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ट्रंप की धमकी और सुधार का अवसर

अपनी पीठ थपथपाने के बजाय भारत के सत्ता प्रतिष्ठान, ट्रंप के हालिया कदमों के खुमार से बाहर आएं और सुर्खियां संभालने के बजाय हकीकत पर ध्यान दें।

Last Updated- March 30, 2025 | 10:01 PM IST
Trump tariffs impact on US inflation

डॉनल्ड ट्रंप का आगमन और ‘ट्रंपवाद’ का तेज उभार भारत के लिए अच्छा है या बुरा? व्हाइट हाउस में आने के बाद से वह एक ही राग अलाप रहे हैं, ‘दुश्मन क्या हमें तो अपनों ने भी लूट लिया।’ तब से वह अपने दोस्तों को ही निशाना बना रहे हैं। सामरिक और रक्षा में यूरोप को तथा व्यापार में कनाडा, मेक्सिको और भारत को। भारत को तो उन्होंने टैरिफ किंग भी कह डाला है।

मेरा जवाब सिर्फ इतना है: वॉशिंगटन में यह बदलाव ऐसा है जैसे भारत के सिर पर बंदूक तान दी गई हो और घोड़े पर ट्रंप की अंगुलियां हों। मगर यह भारत के लिए सबसे बेहतर अवसर भी है। अजीब बात है न? चलिए, समझाता हूं।

किसी बड़े देश खासकर लोकतंत्र में राजनीति और अर्थशास्त्र कदमताल करते हैं। सामान्य समय में राजनीतिक नेतृत्व को यह तय करना चाहिए कि देश की अर्थव्यवस्था किस दिशा में जाएगी? परंतु भारत में ‘सामान्य’ के परिणाम अधिकतर अवसरों पर अलग होते हैं।

कम से कम दो मौकों पर भारत ने बड़े सुधार तब किए जब उसके सिर पर बंदूक तन गई। पहला मौका था 1991 में भुगतान संतुलन का संकट, जब भारत को आईएमएफ का दरवाजा खटखटाना पड़ा था। दूसरा था 1998 में पोखरण-2 के बाद वैश्विक प्रतिबंध। ट्रंप की धमकियां तीसरा मौका हो सकती हैं। अपनी पीठ थपथपाने के बजाय भारत के सत्ता प्रतिष्ठान को होश में आना चाहिए और सुर्खियां संभालने के बजाय हकीकत पर ध्यान देना चाहिए।

‘सबसे तेज बढ़ती बड़ी अर्थव्यवस्था’ अथवा ‘पांचवी सबसे बड़ी और जल्द ही जापान और जर्मनी को पछाड़कर तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने जा रहा देश’ जैसी खबरें देसी श्रोताओं को खुश कर सकती हैं मगर हम पिछले एक दशक से हम सुन रहे हैं कि विनिर्माण क्रांति होने को है फिर अब तक हो क्यों नहीं पाई? क्या ट्रंप के ऐसे दबाव की जरूरत थी? हम अतीत से कुछ सीख सकते हैं।

सबसे पहले 1947 से 1989 के दौर को आर्थिक लिहाज से दु:स्वप्न समझ कर भूल जाते हैं। कुछ इतिहासकार और अर्थशास्त्री कह सकते हैं कि इंदिरा गांधी ने आपातकाल के बाद के दौर में नियंत्रण कम करना शुरू कर दिया था और राजीव गांधी ने उसे आगे बढ़ाया। कांग्रेस ने आर्थिक सुधारों की प्रक्रिया शुरू की, इस बात पर पक्के कांग्रेसियों के अलावा कोई यकीन नहीं करेगा। हकीकत में इंदिरा-राजीव के दशक की देन अगर कुछ है तो वह है भुगतान संतुलन का संकट जिसके चलते भारत में पहले बड़े सुधार हुए। बतौर वित्त मंत्री पी. चिदंबरम ने 1997-98 में देवेगौड़ा-इंद्र कुमार गुजराल के कार्यकाल में कुछ अहम बदलाव किए। उनमें से अधिकांश राव-मनमोहन के सुधारों को ही आगे बढ़ाने वाले थे लेकिन सरकारी उपक्रमों के लिए शेयर बाजार के दरवाजे खोलने और निजीकरण शुरू करने वाले कदम भी तभी उठाए गए।

