के लिए जल्दबाजी में यह कदम उठाया गया था। अंतिम रिपोर्ट को छोड़कर एलईआरएमएस को लेकर कुछ भी सार्वजनिक नहीं किया गया। यहां तक कि बैठक में हुई चर्चाओं का बाहर जिक्र तक नहीं हुआ ताकि सूचनाएं गलत लोगों के हाथ न लग जाएं।
एलईआरएमएस की शुरुआत 1 मार्च, 1992 से हुई थी। यह एक साल तक अस्त्वि में रहा और 1 मार्च, 1993 को एकीकृत मुद्रा विनिमय दर प्रणाली शुरू हई। तब से यह प्रणाली काम कर रही है। व्यापक आर्थिक लिहाज से रंगराजन के जोर देने से एक महत्त्वपूर्ण बदलाव आया और वह था बजट घाटे को मुद्रीकरण से अलग रखना। इसका आशय यह था कि सरकार का खर्च राजस्व से अधिक होने पर आरबीआई इस कमी की भरपाई के लिए नोट नहीं छापेगा।
वर्ष 1955 तक यह सिलसिला चला आ रहा था और इसे रोकना उस अवधि का सबसे बड़ा आधारभूत सुधार था। इससे आरबीआई को मौद्रिक प्रबंधन में अधिक स्वतंत्रता मिल गई। वित्त वर्ष 1994-95 के केंद्रीय बजट में घोषणा हुई थी कि केंद्र सरकार के ट्रेजरी बिल के लिए आरबीआई पर निर्भरता की एक सीमा तय होगी। इस संबंध में भारत सरकार और आरबीआई के बीच एक समझौता हुआ, जिस पर 9 सितंबर, 1994 को हस्ताक्षर हुए थे।
1990 के अंतिम तीन वर्षों में फेरा की जगह अधिक लचीली व्यवस्था फेमा (विदेशी मुद्रा विनिमय प्रबंधन अधिनियम) आ गई। यह नया कानून तैयार करने में आरबीआई से मशविरा किया गया। इस नए कानून के पीछे की सोच 1970 के फेरा के गठन से जुड़ी सोच से काफी अलग थी। संक्षेप में कहें तो 1991 के आर्थि सुधारों का वास्तविक सूत्रधार आरबीआई था। उस दशक के तीनों वित्त मंत्रियों को भी अब यह बात कह देनी चाहिए।

First Published - July 1, 2021 | 12:18 AM IST

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