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जिंदगीनामा: हरित क्रांति की अनचाही विरासत

दुर्भाग्य से जिन नीतियों ने हरित क्रांति को सफलता के शिखर पर पहुंचाया, वे ही आज न चाहते हुए भी नुकसानदेह साबित हो रही हैं।

Last Updated- December 15, 2024 | 9:25 PM IST
The unwanted legacy of the Green Revolution

हरित क्रांति ने देश की किस्मत बदलने में महती भूमिका निभाई, लेकिन अब इसका चक्र उल्टा घूम रहा है। इसके दुष्परिणाम उस समय नीति निर्माताओं ने सोचे भी नहीं होंगे। आज जब किसान आए दिन राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र (एनसीआर) की सीमाओं पर डेरा डाल रहे हैं तो1960 के दशक की हरित क्रांति के परिणाम अपर्याप्त बिजली आपूर्ति, पानी का संकट, लगातार गिरती मिट्टी की गुणवत्ता, वायु प्रदूषण और तेजी से बढ़ती मुफ्त योजनाओं की संस्कृति जैसे बड़े संकट के रूप में सामने आ रहे हैं।

हरित क्रांति ने भारत को जहां अकाल के जबड़े से बाहर निकाला वहीं, सार्वजनिक कानून अथवा अमेरिका से आयातित पीएल 480 गेहूं पर निर्भरता जैसे अपमान से बचाया और हमेशा तंगदस्ती में जीवन गुजारने वाले हालात से बाहर निकाला। दुर्भाग्य से जिन नीतियों ने हरित क्रांति को सफलता के शिखर पर पहुंचाया, वे ही आज न चाहते हुए भी नुकसानदेह साबित हो रही हैं और केंद्रीय सत्ता उनसे बचाव के उपाय ढूंढने के लिए संघर्ष कर रही है।

ये संकट सरकार द्वारा किसानों को अधिक से अधिक गेहूं एवं चावल की फसलें उगाने के लिए शुरू की गई मुफ्त बिजली, सब्सिडी पर उर्वरक और एमएसपी की गारंटी अथवा आधिकारिक मंडियों में उपज बेचने का प्रावधान जैसी प्रोत्साहन योजनाएं हैं, जो आज असहनीय बोझ बन रहे हैं। एमएसपी को ही ले लें। उपज को बाजार दर पर खरीदने की यह व्यवस्था किसानों को व्यापारियों के उत्पीड़न या शोषण का शिकार होने से बचाने के लिए लायी गई थी। लेकिन, शक्तिशाली किसान लॉबी के दबाव में लगातार इसे आगे बढ़ाया गया और न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) अब अधिकतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) का रूप ले चुकी है। आज सरकार देश में वार्षिक स्तर पर पैदा होने वाले कुल गेहूं और चावल का 30 से 40 प्रतिशत तक एमएसपी पर खरीद रही है। देश में 22 अन्य फसलें भी एमएसपी के दायरे में आती हैं, लेकिन सरकार उन्हें न के बराबर ही खरीदती है। कभी-कभी राज्य सरकारें एमएसपी पर भी प्रीमियम देती हैं। मध्य प्रदेश इसका एक उदाहरण है। इस व्यवस्था से सरकारों की परेशानी और बढ़ जाती है।

फसलों की बिक्री के लिए एमएसपी जैसी नीतियों का बड़े किसानों ने खूब फायदा उठाया और सीमांत या छोटे किसान इससे वंचित ही रहे। देश में ऐसे सीमांत किसानों की संख्या 80 प्रतिशत है। वर्ष 2020 में मोदी सरकार द्वारा कृषि क्षेत्र को नियंत्रण से मुक्त करने के प्रयासों के तहत लाए गए तीन कानूनों से देश भर में हंगामा खड़ा हो गया। इन कानूनों के माध्यम से सरकार ने किसानों को अपनी उपज मंडियों के नेटवर्क से बाहर भी बेचने की इजाजत दी थी। फसलों को सीधे निजी व्यापारियों को बेचने की व्यवस्था भी इन कानूनों में की गई थी। अनुबंध पर खेती के रास्ते खोले गए थे और कुछ वस्तुओं को आवश्यक वस्तु अधिनियम के दायरे से बाहर कर दिया गया था। कृषि उपज की भंडारण सीमा को भी नियंत्रण मुक्त कर दिया गया था।

उपरोक्त व्यवस्था करने वाले कानून संसद में पर्याप्त चर्चा के बिना और कृषि लॉबी के सलाह-मशविरे के बिना ही पारित कर दिए गए थे, जिनके विरोध में किसानों, मंडी बिचौलियों और किसान संगठनों ने दिल्ली-एनसीआर की सीमाओं पर तंबू गाड़ कर डेरा डाल दिया और एक साल से अधिक समय तक विरोध प्रदर्शन किया। सरकार को पीछे हटने को मजबूर करने का अंजाम यह हुआ कि कृषि लॉबी एमएसपी पर कानूनी गारंटी की मांग करने लगी। यदि सरकार यह मांग मान लेती है तो इससे सरकार के खजाने पर असहनीय बोझ पड़ेगा।

