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डॉलर के प्रवाह को संभालने की जुगत

Last Updated- December 15, 2022 | 3:09 AM IST

पिछले कुछ महीनों में भारत में डॉलर की भरमार देखने को मिली है। इसका ताल्लुक काफी हद तक आयातित वस्तुओं के मूल्य में आई गिरावट से है और विभिन्न तरह की पूंजी की आवक बढऩे से इसका नाता कम है। भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) ने अपने विदेशी मुद्रा भंडार को बढ़ाकर मुद्रा विनिमय दर को स्थिर बनाए रखा है। पांच महीनों में आरबीआई के विदेशी मुद्रा भंडार में 56.8 अरब डॉलर की भारी वृद्धि देखी गई है। सवाल है कि क्या विनिमय दर को स्थिर रखने की नीति आम तौर पर बनी रहनी चाहिए?
अधिकांश मौकों पर डॉलर अधिकता की स्थिति बड़ी मात्रा में पूंजी आवक के अचानक बढऩे की वजह से पैदा होती है। इसका ताल्लुक आयात मूल्यों में आई गिरावट से कम ही होता है। अगर आरबीआई अपने मुद्रा भंडार को बढ़ाता है तो देश एक अवसर लागत भी चुकाता है क्योंकि कहीं दूसरी जगह इस फंड पर ऊंचा प्रतिफल मिल सकता है। इसके अलावा आरबीआई ने मुद्रास्फीति को 4 फीसदी के स्तर पर बनाए रखने का लक्ष्य भले ही तय किया हुआ है लेकिन इसके लचीला होने की अपेक्षा है। वहां इसे विभिन्न उद्देश्यों के बीच समायोजन बिठाने में कठिनाई आती है जब इसे पूंजी प्रवाह से निपटना होता है। लेकिन आरबीआई के पास सीमित साधनों को देखते हुए इसका विकल्प ही क्या रह गया है?
ऐसी स्थिति में हमें आरबीआई से इतर कुछ सोचने की जरूरत है। वित्त मंत्रालय के पास कुछ उपाय हो सकते हैं। यह सुनने में थोड़ा अटपटा लग सकता है लेकिन पिछले दशक के बारे में किए गए अनुसंधान इसका एक तरीका बताते हैं। आरबीआई की पूंजीगत खाता परिवर्तनीयता पर वर्ष 2006 में आई रिपोर्ट और मुद्रास्फीति निर्धारण पर 2014 में आई रिपोर्ट के पांचवें अध्याय को मौजूदा हालात में फिर से पढऩे की जरूरत है। यहां पर मैं अर्थशास्त्र और परिचालन विवरणों से मिले बिंदुओं पर ध्यान केंद्रित करूंगा।
प्रस्तावित नीति के मूल विचार को समझने के लिए हमें लोक अर्थशास्त्र पर थोड़ा गौर करना होगा। इसे एक उदाहरण से समझने की कोशिश करते हैं। एक फैक्टरी से निकलने वाला धुआं आस-पड़ोस के लोगों को नुकसान पहुंचा सकता है। यह एक ऐसी बाह्यता है जिससे जुड़ी सामाजिक लागत को नजरअंदाज किया जा सकता है। स्थापित नीति यही है कि इस बाह्यता को दुरुस्त करने के लिए उस फैक्टरी पर एक कर लगा दिया जाए।
वर्जिनिया यूनिवर्सिटी के एंटोन कोरिनेक के अलावा ओलिवर ज्यां, विरल आचार्य और अरविंद कृष्णमूर्ति ने भी लोक अर्थशास्त्र में बाह्यता के इस विश्लेषणात्मक पहलू का विस्तार वृहद-अर्थशास्त्र में बाह्यता तक किया है। इस लेखक ने इस तर्क को और आगे बढ़ाया है।
बाह्यताओं की स्थिति में, बाजार कीमतें प्रासंगिक सूचनाओं को अलग रखती हैं। इसका मतलब है कि एक बाह्य स्थिति से जुड़ी लागत उस उत्पाद की कीमत का हिस्सा नहीं होती है। इसके उलट, कई अस्थायी वृहद-आर्थिक आघात की स्थिति में बाजार कीमतें काफी हद तक अप्रासंगिक सूचनाओं को भी समेटे रहती हैं। किसी भी स्थिति में हमारे सामने उत्पादों की गलत कीमतें ही सामने आती हैं जिन्हें एक कर नीति के माध्यम से सही किया जा सकता है।
