इस अखबार के स्तंभों में चीन की वित्त तथा मुद्रा से जुड़ी दिक्कतों पर नियमित रूप से लिखा गया है। चीन अमेरिकी डॉलर के दबदबे वाली अंतरराष्ट्रीय वित्तीय तथा मुद्रा प्रणालियों के विकल्पों को बढ़ावा देने में जुटा है। यह काम एक साथ कई तरीकों से हो रहा है। चीन ने सबसे पहले अपने यहां सेंट्रल बैंक डिजिटल करेंसी (सीबीडीसी) तैयार और इस्तेमाल की। साथ ही उसने व्यापक रूप से इस्तेमाल हो रही स्विफ्ट (सोसाइटी फॉर वर्ल्डवाइड इंटर-बैंक फाइनैंशियल टेलीकम्युनिकेशन्स) प्रणाली को टक्कर देने के लिए सीमा पार डिजिटल भुगतान प्रणालियों को भी बढ़ावा दिया है।
शुरुआती तरीकों में से एक एमब्रिज परियोजना है, जो अब पूरी तरह तैयार हो गई है। यह सीबीडीसी के इस्तेमाल से होने वाली सीमा पार डिजिटल भुगतान व्यवस्था है, जिसे शुरू में चीन, थाईलैंड और संयुक्त अरब अमीरात (यूएई) के केंद्रीय बैंकों तथा हॉन्ग कॉन्ग के मौद्रिक प्राधिकरण ने बढ़ावा दिया था। बैंक फॉर इंटरनैशनल सेटलमेंट (बीआईएस) ने भी इसे सहारा दिया था। एमब्रिज परियोजना में कई केंद्रीय बैंक साझेदार हैं, जिनमें भारतीय रिजर्व बैंक और अमेरिकी फेडरल रिजर्व भी शामिल हैं। जून 2024 में सऊदी अरब ने स्थायी सदस्य बनकर इसे और मजबूती दी। बीआईएस यह कहते हुए परियोजना से हट चुका है कि शुरुआती चरण सफल होने के कारण अब उसकी मदद की जरूरत नहीं रह गई। मगर यह अटकल जोरों पर है कि अमेरिका ने इस डर में बीआईएस को परियोजना से हटने के लिए मजबूर किया कि इससे डॉलर की अंतरराष्ट्रीय भूमिका को चुनौती मिल सकती है।
इससे भी रोचक यह है कि एमब्रिज के बाद ब्रिक्स+ समूह (जिसमें अब मूल सदस्यों ब्राजील, रूस, भारत, चीन और दक्षिण अफ्रीका के साथ ईरान, यूएई, सऊदी अरब, मिस्र, इथियोपिया, वेनेजुएला तथा इंडोनेशिया भी जुड़ गए हैं) के भीतर भी ऐसी ही पहल शुरू हो गई है। ब्रिक्स ब्रिज प्रस्ताव का जिक्र ब्रिक्स+ की विभिन्न बैठकों के आधिकारिक दस्तावेज तथा घोषणापत्रों में नहीं किया गया है, हाल में संपन्न कजान शिखर बैठक में भी नहीं। इसका पहला जिक्र फरवरी 2024 में ब्रिक्स+ देशों के वित्त मंत्रियों और केंद्रीय बैंकों के गवर्नरों की साओ पाउलो में हुई पहली बैठक की रूसी विज्ञप्ति में दिखा। तब से इस पर अनौपचारिक और अलग से होने वाली बैठकों में चुपचाप बात की जाती है। इससे जुड़ी पहल ब्रिक्स क्लियर का जिक्र औपचारिक दस्तावेजों में आता है। यह पहल ब्रिक्स+ देशों के बीच स्वेच्छा से भुगतान तथा निपटान प्रणाली शुरू करने से जुड़ी है। एमब्रिज और ब्रिक्स+ ब्रिज का रिश्ता साफ है – आगे जाकर इनमें से एक दूसरे में समा जाएगा।
इन घटनाओं को 2018 में स्थापित शांघाई इंटरनैशनल एनर्जी एक्सचेंज में पेट्रो-युआन बाजार में लगातार हो रही वृद्धि से जोड़ा जाना चाहिए। तेल संकट के बाद 1974 में सऊदी अरब और अमेरिका के बीच समझौता हुआ, जिसमें सऊदी अरब अमेरिकी डॉलर में तेल व्यापार के लिए तैयार हो गया। वह अपने डॉलर भंडार को अमेरिकी बॉन्ड, बैंक और वित्तीय संस्थाओं में दोबारा निवेश करने को भी राजी हुआ। इससे पेट्रो-डॉलर बाजार का जन्म हुआ और आरक्षित तथा विनिमय मुद्रा के रूप में डॉलर की भूमिका बहुत बढ़ गई। ओपेक के अन्य सदस्य देश भी जल्द ही सऊदी अरब की राह पर चलने लगे। सऊदी अरब ने हाल ही में अपने तेल खाते का निपटान डॉलर के अलावा दूसरी मुद्राओं में शुरू कर दिया है। यूएई भी ऐसा ही करने लगा है।
