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मनरेगा बनेगा ‘वीबी-जी राम जी’, केंद्र सरकार लाने जा रही है नया ग्रामीण रोजगार कानून

मनरेगा को समाप्त कर उसकी जगह वीबी-जी राम जी नामक नए ग्रामीण रोजगार कानून को लाने का प्रस्ताव तैयार किया गया है जिसमें कार्यदिवस और फंडिंग व्यवस्था में बदलाव सुझाए गए हैं

Last Updated- December 15, 2025 | 11:30 PM IST
indian labour
प्रतीकात्मक तस्वीर | फाइल फोटो

केंद्र सरकार ने महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) को रद्द करने और इसकी जगह ‘विकसित भारत-गारंटी फॉर रोजगार ऐंड आजीविका मिशन (ग्रामीण)’ या वीबी-जी राम जी नाम के एक नया रोजगार कानून लाने का फैसला किया है। नए कानून में अनिवार्य कार्य दिवसों को 100 से बढ़ाकर 125 करने और मौजूदा फंडिंग संरचना को बदलने का प्रस्ताव है, जिससे वित्तीय जिम्मेदारी का एक बड़ा हिस्सा राज्यों पर आ जाएगा।

नए कानून के तहत केंद्र और राज्यों के बीच फंडिंग की हिस्सेदारी मौजूदा अधिकतम 90:10 अनुपात के मुकाबले 60:40 के अनुपात में होगी। आलोचकों के अनुसार, मसौदा विधेयक के रूप में प्रसारित किए गए बदलावों में यह भी कहा गया है कि केंद्र सरकार को यह तय करने का अधिकार होगा कि वह देश के किन हिस्सों में योजना चलाना चाहती है और राज्य को भी फसलों की कटाई के मौसम के दौरान अपनी मर्जी के हिसाब से दो महीनों के लिए योजना को रोकने का अधिकार होगा।

जन आंदोलनों के एक समूह नरेगा संघर्ष मोर्चा ने एक बयान में कहा, ‘मनरेगा काम करने के वैधानिक अधिकार को मजबूती देता है जो मांग-संचालित और सार्वभौमिक है यानी किसी भी ग्रामीण क्षेत्र में अकुशल शारीरिक श्रम करने के इच्छुक किसी भी व्यक्ति को काम प्रदान किया जाना चाहिए। लेकिन ‘वीबी-जी राम जी’ विधेयक के तहत, धारा 5(1) में कहा गया है कि केंद्र सरकार द्वारा अधिसूचित राज्य के ऐसे ग्रामीण क्षेत्रों में, प्रत्येक ऐसे घर को जिसके वयस्क सदस्य अकुशल शारीरिक श्रम करने के लिए स्वेच्छा से तैयार हों, राज्य सरकार रोजगार की गारंटी देगी जो 125 दिनों से कम नहीं होना चाहिए।

ऐसे में यदि किसी ग्रामीण क्षेत्र को केंद्र द्वारा अधिसूचित नहीं किया जाता है, तब उस क्षेत्र के लोगों के लिए काम करने का कोई अधिकार नहीं होगा। ऐसे में यह प्रभावी रूप से सार्वभौमिक रूप से रोजगार की गारंटी देने वाली योजना से केंद्र सरकार की मेहरबानी पर चलने वाली किसी अन्य योजना में बदल जाता है।’

मसौदा विधेयक में यह भी कहा गया है कि राज्य सरकारें किसी वित्तीय वर्ष में 60 दिनों (दो महीने) की अवधि को, जो बोआई और कटाई वाले मौसम में होगा, पहले से अधिसूचित करेंगी और इस दौरान अधिनियम के तहत कोई काम नहीं किया जाएगा। इन बदलावों पर केंद्र सरकार द्वारा मसौदे से जुड़े जारी किए गए एक सवाल-जवाब में कहा गया है कि योजना को एक केंद्र प्रायोजित योजना से एक केंद्रीय क्षेत्र योजना में बदल दिया गया है क्योंकि ग्रामीण रोजगार स्वाभाविक रूप से स्थानीय है और राज्यों को अब लागत और जिम्मेदारी साझा करनी होगी। इससे दुरुपयोग को रोकने के लिए बेहतर प्रोत्साहन मिलेगा और यह सुनिश्चित होगा कि ग्राम पंचायत योजनाओं के माध्यम से विकास योजनाएं, क्षेत्रीय परिस्थितियों के अनुरूप तैयार किए जाएं।

