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साप्ताहिक मंथन- जलवायु परिवर्तन और जीडीपी

Last Updated- April 14, 2023 | 8:21 PM IST
End of 'eco-friendly' development concept!
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सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की आधुनिक अवधारणा करीब नौ दशक पुरानी है। इसे सन 1944 में ​ब्रेटन वुड्स सम्मेलन में औपचारिक रूप से प्रा​थमिक आर्थिक उपाय के रूप में अपनाया गया जिसका परिणाम अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) और विश्व बैंक की स्थापना के रूप में सामने आया।

आलोचक तब से अब तक इसे मिली प्राथमिकता की आलोचना करते रहे हैं क्योंकि यह कल्याण, असमानता और मानव विकास जैसे मुद्दों को शामिल नहीं करता। जीडीपी आ​र्थिक गतिवि​धियों के कारण पर्यावरण को होने वाली क्षति को भी शामिल नहीं करता। जलवायु ​परिवर्तन का सामना कर रहे लोगों पर पड़ने वाले प्रभाव भी इसके दायरे से बाहर हैं। विडंबना यह है कि पेड़ों को काटने का काम जीडीपी बढ़ाता है। बाद में दोबारा पौधरोपण करने से भी ऐसा ही होता है।

परंतु इसी वजह से जीडीपी अपनी मौजूदा खासियत में से कुछ गंवा सकता है। कार्बन उत्सर्जन और जलवायु परिवर्तन को रोकने के लिए बढ़ते प्रयासों पर विचार कीजिए। नवीकरणीय ऊर्जा क्षमताएं तैयार करने में भारी निवेश किया जा रहा है, बिजली से चलने वाले वाहनों पर जोर दिया जा रहा है और कई उद्योगों को नए सिरे से आविष्कृत किया जा रहा है।

कुछ देशों में कोयला आधारित बिजली संयंत्र बंद किए जा रहे हैं और नवीकरणीय ऊर्जा पर जोर दिया जा रहा है। पेट्रोल और डीजल से चलने वाली कारों पर जोर कम हो रहा है। जल्दी ही उनकी तादाद में कमी आने लगेगी और बिजली चालित वाहनों की राह आसान होगी। आने वाले दशक में कई बड़े पारंपरिक उद्योग चलन से बाहर होने लगेंगे।

ऐसे उथलपुथल वाले दौर मंथन में जीडीपी भ्रामक हो सकती है। केवल एनडीपी (विशुद्ध घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी में से अवमूल्यन को हटाने से प्राप्त उत्पाद) के माध्यम से ही मंथन को समझा जा सकता है।

अगर कोई कोयला चालित बिजली स्टेशन हटाकर उसकी जगह पवन या सौर ऊर्जा संयंत्र स्थापित किया जाता है तो एनडीपी द्वारा आकलित आ​र्थिक गतिवि​धियों में होने वाली विशुद्ध वृद्धि में कोयला चालित संयंत्र को रद्द किया जाना शामिल होगा जबकि जीडीपी के आंकड़े भ्रामक होंगे क्योंकि उसमें केवल सौर या पवन ऊर्जा से होने वाला उत्पादन दर्ज किया जाएगा।

अर्थव्यवस्थाओं में उत्पादक परिसंप​त्ति बढ़ने के साथ अवमूल्यन पहले ही महत्त्वपूर्ण हो चुका है। पिछली सदी की चौथी तिमाही में भारत के जीडीपी और एनडीपी के बीच का अंतर 6 फीसदी से थोड़ा अ​धिक था। अब यह करीब 12 फीसदी हो चुका है। कार्बन उत्सर्जन को नियंत्रित करने की को​शिश बढ़ने के साथ ही दोनों उपायों के बीच का अंतर बढ़ना चाहिए।

ऐसा इसलिए कि गहन कार्बन उत्सर्जन वाली उत्पादन सुविधाओं की जगह स्वच्छ विकल्प अपनाए जाएंगे। उदाहरण के लिए रेलवे अभी भी नए डीजल इंजन अपने बेड़े में शामिल कर रही है। उनमें से कई को जल्दी ही विराम दे दिया जाएगा क्योंकि रेलवे अपने सभी मार्गों का विद्युतीकरण कर रही है।

इन्हें तथा ऐसे ही अन्य बदलावों को दर्ज करने से वह पूरा अवमूल्यन दर्ज नहीं होगा जिसे शामिल करने की आवश्यकता है क्योंकि आम वृहद आ​र्थिक आंकड़े भले ही वे विनिर्मित पूंजी के अवमूल्यन को दर्ज कर लें लेकिन वे प्राकृतिक पूंजी मसलन जल संसाधन, वन संपदा, स्वच्छ ऊर्जा आदि की अनदेखी करते हैं।

भारत का भूजल स्तर दशकों से गिर रहा है और उसकी वजह से खेती वाले राज्यों में संकट की ​​स्थिति बन रही है। वायु प्रदूषण लोगों के स्वास्थ्य को प्रभावित कर रहा है। गंगा के मैदान में बढ़ता तापमान लोगों के स्वास्थ्य पर असर डालेगा। हिमालय में बन रहे बांध पर्यावरण को क्षति पहुंचा रहे हैं। जोशीमठ इसका उदाहरण है। स्वयं बांधों को भी नुकसान पहुंच सकता है। 2021 में दो निर्माणाधीन बांध बह गए।

इन चीजों से निपटने के लिए तथा औद्योगिक परिवर्तन लाने के लिए बड़े पैमाने पर बदलाव की आवश्यकता होगी। इसका एक परिणाम पूंजी-उत्पादन अनुमान बढ़ना हो सकता है। उच्च पूंजी-उत्पादन अनुपात का सीधा अर्थ वृद्धि में धीमापन होता है। ऐसे में आ​र्थिक गतिवि​​धियों के प्रमुख कारक के रूप में जीडीपी कम विश्वसनीय रह जाती है।

एनडीपी पर करीबी नजर रखना भी पर्याप्त साबित नहीं होगा। इसके अलावा देश को परिसंप​त्तियों और देनदारियों की बैलेंसशीट में सालाना बदलाव पर भी नजर रखनी चाहिए। इनमें प्राकृतिक और मानव संसाधन शामिल हैं।

जीडीपी और एनडीपी को ऐसी बैलेंस शीट के साथ देखा जाना चाहिए, ठीक वैसे ही जैसे कंपनी के शेयर धारक आय और व्यय दस्तावेजों के साथ परिसंप​त्तियों और देनदारियों पर नजर रखते हैं। अक्सर बैलेंस शीट ही अ​धिक महत्त्वपूर्ण दस्तावेज होती है। जलवायु परिवर्तन के कारण अर्थव्यवस्थाएं जहां नए तौर तरीके अपनाएंगी, वहां आ​र्थिक उपायों का स्वरूप भी बदलेगा।

First Published - April 14, 2023 | 8:21 PM IST

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