परंतु इसके बाद भारत को अगले संकट का इंतजार करना पड़ा जो आया 1998 में वाजपेयी सरकार द्वारा पोखरण-2 परीक्षणों का। उनके बाद अमेरिका तथा उसके साझेदार देशों मसलन यूरोप, जापान और ऑस्ट्रेलिया तक ने बहुत बड़ी तादाद में प्रतिबंध लगाए।

तत्कालीन विदेश मंत्री जसवंत सिंह ने जब अमेरिका के साथ संवाद शुरू किया तो उन्होंने इस बात पर सबसे अधिक जोर दिया कि भारत एक जिम्मेदार परमाणु शक्ति है और चीन का जवाब बन रहा है। यह भी कि क्या अमेरिका सुधारों के दौर से गुजर रहे भारत के व्यापक आर्थिक अवसरों को गंवाना चाहता है?

इसके बाद सुधारों की दूसरी लहर आई। इसमें सरकारी उपक्रमों का बड़े पैमाने पर निजीकरण भी शामिल था। यहां तक कि मुनाफे में चल रहे उपक्रमों का भी। आज हम पीछे मुड़कर देखते हैं तो ऐसा लगता है मानो हमारी पीढ़ी के जीवन का एक छोटा खुशी भरा स्वप्न था। उसके बाद से एयर इंडिया को छोड़कर कोई निजीकरण नहीं हुआ। पोखरण के बाद लगे प्रतिबंधों के पश्चात एफडीआई से लेकर आयात तक तमाम सुधार हुए, भारतीय कंपनियों को विदेशों में निवेश करने की आजादी मिली और सामान्य नागरिकों को हर वित्त वर्ष में 2.50 लाख डॉलर की राशि विदेशों में निवेश करने की सुविधा मिली। इसके अलावा शुल्क में भी कमी देखने को मिली।

1999 के बजट में तत्कालीन वित्त मंत्री यशवंत सिन्हा ने कहा था कि वह शुल्क को आसियान देशों के लगभग बराबर ले आए हैं। संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन के कार्यकाल में इनमें से कोई सुधार वापस नहीं लिया गया, केवल सरकारी उपक्रमों का निजीकरण रुक गया। राव-मनमोहन के सुधारों का पहला विरोध कांग्रेस के समाजवादी विचार वाले नेताओं ने नहीं बल्कि कारोबारी जगत के दिग्गजों ने किया। स्वर्गीय राहुल बजाज ने अपने तथाकथित बॉम्बे क्लब के छत्र तले दिग्गजों को एकत्रित किया। किसी भी अन्य कारोबारी लॉबी की तरह उनका भी तर्क था कि अभी भारतीय कारोबार इतने परिपक्व नहीं हैं कि उन्हें वैश्विक प्रतिस्पर्धा के सामने कर दिया जाए। उनका कहना था कि उन्हें तब तक संरक्षण दिया जाए और मजबूत किया जाए जब तक कि वे प्रतिस्पर्धा के लायक न हो जाएं। उसके बाद ही सुधार किए जाएं।

