वित्त वर्ष 2025-26 के बजट में वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने बुनियादी ढांचे पर पूंजीगत व्यय के लिए 11.21 लाख करोड़ रुपये का प्रावधान किया था। यह रकम पिछले वर्ष के 11.11 लाख करोड़ रुपये से मामूली अधिक है। संदेश साफ था, पिछले 25 वर्षों में प्रमुख बुनियादी ढांचा क्षेत्र (खासकर परिवहन एवं ऊर्जा) निश्चित सीमा तक प्रगति कर चुका है और अब दूसरे क्षेत्रों पर ध्यान देने की जरूरत है।
उनमें सामाजिक बुनियादी ढांचा (स्वास्थ्य सेवा, शिक्षा, पर्यटन, आवास, स्वच्छता, जल, कौशल विकास और डिजिटल) प्रमुख है। ये क्षेत्र लोगों के जीवन पर सीधा असर डालते हैं और मतदाताओं के बीच भी उनकी काफी धाक मानी जाती है। वित्त मंत्री ने बजट भाषण में कहा कि केंद्रीय मंत्रालयों को तीन साल के लिए परियोजनाओं की एक सूची तैयार करनी होगी जो सार्वजनिक एवं निजी भागीदारी (पीपीपी) से क्रियान्वित की जा सकती हैं। राज्यों को भी ऐसा करने के लिए प्रोत्साहित किया गया है और वे भारत अवसंरचना परियोजना विकास निधि (आईआईपीडीएफ) से मदद लेकर पीपीपी प्रस्ताव तैयार कर सकते हैं। यानी यह सामाजिक बुनियादी ढांचे पर ध्यान देने का समय है, जिसे सरकार भी अच्छी तरह समझ रही है।
राजकोषीय घाटा काबू में रखने के सरकार के संकल्प के कारण सामाजिक बुनियादी ढांचे पर सार्वजनिक व्यय रुकता है। इसमें से ज्यादातर निवेश पर मुनाफा नहीं होता, इसलिए निजी क्षेत्र से पूंजी की आमद जरूरी है। इसमें सरकार को केवल साझेदारी
इसमें सरकार की भूमिका साझेदारी करने और जोखिम घटाने पर केंद्रित होनी चाहिए। व्यवहार्यता अंतर के लिए रकम मुहैया कराने (वीजीएफ) से काम बन सकता है। वीजीएफ परियोजनाओं के लिए एक प्रकार का पूंजीगत अनुदान होता है, जिसे सरकार को लौटाने की जरूरत नहीं होती है। इसके तहत दी जाने वाली रकम न तो पूंजी होती है और न ही कर्ज बल्कि अनुदान की तरह होती है और इससे परियोजना की लागत कम हो जाती है। वर्ष 2005 से ही पीपीपी को वीजीएफ से खूब मदद मिल रही है। 2020 में इसमें बदलाव किया गया है और अब इसमें तीन लक्षित उप-योजनाएं शामिल की गई हैं।
उप-योजना 1 के अंतर्गत जल, कचरा प्रबंधन, स्वास्थ्य एवं शिक्षा परियोजनाओं के लिए 60 प्रतिशत (केंद्र एवं राज्य दोनों से 30-30 प्रतिशत) वीजीएफ उपलब्ध कराया जाता है। उप-योजना 2 के अंतर्गत स्वास्थ्य एवं शिक्षा में प्रायोगिक परियोजनाओं की मदद की जाती है। इसके तहत 80 प्रतिशत वीजीएफ और 50 प्रतिशत परिचालन लागत पांच वर्षों के लिए उपलब्ध कराए जाते हैं। अन्य क्षेत्रों को 40 प्रतिशत वीजीएफ मिलता है।
वीजीएफ योजना से सरकार को भी विभिन्न परियोजनाओं पर व्यय करने की गुंजाइश मिल जाती है। उदाहरण के लिए अगर 5 अस्पताल 1,000 करोड़ रुपये (प्रति अस्पताल) लागत के साथ केवल सरकारी खर्च से बनते हैं तो उन पर कुल खर्च 5,000 करोड़ रुपये रहेगा। मगर 20 प्रतिशत वीजीएफ के अंतर्गत अगर निजी क्षेत्र आगे आता है तो सरकार का खर्च केवल 1,000 करोड़ रुपये रह जाएगा। बाकी बचे 4,000 करोड़ रुपये से सरकार 20 नए अस्पताल बना सकती है।
