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  विशेष  प्रदीप कुमार रावत के समक्ष हिमालय जैसी चुनौती
विशेष

प्रदीप कुमार रावत के समक्ष हिमालय जैसी चुनौती

बीएस संवाददाता बीएस संवाददाता —December 28, 2021 11:54 PM IST0
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वर्ष 1990 में भारतीय विदेश सेवा में शामिल होने के बाद से प्रदीप कुमार रावत की कामकाजी जिंदगी में चीन की प्रधानता रही है। वह न केवल धाराप्रवाह मंदारिन बोलते हैं, बल्कि उन्होंने चीन का अध्ययन करते हुए करीब 20 साल बिताए हैं। वह नीदरलैंड से पेइचिंग जाएंगे, लेकिन नीदरलैंड में अपने छोटे-से कार्यकाल के दौरान भी उन्होंने लीडेन विश्वविद्यालय में दक्षिण एशियाई और तिब्बती अध्ययन संस्थान का दौरा करने को लक्ष्य बना लिया था।
यह उस लड़के के लिए एक बड़ी छलांग है, जिसने जीवन की शुरुआत यह मानकर की थी कि वह इंजीनियर बनेगा- रावत ने वर्ष 1982 से 87 तक कुरुक्षेत्र के राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थान में यांत्रिकी इंजीनियरिंग की पढ़ाई की थी। जब रावत चीन से दो-चार नहीं हो रहे थे, तो तब उन्होंने बतौर राजदूत इंडोनेशिया और तिमोर-लेस्ते में सेवा की। कुछ समय उन्होंने दिल्ली में दक्षिण एशियाई विश्वविद्यालय में पढ़ाया।
पेइचिंग में रावत ने विक्रम मिसरी की जगह ली है, जिनका तीन साल का कार्यकाल था और संभवत: एक भी दिन चुनौतियों के बिना नहीं रहा। पिछले साल जून में गलवान संघर्ष, जिसमें 20 भारतीय सैनिक शहीद हो गए थे, सीमा पर तनाव का चरम बिंदु था। वह वर्ष 2017 में डोकलाम में 73-दिवसीय गतिरोध के बाद से तीन साल से भी अधिक समय से पनप रहा था। वर्ष 2014 से 2017 तक संयुक्त सचिव (पूर्वी एशिया) के रूप में यह रावत ही थे, जिन्होंने बढ़ती सैन्य गतिविधि का सामना किया और बातचीत के माध्यम से इसे कम करने में भी मदद की। द्विपक्षीय संबंध संभवत: उनके निम्नतम स्तर पर हैं। रावत परखने की स्थिति में हैं, क्योंकि उन्होंने बेहतर दिन भी देखे हैं। ब्रिटेन द्वारा चीन को हॉन्गकॉन्ग वापस करने वाले अशांत दिनों के दौरान उन्हें वर्ष 1992 और 1997 के बीच हॉन्गकॉन्ग और फिर पेइचिंग में नियुक्त किया गया था, जिससे तीन साल के लिए पूर्वी एशिया डिवीजन में काम पर वापसी हुई। वर्ष 2003 के दौरान पेइचिंग में दूसरा चार वर्षीय कार्यकाल रहा, शुरुआत में सलाहकार के रूप में और फिर उसके बाद डिप्टी चीफ ऑफ मिशन के रूप में। वर्ष 2003 में विशेष प्रतिनिधियों की नियुक्ति और वर्ष 2005 में राजनीतिक मापदंडों तथा मार्गदर्शन करने वाले सिद्धांतों पर एक समझौते के साथ सीमा संबंधी विषय पर दो खास चीजें हुईं।
वह दो साल बाद ताइवान चले गए। अगले चार साल के लिए भारत-ताइपे संघ के प्रमुख, द फैक्टो ऐंबेेसडर, के रूप में सेवा के लिए। इससे उनका करियर प्रोफाइल बहुत विशिष्ट बन जाता है। पेइचिंग में भारत के राजदूतों को शायद ही कभी, ताइपे में भी सेवा करने का अनुभव मिला हो। भारत ताइवान के साथ अपने संबंधों को बहुत सावधानी से आगे बढ़ा रहा है, जिससे चीन को काफी चिढ़ हो रही है। इस साल की शुरुआत में दो सांसदों-मीनाक्षी लेखी और राहुल कस्वां ने ताइवान की राष्ट्रपति साई इंग-वेन के आभासी शपथ ग्रहण समारोह में भाग लिया था।