एमएसपी पर कानूनी गारंटी के लिए खड़ा हुआ बवाल हरित क्रांति के अनचाहे नतीजों का केवल एक पहलू है। मुफ्त अथवा भारी सब्सिडी पर पानी, बिजली और उर्वरक जैसी चीजें उपलब्ध कराने से एक और बड़ी समस्या उभर कर सामने आई है। इन चीजों पर लगातार प्रोत्साहन पैकेज बढ़ते जाने के कारण हरियाणा और पंजाब में किसान अधिक से अधिक धान उगाने के लालच में पड़ गए। जबकि सब जानते हैं कि बहुत अधिक पानी की खपत वाली यह फसल प्राकृतिक रूप से इस क्षेत्र की पारिस्थितिकी के लिए उपयुक्त नहीं है।

दशकों से इस फसल के उत्पादन के कारण यहां पराली जलाने की गंभीर समस्या खड़ी हो गई है। प्रत्येक वर्ष फसल कटाई के बाद जब किसान पराली जलाते हैं तो उसका धुआं दिल्ली-एनसीआर के लिए मुसीबत खड़ी करता है और वायु प्रदूषण के कारण यहां लोगों का सांस लेना दूभर हो जाता है।

गिरते भूजल स्तर को संभालने के लिए वर्ष 2009 से धान की रोपाई को मॉनसून सीजन के साथ शुरू किया गया, ताकि वर्षा जल से सिंचाई और कम से कम भूगर्भीय जल की जरूरत पड़े। लेकिन, इसका परिणाम यह हुआ कि फसल देर से कटने लगी और आगे रबी की फसल बोने को खेत खाली करने के लिए किसानों के पास समय ही नहीं बचता। इसके लिए उन्होंने सस्ता और जल्दी वाला समाधान ढूंढ निकाला और वे धान की पराली को खेतों में ही जलाने लगे, लेकिन इससे वायु प्रदूषण के रूप में गंभीर सार्वजनिक स्वास्थ्य संकट खड़ा हो गया।

इसी प्रकार उर्वरकों का मामला है, जिसने खेती पर और गंभीर दुष्प्रभाव डाले हैं। वार्षिक स्तर पर कुल उर्वरकों पर दी जाने वाली 1.88 लाख करोड़ रुपये की सब्सिडी का दो-तिहाई केवल यूरिया पर खर्च होती है। इसने इस मूल्य नियंत्रित उर्वरक के अत्यधिक उपयोग को बढ़ावा दिया है, जिससे मिट्टी की पोषकता में गंभीर असंतुलन पैदा कर दिया है। लगभग एक दशक से यूरिया की कीमतों में वृद्धि नहीं हुई है। इसका परिणाम यह हुआ कि किसान पोटेशियम और फॉस्फेट के बजाय यूरिया का अत्यधिक इस्तेमाल कर रहे हैं।

हाल ही में इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित एक लेख में बताया गया है कि पंजाब खेती में अपनी आवश्यकता से 61 प्रतिशत अधिक यूरिया उपयोग कर रहा है। इस लेख में कहा गया है, ‘यह बहुत ही हास्यास्पद है कि यूरिया पर दी जाने वाली सब्सिडी अनाज की उपज बढ़ाने से ज्यादा वातावरण में जहर घोल रही है।’

आजादी के फौरन बाद कृषि उत्पादन बढ़ाने के उद्देश्य से राज्य सरकारों ने किसानों को मुफ्त या उदार सब्सिडी पर बिजली उपलब्ध करानी शुरू की थी। इसका सीधा प्रभाव दिवालिया होतीं राज्य स्वामित्व वाली वितरण कंपनियां (डिस्कॉम) पर देखा जा सकता है और जिन्होंने अपने वित्तीय संकट से निपटने के लिए काफी संघर्ष किया। पैसे की कमी के कारण वे अपने आधारभूत ढांचे को उन्नत नहीं कर सकीं। नतीजतन जब बिजली की मांग चरम पर होती है तो वे हाथ खड़े कर देती हैं।

लंबे समय तक बिजली कटौती के कारण उद्योग वैकल्पिक स्रोतों पर निर्भर हो रहे हैं। केंद्र सरकार द्वारा तैयार तथा करदाताओं की ओर से वित्तपोषित पांच बेलआउट पैकेज भी नाकाफी साबित हुए और विद्युत व्यवस्था की तस्वीर नहीं बदली। तमाम वित्तीय समर्थन के बावजूद आज खेती हजारों छोटे किसानों के लिए घाटे का सौदा बन गई है। सरकार द्वारा भारतीय उपभोक्ताओं के हितों के लिए व्यापारियों पर आवधिक नियंत्रण और किसानों को वित्तीय सहयोग की योजनाओं ने हालात को और खराब बना दिया है।

मोदी सरकार ने इसका हल प्रत्येक किसान को 6,000 रुपये की वार्षिक सब्सिडी के तौर पर निकाला था, जो सीधे उनके खाते में जाती है। हरित क्रांति से संबंधित मुफ्त योजनाओं की तरह ही इस वित्तीय सहायता वाली सब्सिडी योजना को वापस लेना भी असंभव होगा, जो मुसीबत को और बढ़ाएगा ही।

First Published - December 15, 2024 | 9:25 PM IST

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