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ट्रंप का नया कार्यकाल और बदलती दुनिया

दुनिया बदल रही है। शक्ति का संतुलन पश्चिमी देशों से निकलकर चीन के पाले में जा रहा है। यह सिलसिला जारी रहेगा जब तक दुनिया व्यवहार के नए नियमों पर सहमत नहीं हो जाती। बता रहे

Last Updated- January 14, 2025 | 11:20 PM IST
Tariff War

डॉनल्ड ट्रंप एक बार फिर अमेरिका के राष्ट्रपति बनने जा रहे हैं और दुनिया बड़े परिवर्तन के दौर से गुजर रही है। दूसरे विश्व युद्ध से ही सबसे शक्तिशाली देश भी राष्ट्रीय संप्रभुता को सीमित करने के इच्छुक थे। वे वैश्विक नियमों और सहकारी कदमों के पालन के लिए सहमत थे। ऐसे नियम कई मामलों में बनाए गए थे, जिनमें व्यापार और शुल्क ही नहीं बल्कि परमाणु हथियार, समुद्री कानून और राष्ट्रीय सीमाओं की सुरक्षा तक शामिल थी।

इसमें दो कारणों से बदलाव आया है। पहला, चीन का उदय और वैश्विक शक्ति में बदलाव। चीन यथास्थिति वाली शक्ति नहीं है, इसलिए वह उथलपुथल मचाना और अमेरिका को चुनौती देना चाहता है। दूसरा है महाशक्तियों में कद्दावर नेताओं का शासन जैसे रूस में व्लादीमिर पुतिन, चीन में शी चिनफिंग और अमेरिका में डॉनल्ड ट्रंप।

इन दोनों घटनाओं ने क्षेत्र में जीत के लिए महाशक्तियों के बीच जंग जैसी स्थिति फिर ला दी। इराक में अमेरिका की जंग ने आहट दी थी कि आगे क्या होने वाला है। तीन वर्ष पहले पुतिन ने यूक्रेन पर आक्रमण किया। शी ताइवान पर हमले की तैयारी करते दिख रहे हैं। ट्रंप पनामा नहर तथा ग्रीनलैंड पर कब्जे के लिए बल प्रयोग की धमकी दे रहे हैं।

इसके साथ और बदलाव भी हुए हैं। बहुपक्षीयता की जगह इकतरफा कार्रवाई पसंद की जा रही है। संयुक्त राष्ट्र और विश्व व्यापार संगठन की भूमिका तथा उपयोगिता में कमी आई है। जलवायु परिवर्तन के लक्ष्य हासिल करने के लिए जरूरी कदमों के मामले में भी दुनिया पिछड़ी है। भूराजनीति का मतलब हमेशा ताकत ही रहा था मगर अब यह ताकत नियम-कायदों से परे जा रही है। दक्षिण चीन सागर में भी यही दिख रहा है, गाजा में नरसंहार हो रहा है, तिब्बत में ब्रह्मपुत्र पर नया भीमकाय बांध बनाया जा रहा है और ऐसे आर्थिक प्रतिबंध लगाए जा रहे हैं जो उन देशों पर असर डालते हैं जिनका इन बातों से कोई लेना देना नहीं है।

यह सब मानसिकता में बदलाव के कारण है। जिस आपसी निर्भरता और व्यापार नेटवर्क को पहले लाभप्रद माना जाता था, उसे ही अब नुकसानदेह माना जा रहा है। इसलिए अब आधी सदी से चले आ रहे व्यापार उदारीकरण से दूरी दिख रही है। ऐसे में वैश्वीकरण का स्थान ‘मेरा देश प्रथम’ की धारणा ले रही है। परस्पर निर्भर अर्थव्यवस्थाओं की जगह आत्म निर्भरता की बात हो रही है। कारगर बाजार की जगह राष्ट्रीय सुरक्षा का जिक्र हो रहा है। यह तरीका सौ साल पहले अपनाया गया था मगर कारगर नहीं रहा था। इतिहास के सबक शायद अहम नहीं रह गए।