हालांकि संसद के शीतकालीन सत्र में विदेश राज्य मंत्री वी मुरलीधरन ने स्पष्ट किया है कि भारत के ताइवान के साथ औपचारिक राजनयिक संबंध नहीं हैं और दोनों पक्षों में केवल व्यापार और व्यक्ति से व्यक्ति के बीच संबंध हैं, लेकिन सबसे सहज राजनयिक गतिविधि को भी पेइचिंग द्वारा बारीकी से देखा जाता है, जो ताइवान को अपने प्रांत के रूप में देखता है, जबकि इस द्वीप के अधिकारियों का कहना है कि यह एक स्वायत्त देश है।
मिसरी की विदाई और रावत की नियुक्ति पर चीनी मीडिया की प्रतिक्रिया से पता चलता है कि भारत-चीन के संबंधों में बदलाव आ सकता है। ये इस बात के संकेत हो सकते हैं। लेकिन मिसरी की आभासी विदाई के दौरान चीन के विदेश मंत्री वांग यी ने कहा ‘चीन और भारत दो प्राचीन सभ्यताएं, दो उभरती अर्थव्यवस्थाएं और पड़ोसी हैं, जिन्हें दूर नहीं किया जा सकता है। जब हम आपसी विश्वास का निर्माण करते हैं, तो हिमालय भी हमें मैत्रीपूर्ण आदान-प्रदान से नहीं रोक सकता। आपसी विश्वास के बिना दोनों पक्षों को एक साथ लाना मुश्किल होता है, भले ही रास्ते में पहाड़ न हों। महत्त्वपूर्ण सर्वसम्मति यह है कि चीन और भारत को एक-दूसरे के लिए खतरा नहीं होना चाहिए, बल्कि एक-दूसरे के विकास के लिए मौका होना चाहिए, जिसे दोनों देशों के नेताओं द्वारा प्राप्त किया गया था, इसका पालन करते रहना चाहिए।’ मिसरी ने जवाब दिया था ‘हालांकि आकाश में अब भी काले बादल हैं, लेकिन हम पहले ही काले बादलों में उम्मीद की किरण देख चुके हैं।’
स्थानीय मीडिया भारत के राजदूत की पसंद की काफी प्रशंसा कर रहा है। इस बात को देखते हुए कि कूटनीति व्यक्तियों की भूमिका सीमित होती है, शांघाई म्युनिसिपल सेंटर फॉर इंटरनैशनल स्टडीज के वांग देहुआ के हवाले से यह कहा गया था कि सीमा वार्ता पर गतिरोध के बावजूद रावत की नियुक्ति एक अच्छा संकेत था। और अन्य संकेत भी थे – ग्लासगो जलवायु परिवर्तन शिखर सम्मेलन के दौरान, खास तौर पर कोयले के संबंध में भारत-चीन सहयोग और कोविड-19 की उत्पत्ति को लेकर अंतरराष्ट्रीय जांच के आह्वान पर भारत की चुप्पी। वांग के हवाले से कहा गया था कि चीन इसे भारत के ‘एक बड़े उपकार’ के रूप में देखता है। और एक ऐसा नया राजदूत जो मंदारिन में धाराप्रवाह था, संबंधों को और आसान बना देगा।
बेशक, यह उन राजनीतिक और आर्थिक परिवर्तनों का कारक नहीं है जिनसे चीन गुजर रहा है। विश्लेषकों का कहना है कि कम्युनिस्ट पार्टी की 19वीं केंद्रीय समिति (पूरी विषय वस्तु 16 नवंबर को सामने आई थी) के छठे प्लेनम के बाद पारित प्रस्ताव से पता चलता है कि शी चिनफिंग अब भी व्यापक या विवादास्पद नीतिगत परिवर्तन लागू करने की अपनी क्षमता के संबंध में बाधाओं का सामना कर रहे हैं और बताया जाता है कि उनका प्रभुत्व सर्वोपरि है, लेकिन संपूर्ण नहीं तथा आम विश्वास की तुलना में सर्वसम्मति और गुटीय समझौता अधिक महत्त्वपूर्ण होता है।

चीनप्रदीप कुमार रावतभारतीय राजदूतभारतीय विदेश सेवा
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