नए-नवेले पेट्रो-युआन बाजार को मजबूती मिली है। भारत यूएई से रुपये में तेल खरीदता है। दुनिया भर का 10.5 फीसदी तेल व्यापार शांघाई इंटरनैशनल एनर्जी एक्सचेंज से ही होता है। दुनिया के कुल तेल वायदा कारोबार का 14.4 फीसदी वहीं हो रहा है। ब्रेंट क्रूड की हिस्सेदारी 29 फीसदी और वेस्ट टेक्सस इंटरमीडिएट की हिस्सेदारी 56 फीसदी है।
पेट्रो-डॉलर के विकल्प अपनाने के प्रयासों के बीच सऊदी अरब का एमब्रिज तथा ब्रिक्स+ ब्रिज में शामिल होना समझ आने लगा है। सऊदी की भागीदारी होने और पेट्रो-डॉलर बाजार कमजोर होने से ब्रिक्स ब्रिज अभियान को गति मिलेगी। ब्रिक्स मुद्रा की बात करें तो कजान शिखर बैठक के दौरान ब्रिक्स विकास बैंक (न्यू डेवलपमेंट बैंक) के अध्यक्ष ने कहा कि सौदे निपटाने के लिए नई मुद्रा ‘यूनिट’ के इस्तेमाल पर सैद्धांतिक सहमति बन चुकी है। इसे 40 फीसदी समर्थन सोने और 60 फीसदी सहारा सदस्य देशों की मुद्राओं से दिया जाएगा। यूनिट को आधार प्रदान करने वाली मुद्राओं की बास्केट में मौजूद सोना सदस्य देशों में ढाला जाएगा। इसका जिक्र भागीदारी कर रहे केंद्रीय बैंकों की बैलेंस शीट में नहीं होगा मगर ब्रिक्स ब्रिज के बहीखाते में होगा और इसे अलग खाते में रखा जाएगा। यह देश की सीमाओं के भीतर ही रहेगा और किसी केंद्रीय अधिकरण के पास भेजने की जरूरत नहीं होगी।
यह प्रस्ताव उन चिंताओं को खोखला साबित करने के लिए है कि युआन आगे जाकर डॉलर की जगह ले सकता है। सोने से जुड़ने पर यूनिट भरोसेमंद मुद्रा बनती है। दुनिया भर के केंद्रीय बैंक अपना भंडार बढ़ाने के लिए सोना खरीद रहे हैं, विदेश से अपना सोना वापस ला रहे हैं। भारत ने बैंक ऑफ इंगलैंड में रखे अपने 800 अरब डॉलर वापस मंगा लिए। इससे लगता है कि डॉलर पर संदेह बढ़ रहा है और विदेश में रखे भंडार राजनीतिक कारणों से रोके जाने का डर भी बढ़ रहा है। यूनिट के साथ ऐसा नहीं होगा क्योंकि स्थानीय मुद्राओं की बास्केट और सोना देश की सीमाओं के भीतर ही रहेगा। यह नई और अनूठी व्यवस्था लगती है, लेकिन ब्रिक्स+ के आधिकारिक दस्तावेज में अभी तक इसका जिक्र नहीं है। इससे पता चलता है कि डॉलर को अनदेखा करने वाले देशों पर प्रतिबंध लगाने की अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप की धमकियों से चिंतित ब्रिक्स+ देश सावधानी बरत रहे हैं। किंतु अमेरिकी अर्थव्यवस्था में उथलपुथल और व्यापार को हथियार बनाने की ट्रंप की कोशिश डॉलर को ज्यादा नुकसान पहुंचा सकती हैं।
भारत ब्रिक्स+ मुद्रा और वित्तीय पहलों पर बातचीत तो कर रहा है मगर सतर्क बना हुआ है। विदेश मंत्री एस जयशंकर ने हाल ही में कहा कि ‘अमेरिकी डॉलर का प्रभाव कम करने में भारत की कोई दिलचस्पी नहीं है और वह डॉलर को अंतरराष्ट्रीय आर्थिक स्थिरता का स्रोत मानता है’। किंतु यदि अमेरिका वैश्विक अर्थव्यवस्था के दूसरे स्तंभों को नुकसान पहुंचाकर खुद ही डॉलर को कमजोर कर रहा हो तो?
भारत के लिए अपने विकल्प खुले रखना बेहतर होगा वरना वह वैश्विक अर्थव्यवस्था से और भी कट जाएगा। अमेरिका और उसकी मुद्रा पर दांव लगाना महंगा भी साबित हो सकता है।
(लेखक विदेश सचिव रह चुके हैं)