बड़ी मात्रा में पूंजी की अचानक आवक या बहिर्गमन क्षणिक वृहद-आर्थिक आघात का एक बढिय़ा उदाहरण है। आदर्श रूप में इस अस्थायी घटना का आयात एवं निर्यात पर असर नहीं पडऩा चाहिए। लेकिन वास्तव में ऐसा होता है क्योंकि बाजार विनिमय दर पर पूंजी प्रवाह का असर पड़ता है। इस स्थिति को काबू में करने का एक तरीका अचानक एवं बड़े पैमाने पर होने वाले पूंजी प्रवाह पर करारोपण हो सकता है। इसके दायरे में सामान्य पूंजी प्रवाह को नहीं रखना है। मौजूदा संसाधनों को देखते हुए अर्थव्यवस्था के भीतर विदेशी निवेशकों द्वारा परिसंपत्तियों के लेनदेन पर किसी तरह की पाबंदी नहीं लगाई गई है। इसके पीछे सोच केवल यह है कि अल्प समय में थोक पैमाने पर होने वाले अंतरराष्ट्रीय पूंजी प्रवाह को हतोत्साहित किया जाए। निश्चित रूप से, बाजार के लिए किसी भी अचंभे से बचने के लिए पहले ही नीतिगत बदलाव की घोषणा कर देने की जरूरत है।
वित्त मंत्रालय की तरफ से प्रस्तावित कर नीति आरबीआई की तरफ से हस्तक्षेप की जरूरत को अगर अनावश्यक नहीं बनाती है तो उसे कम जरूर करती है। एक अतिरिक्त नीतिगत उपाय होने से जहां वित्त मंत्रालय पूंजी की तीव्र गतिशीलता का ध्यान रख पाएगा, वहीं आरबीआई को भी अपनी तमाम जिम्मेदारियों के निर्वहन को लेकर कम समस्या झेलनी होगी। ध्यान रखें कि मौजूदा नीति के तहत सार्वजनिक प्रतिष्ठान मुद्रा भंडार रखने की बड़ी अवसर लागत चुकाते हैं। इसके विपरीत प्रस्तावित नीति में बड़े पूंजी प्रवाह पर कर लगाने से फायदे की बात कही गई है।
प्रस्तावित कर अधिक मशहूर टोबिन कर से अलग है। यह एक बेहद छोटा कर है लेकिन बड़े पैमाने पर होने वाली खरीद-फरोख्त रोकने के लिए जारी रहने वाला कर है। इसके उलट, भारत में प्रस्तावित कर सामयिक है और इसका आकार पूंजी प्रवाह की मात्रा के हिसाब से तय होता है। दिलचस्प ढंग से इसे नियमों के मुताबिक ढाला जा सकता है। निश्चित तौर पर, इस विशिष्ट नियम को स्थायी होने की जरूरत नहीं है।
कुछ परिस्थितियों में बड़े पैमाने पर निकासी होने पर हेज फंड अक्सर निवेशकों पर जुर्माना या पाबंदियां भी लगाते हैं। दिलचस्प है कि निवेशक इन प्रावधानों के बारे में जानते हैं और इनसे सहमत भी हैं। प्रस्तावित कर नीति असल में बेहद बुनियादी सिद्धांत को जरूरत के हिसाब से ढालने की कोशिश है।
पूंजी प्रवाह नीति में प्रस्तावित बदलाव के प्रभावों से एक सवाल भी खड़ा होता है। केंद्रीय बैंक ने पूंजी गतिशीलता बनाए रखने और विनिमय दर स्थायित्व के लिए किस तरह हस्तक्षेप किया? यह एक रोचक सवाल है लेकिन इसके जवाब की तलाश हमें काफी पहले की नीतियों- मसलन, गोल्ड स्टैंडर्ड एवं निर्धारित विनिमय दर की तरफ ले जाएगी। वह अपने आप में शोध का एक अलग विषय है। यहां मुद्दा औचक पूंजी प्रवाह से निपटने में वित्त मंत्रालय की प्रस्तावित नीति का क्रमिक रूप से अधिक इस्तेमाल और आरबीआई की नीति का इस्तेमाल धीरे-धीरे कम करने का है।
(लेखक भारतीय सांख्यिकीय संस्थान, दिल्ली केंद्र के अतिथि प्राध्यापक हैं)

First Published - August 21, 2020 | 11:23 PM IST

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