मसौदे से जुड़े सवाल-जवाब में कहा गया है, ‘केंद्र मानक बनाए रखता है जबकि राज्य जवाबदेही के साथ काम पूरा करता है और यह साझेदारी मॉडल दक्षता में सुधार करने के साथ ही दुरुपयोग कम करता है।’फसल वाले सीजन के दौरान 60 दिनों तक काम न करने की अवधि को लेकर इसमें कहा गया है कि इससे बोआई या कटाई के दौरान श्रम की उपलब्धता सुनिश्चित होगी। साथ ही मजदूरी में वृद्धि को रोका जा सकेगा जो खाद्य कीमतों को बढ़ाती है। यह भी सुनिश्चित किया जा सकेगा कि श्रमिक स्वाभाविक रूप से खेतों में काम करें जिसमें मौसम के मुताबिक बेहतर मजदूरी मिलती है। सवाल-जवाब में कहा गया है, ‘कुल 60 दिन तय हैं लेकिन लगातार नहीं हैं, इसके बावजूद श्रमिकों को बाकी 300 दिनों में अब भी रोजगार के लिए 125 गारंटी वाले दिन मिलते हैं। इस तरह किसानों और श्रमिकों दोनों को लाभ होता है।’

मज़दूर किसान शक्ति संगठन (एमकेएसएस) और नैशनल कैंपेन फॉर पीपल्स राइट टु इनफॉर्मेशन (एनसीपीआरआई) के संस्थापक सदस्य निखिल डे ने बिज़नेस स्टैंडर्ड को बताया कि मनरेगा की सबसे बड़ी उपलब्धि यह थी कि इसने न्यूनतम मजदूरी को एक हकीकत बनाया था क्योंकि आकस्मिक मजदूरों के पास एक विकल्प था जिससे वे एक निश्चित दर से नीचे काम नहीं करना चाहते थे। लेकिन, मसौदा में प्रस्तावित बदलाव इसे कमजोर करते हैं और श्रमिकों के शोषण की गुंजाइश बनाते हैं।

मनरेगा के शुरुआत से ही इससे जुड़े रहे डे ने दावा किया कि मसौदा में किए गए बदलाव अधिनियम द्वारा दिए गए सभी कानूनी अधिकारों को खत्म कर देते हैं और इसे आवंटन-आधारित योजना बना देते हैं।

मसौदे से जुड़े सवाल-जवाब में कहा गया है, ‘केंद्र मानक बनाए रखता है जबकि राज्य जवाबदेही के साथ काम पूरा करता है और यह साझेदारी मॉडल दक्षता में सुधार करने के साथ ही दुरुपयोग कम करता है।’फसल वाले सीजन के दौरान 60 दिनों तक काम न करने की अवधि को लेकर इसमें कहा गया है कि इससे बोआई या कटाई के दौरान श्रम की उपलब्धता सुनिश्चित होगी। साथ ही मजदूरी में वृद्धि को रोका जा सकेगा जो खाद्य कीमतों को बढ़ाती है। यह भी सुनिश्चित किया जा सकेगा कि श्रमिक स्वाभाविक रूप से खेतों में काम करें जिसमें मौसम के मुताबिक बेहतर मजदूरी मिलती है।

सवाल-जवाब में कहा गया है, ‘कुल 60 दिन तय हैं लेकिन लगातार नहीं हैं, इसके बावजूद श्रमिकों को बाकी 300 दिनों में अब भी रोजगार के लिए 125 गारंटी वाले दिन मिलते हैं। इस तरह किसानों और श्रमिकों दोनों को लाभ होता है।’

मज़दूर किसान शक्ति संगठन (एमकेएसएस) और नैशनल कैंपेन फॉर पीपल्स राइट टु इनफॉर्मेशन (एनसीपीआरआई) के संस्थापक सदस्य निखिल डे ने बिज़नेस स्टैंडर्ड को बताया कि मनरेगा की सबसे बड़ी उपलब्धि यह थी कि इसने न्यूनतम मजदूरी को एक हकीकत बनाया था क्योंकि आकस्मिक मजदूरों के पास एक विकल्प था जिससे वे एक निश्चित दर से नीचे काम नहीं करना चाहते थे। लेकिन, मसौदा में प्रस्तावित बदलाव इसे कमजोर करते हैं और श्रमिकों के शोषण की गुंजाइश बनाते हैं।

मनरेगा के शुरुआत से ही इससे जुड़े रहे डे ने दावा किया कि मसौदा में किए गए बदलाव अधिनियम द्वारा दिए गए सभी कानूनी अधिकारों को खत्म कर देते हैं और इसे आवंटन-आधारित योजना बना देते हैं।

First Published - December 15, 2025 | 11:02 PM IST

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