जब मैं यह लिख रही हूं, दुनिया भर के नेता वार्षिक जलवायु सम्मेलन (कॉप 30) के लिए एकत्रित हो रहे हैं। यह सम्मेलन दुनिया में चल रहे व्यापक उथल-पुथल के बीच आयोजित हो रहा है। एक-दूसरे के विरुद्ध काम कर रही शक्तिशाली ताकतों का टकराव देखने को मिल रहा है। सवाल यह है कि विजेता कौन होगा? फिलहाल अगर कुछ तय है तो वह अनिश्चितता ही है।
इस पर विचार करें। विश्व मौसम विज्ञान संगठन ने बताया है कि वायुमंडल में कार्बन-डाइऑक्साइड का स्तर रिकॉर्ड ऊंचाई पर पहुंच गया है। यह वर्ष 2023 के 420.4 पीपीएम (पार्ट्स प्रति मिलियन) से बढ़कर 2024 में 423.9 पीपीएम हो गया है। एजेंसी के अनुसार यह बढ़ते तापमान और अधिक चरम मौसमी घटनाओं के नए खतरों का संकेत देता है।
इसके बावजूद हम जलवायु के मामले में कार्रवाई करने के लिए अत्यंत आवश्यक प्रतिबद्धता से हटने के स्पष्ट संकेत देख रहे हैं। और यह केवल अमेरिका नहीं है जो इस उलट कार्रवाई में सबसे आगे है, बल्कि एक व्यापक वैश्विक हिचकिचाहट है। अनेक देशों को कार्बन में कमी लाने के समाधानों में तेजी लाना मुश्किल लगता है जबकि ये उत्सर्जन में भारी कटौती कर सकते हैं। ऐसे में सवाल यह है कि अंतत: परिणति क्या होगी-बढ़ते जलवायु खतरों के सामने कार्रवाई करने की तत्परता, या आर्थिक हितों से प्रेरित निष्क्रियता?
फिर खबर यह भी है कि पहली बार अक्षय ऊर्जा ने 2025 के पहले छह महीनों में बिजली के प्राथमिक स्रोत के रूप में कोयले को पीछे छोड़ दिया है।
ऊर्जा थिंक टैंक एम्बर ने अपनी रिपोर्ट ‘ग्लोबल इलेक्ट्रिसिटी मिड-इयर इनसाइट्स 2025’ में बताया है कि सौर ऊर्जा ने तेजी से विकास दर्ज किया है। यह पिछले तीन वर्षों में दोगुना हो गया है और उसने इस अवधि के दौरान किसी भी अन्य स्रोत की तुलना में अधिक बिजली जोड़ी है। सौर ऊर्जा उत्पादन में इस वृद्धि का आधे से अधिक हिस्सा एक ही देश चीन का रहा।
भारत ने भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। हालांकि, रिपोर्ट में इस बात को रेखांकित किया गया है कि देश भीषण गर्मी और आर्टिफिशल इंटेलिजेंस (एआई) पर काम कर रहे डेटा केंद्रों की बढ़ती जरूरत पूरा करने के लिए जीवाश्म ईंधन पर आधारित बिजली की ओर लौट रहे हैं। प्राकृतिक गैस पर आधारित बिजली की खपत 1.6 फीसदी बढ़कर रिकॉर्ड ऊंचाई पर पहुंच गई है जिसमें अमेरिका सबसे आगे है।
कार्बनब्रीफ नामक वेबसाइट के अनुसार चीन अपनी अक्षय ऊर्जा उपलब्धियों और कोयला बिजली उत्पादन क्षमता के पर्याप्त उपयोग के बावजूद नए कोयला बिजली संयंत्रों का निर्माण कर रहा है, जिससे 95 गीगावॉट की नई क्षमता जुड़ेगी। भारत में भी यही स्थिति है। अब सवाल यह है कि क्या अक्षय ऊर्जा का प्रभुत्व बढ़ता रहेगा, या जीवाश्म ईंधन की वापसी का रुख रहेगा? एक और बड़ा बदलाव इलेक्ट्रिक वाहनों (ईवी) की ओर रुझान में देखा जा सकता है।
इसमें क्रांतिकारी बदलाव लाने की क्षमता है, क्योंकि यह परिवहन क्षेत्र में कार्बन की तीव्रता को कम करता है। अंतरराष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी (आईईए) के अनुसार वर्ष 2024 में दुनिया भर में बिकने वाली सभी नई कारों में से लगभग 20 फीसदी इलेक्ट्रिक थीं। चीन इस वृद्धि में अग्रणी रहा, जहां नई कारों की बिक्री का लगभग आधा हिस्सा इलेक्ट्रिक कारों का था। ईवी पर अब अपेक्षाकृत कम खर्च आ रहा है और उनका प्रदर्शन पेट्रोल तथा डीजल वाहनों के बराबर ही है।
लेकिन दूसरी ओर इस बदलाव में तकनीक से ज्यादा भू-राजनीति की अड़चनों का सामना करना पड़ रहा है। इलेक्ट्रिक वाहनों की आपूर्ति श्रृंखला- दुर्लभ खनिजों से लेकर बैटरी उत्पादन और इलेक्ट्रिक वाहन निर्माण तक- में चीन का लगभग पूर्ण प्रभुत्व है। इस वजह से अन्य वाहन निर्माता देश वाहनों के विद्युतीकरण की अपनी महत्त्वाकांक्षा से पीछे हटने के लिए प्रेरित हुए हैं।
सब्सिडी वापस ली जा रही है और पेट्रोल और डीजल इंजन वाली कारों को चरणबद्ध तरीके से बंद करने की योजनाओं पर पुनर्विचार किया जा रहा है। महत्त्वपूर्ण दुर्लभ खनिजों के निर्यात पर प्रतिबंध लगाने के चीन के हालिया कदम से इस वैश्विक हरित परिवर्तन में और अधिक अस्थिरता आने की आशंका है। वैश्विक व्यापार और अर्थव्यवस्था में इस बढ़ते ध्रुवीकरण के बीच, क्या इलेक्ट्रिक वाहन तेजी से बढ़ेंगे या उनके चलन की गति मंद पड़ जाएगी?
ऐसा लगता है कि दुनिया दो खेमों में बंट गई है- वे देश जिन्होंने पुरानी तकनीकों और जीवाश्म ईंधनों में निवेश किया है, और वे देश जो उभरती, हरित तकनीकों में निवेश कर सकते हैं। मुख्य बात यह है कि नई ऊर्जा प्रणालियों में बदलाव धन की उपलब्धता पर निर्भर करेगा ताकि नई दुनिया नई हरित तकनीक की ओर तेजी से बढ़ सके।
अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष द्वारा हाल ही में जारी विश्व आर्थिक परिदृश्य अपनी टैगलाइन के साथ आज की अनिश्चितता को सटीक रूप से दर्शाता है: ‘वैश्विक अर्थव्यवस्था में उतार-चढ़ाव, संभावनाएं धुंधली।’ लेकिन इसकी असली चिंता इसके आंकड़ों से आती है, जो बताते हैं कि 2000 के बाद पहली बार 2025 में दुनिया के सबसे गरीब और सबसे कमजोर देश आधिकारिक विकास सहायता से प्राप्त राशि से अधिक ऋण चुकाने पर खर्च कर रहे हैं।
तो फिर, इस उलझी और अव्यवस्थित दुनिया में हम सबके लिए भविष्य क्या है? आखिरी और शायद एकमात्र सवाल यह है: सकारात्मक बदलाव की बयार को और तेज करने के लिए क्या किया जा सकता है?