इस बार बिहार में आम चुनाव के अभियान का बिगुल राहुल गांधी ने औरंगाबाद में विकास के नारे के साथ फूंका था।
लोगों की राय में भी वे वोट विकास को ही आधार बनाकर देने वाले थे। लेकिन फिर भी मतदान के पहले चरण की शुरुआत होते-होते जाति, विकास को कहीं पीछे छोड़ चुकी थी। राजनीतिक दलों ने उम्मीदवारों का चयन जाति को ही ध्यान में रखकर किया गया।
राजनीतिक विश्लेषकों की मानें तो आप भारत में हैं, तो आप जाति को नजरअंदाज नहीं कर सकते। इसी बात का फायदा राजनीति दलों ने खूब उठाया है। उनके मुताबिक आज भी कई लोग सिर्फ इसी आधार को बना कर वोट देते हैं कि कौन सा उम्मीदवार उनकी जाति से ताल्लुक रखता है।
बक्सर से निवर्तमान सांसद लाल मुनि चौबे बताते हैं, ‘आज भी बिहार में जाति को आधार बनाकर लोगों से वोट मांगा जा रहा है। इससे ज्यादा दुखद बात नहीं हो सकती है।’ लेकिन इसके पीछे असल कारण क्या हैं?
इस बारे में राजनीतिक विश्लेषक कहते हैं कि भारतीय राजनीति में जाति को जीत की गारंटी के तौर पर माना जाता है। लालू प्रसाद और राबड़ी देवी ने 15 सालों तक अपने ‘माय (मुस्लिम-यादव)’ समीकरण के जरिये राज किया है।
राजनीतिक विश्लेषक ये बात तो मानते हैं कि बिहार में तीन सालों में विकास हुआ है, लेकिन उनका यह भी कहना है कि आप जाति को नकार नहीं सकते हैं। नीतीश कुमार कहते हैं कि, ‘आज बिहार में लोग जाति नहीं, बल्कि विकास के बारे में बात कर रहे हैं। विकास, जाति से कहीं ऊंची चीज होती है।’
इसके बावजूद नालंदा से नीतीश को भी जाति के आधार पर अपने पार्टी के लिए उम्मीदवार खड़ा करना पड़ा। वहीं लालू प्रसाद, रामविलास पासवान और मुलायम सिंह यादव का नया गठबंधन भी पिछड़ी जातियों और महादलितों को लुभाने में जुटी हुई हैं। विश्लेषकों के मुताबिक लालू प्रसाद ने पहली बार पिछड़े तबकों को मजबूत आवाज दी थी और इस छवि को वह भुनाने की कोशिश भी कर रहे हैं।