राव को श्रेय दिया जाना चाहिए कि अल्पमत की सरकार होने के बावजूद वे झुके नहीं। जबकि बॉम्बे क्लब के कई समर्थक थे। उनमें से कई तो कांग्रेस में भी थे। ऐसा इसलिए भी था क्योंकि वह बता सकते थे कि आईएमएफ के ऋण का दबाव है और अगर भारत नहीं चुकाता है तो बड़ी आपदा घटित हो सकती है। इसका नतीजा देश के कारोबारी जगत के रचनात्मक विनाश के रूप में सामने आया। सन 1991 के दौर में आज की 30 सेंसेक्स कंपनियों की टक्कर की कंपनियों में से 12 पूरी तरह गायब हो चुकी हैं। हिंदुस्तान मोटर्स, प्रीमियर ऑटोमोबाइल्स, ऑर्के, एस्कॉर्ट्स आदि को याद कीजिए। जिन्होंने सुधारों को अपनाया उन्होंने तरक्की की मसलन- टाटा, महिंद्रा और यहां तक कि बजाज भी। इस बीच आईसीआईसीआई और एचडीएफसी, भारती, इन्फोसिस और विप्रो जैसे नए सितारे भी चमके। यह रचनात्मक विनाश ही पूंजीवाद का मूल है। इस सप्ताह के आरंभ में प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद के सदस्य संजीव सान्याल ने भी एक आलेख में यही बात कही। उन्होंने नाराजगी जताई कि यह प्रक्रिया पिछले दशक में पूरी तरह ठप हो गई।

2014 में मोदी को मिले बहुमत को कारोबारी जगत ने इस तरह देखा मानो एक अति शक्तिशाली माई-बाप सरकार का दौर लौट आया है जिसकी छत्र-छाया में वे फल-फूल सकते हैं। तब से अब तक हमें उच्च टैरिफ की वापसी देखने को मिली। इसका एक उदाहरण तो यही है कि आप शायद भारत में दुनिया का सबसे महंगा स्टील खरीद रहे हों। तब क्या आश्चर्य कि दुनिया में सबसे अधिक बाजार हिस्सेदारी वाली स्टील निर्माता कंपनी भारतीय है। यहां तक कि स्टील निर्माण करने वाली बड़ी चीनी कंपनियों का मूल्यांकन भी कम है। सुधारों के पहले वाली गड़बड़ी लौट आई है। शक्तिशाली बड़े कारोबारी बाजार हिस्सेदारी और कारोबारी क्षेत्रों को आपस में बांट रहे हैं। सरकार उसी पुरानी मान्यता की शिकार है कि वृद्धि ऊपर से नीचे आएगी। क्या ऐसा हुआ है?

सरकार के अपने आंकड़े बताते हैं कि मेक इन इंडिया के 10 वर्ष बाद 2023-24 में देश के जीडीपी में विनिर्माण की हिस्सेदारी उतनी ही थी जितनी कि वह 2013-14 में थी यानी 17.3 फीसदी। इस वर्ष तो इसके और कम रहने की उम्मीद है क्योंकि तीसरी तिमाही में विनिर्माण कृषि से भी पीछे है। रोजगार निर्माण में विनिर्माण का योगदान 2022-23 में 10.6 फीसदी था जबकि 2013-14 में यह 11.6 फीसदी था। यह रिजर्व बैंक का आंकड़ा है। हमारे जीडीपी में निर्यात की हिस्सेदारी 2013-14 के 25 फीसदी से घटकर 2023-24 में 22.7 फीसदी रह गई। आर्थिक समीक्षा बताती है कि वैश्विक निर्यात में भारत की हिस्सेदारी की वृद्धि दर कम हुई है।

यह विचार नाकाम रहा है कि सरकारी संरक्षण देश को विनिर्माण और निर्यात में आगे ले जाएगा। भारतीय कंपनियां निवेश नहीं कर रही हैं जबकि वित्त मंत्री बार-बार आग्रह कर रही हैं। कंपनियों को पर्याप्त मांग नजर नहीं आ रही है। वे निर्यात के क्षेत्र में प्रतिस्पर्धा करना नहीं चाहतीं।
भारत को एक और बड़े सुधार की आवश्यकता है जो किसी संकट की अवस्था में ही हो सकता है। ट्रंप ने अब हमारे सिर पर बंदूक तानी है। टैरिफ संरक्षण में उल्लेखनीय कमी तथा ऐसे ही अन्य कदम कारोबारी भारत को एक बार फिर प्रतिस्पर्धी बनाएंगे। अगर कुछ कंपनियां खत्म भी होती हैं तो पूंजीवादी रचनात्मक विनाश का स्वागत कीजिए। इस मंथन से कारोबारी भारत के नए सितारे निकलेंगे।

First Published - March 30, 2025 | 10:01 PM IST

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