वीजीएफ को आम तौर पर हाइब्रिड एन्युटी मॉडल से जोड़ा जाता है। स्वच्छ गंगा अभियान के लिए कचरा उपचार संयंत्रों के निर्माण एवं संचालन में इसका इस्तेमाल किया गया है। पीपीपी पर तैयार इस व्यवस्था में सरकार 40 प्रतिशत पूंजी अग्रिम देती है और परियोजना की अवधि के दैरान संचालन एवं रखरखाव पर एन्युटी के जरिये खर्च करती है।
जिला अस्पतालों में भी अच्छा मौका मिलता है। पहले से चल रहे जिला अस्पतालों को किसी नए निजी चिकित्सा कॉलेज से जोड़ने के लिए नीति आयोग ने पीपीपी योजनाओं का प्रस्ताव दिया है। नीति आयोग की वेबसाइट पर एक मॉडल कन्सेशन एग्रीमेंट (एमसीए) उपलब्ध है। आंध्र प्रदेश के चित्तूर और गुजरात के भुज में पीपीपी के ऐसे सफल उदाहरण मौजूद हैं।
जहां तक पर्यटन बुनियादी ढांचे की बात है तो 3.65 किलोमीटर लंबी वाराणसी रोपवे परियोजना के लिए वीजीएफ मे 20 प्रतिशत केंद्र और 20 प्रतिशत उत्तर प्रदेश सरकार दे रही है। दूसरी रोपवे परियोजनाओं के लिए भी वीजीएफ पर जोर दिया जा रहा है।
पीपीपी के जरिये सरकारी आईटीआई में सुधार की योजना के अंतर्गत सरकार द्वारा संचालित 1,227 आईटीआई शामिल किए गए हैं और उनमें प्रत्येक के साथ कोई न कोई औद्योगिक साझेदार जुड़ा हुआ है। ऐसी योजनाओं के लिए काफी अधिक रकम की जरूरत होती है।
हाल के दिनों में टाटा समूह को वीजीएफ के मद में बड़ी रकम आवंटित की गई है। यह आवंटन समूह को गुजरात के धोलेरा में इसकी सेमीकंडक्टर विनिर्माण परियोजना के लिए किया गया है। परियोजना पर 91,000 करोड़ रुपये लागत आने का अनुमान है। वीजीएफ के अंतर्गत इसका आधा हिस्सा दिया जा रहा है।
भारत में सामाजिक बुनियादी ढांचे में पीपीपी की भूमिका तुलनात्मक रूप से अब भी सीमित रही है। क्षेत्र विशिष्ट एमसीए का अभाव इसका एक कारण रहा है। एमसीए के साथ परियोजनाओं को तेजी से अनुमति मिलती है जैसा कि दिवंगत गजेंद्र हल्दिया द्वारा तैयार सड़क क्षेत्र के लिए बहुचर्चित एमसीए के मामले में देखा गया है। वर्ष 2005 से 5.45 अरब डॉलर मूल्य की 67 वीजीएफ परियोजनाएं मंजूर हुई हैं जिनमें 86 प्रतिशत हिस्सा परिवहन एवं लॉजिस्टिक्स और 6 प्रतिशत ऊर्जा, जल एवं स्वच्छता में गया है मगर सामाजिक ढांचा क्षेत्र में यह केवल 8 प्रतिशत तक ही सीमित है।
वीजीएफ केवल धन के रूप में ही आए यह जरूरी नहीं है। सरकार द्वारा प्रदत्त जमीन एवं यूटिलिटी संपर्क का बाह्य विकास भी वीजीएफ का रूप हो सकते हैं। इस तरह के योगदान सरकारी मदद के ही रूप होते हैं।
सामाजिक ढांचा परियोजनाओं के आर्थिक विकास के इस चरण में वीजीएफ की व्यापक व्याख्या जरूरी हो गई है। ऐसा करने के बाद ही भारत प्रमुख और सामाजिक अवसंरनचा के दो इंजनों के साथ तेजी से आगे बढ़ सकता है। निजी पूंजी और संचालन में उनकी (निजी क्षेत्र) भूमिका इसमें अहम होगी। इससे हमें लोगों का जीवन संतुष्ट बनाने एवं उनके समग्र कल्याण को बढ़ावा देने मदद मिलेगी।
(लेखक बुनियादी ढांचा क्षेत्र के विशेषज्ञ एवं इन्फ्राविजन फाउंडेशन के संस्थापक एवं प्रबंध न्यासी हैं। लेख में वृंदा सिंह का भी योगदान )