सबसे बड़ा बदलाव यह है कि अतीत में सबसे अधिक नियम बनाने वाला देश अमेरिका अब सबसे अविश्वसनीय देश बन चुका है। फाइनैंशियल टाइम्स के एक स्तंभकार ने पिछले दिनों सवाल उठाया कि अमेरिका विश्व शांति के लिए खतरा तो नहीं बन गया है। कोई नहीं जानता है कि वह आगे क्या करेगा। ये बातें दुनिया को और अधिक उथल पुथल वाली बनाती हैं, जहां पहले से बहुत अधिक अनिश्चितताएं और जोखिम हैं।

नियम और समझौते पहले से मौजूद शक्ति व्यवस्था दर्शाते हैं और दूसरे विश्वयुद्ध के बाद जो सहकारी एजेंडे बनाए गए थे वे पश्चिमी व्यवस्था के दबदबे के कारण संभव हुए थे। उन्हें युद्ध के बाद उभरे दुनिया के सबसे ताकतवर देश ने सामने रखा था। अब वह विश्व व्यवस्था ध्वस्त हो रही है तो हमें बुनियाद की ओर लौटना होगा। चीन के उभार ने पश्चिम के सामने अभूतपूर्व चुनौती पेश की है। पश्चिम मानता है कि चीन ने स्वीकार्य कारोबारी नियमों का पालन नहीं किया है और उसने व्यवस्थित ढंग से पश्चिम का औद्योगीकरण समाप्त करने काम किया है। उसने पश्चिम की तकनीक भी चुराई हैं। यही वजह है कि पश्चिम ने प्रतिबंध, शुल्क, तकनीक न देने जैसे कदम उठाए हैं।

शायद ये कदम उठाने में बहुत देर कर दी गई। उद्योग में चीन के दबदबे को चुनौती नहीं दी जा सकती। गत वर्ष उसने अमेरिका के मुकालबे 12.6 गुना इस्पात, 22 गुना सीमेंट और तीन गुना कारें तैयार कीं। उसकी इलेक्ट्रिक कारें अब जापान और जर्मनी की कार बाजारों में छाने जा रही हैं। 2030 तक चीन का विनिर्माण क्षेत्र समूचे पश्चिम के विनिर्माण क्षेत्र से अधिक हो जाने का अनुमान है। नए उद्योगों के मामले में यह पहले ही दूसरों से मीलों आगे है।

इस ताकत का फायदा तभी है, जब चीन वैश्विक बाजारों में रहे। लेकिन हकीकत में बाजारों को चीन की पहुंच से दूर किया जा रहा है। फिर भी 2024 में चीन 1 लाख करोड़ डॉलर के रिकॉर्ड व्यापार अधिशेष के करीब पहुंच गया। कई क्षेत्रों में यह पश्चिम से भी आगे है। यकीनन चीन की अर्थव्यवस्था में गंभीर ढांचागत दिक्कतें हैं, जिनसे उसका लगातार उभार नहीं हो पाता। परंतु यह तर्क भी दिया जा सकता है कि वह दिक्कतों से उसी कामयाबी के साथ निपट रहा है, जितना यूके, जर्मनी अथवा अमेरिका जैसे पश्चिमी देश।

हकीकत यह है कि पश्चिम को जितना ज्यादा खतरा लगा उतनी ही तेजी से उसने वे नियम त्याग दिए, जिन पर कभी वह खुद चलता था। नई दुनिया में हर देश अपने लिए लड़ रहा है और जिसमें दम है वही सही है। वास्तव में हर देश का रक्षा बजट बढ़ रहा है और उम्मीद करनी चाहिए कि इससे बड़ा संघर्ष न छिड़ जाए। इससे बच गए तो भी पुरानी दुनिया वापस नहीं आएगी। किंतु क्या नई दुनिया नए नियमों पर सहमत होगी?

मौजूदा हालात में महाशक्तियां आक्रामकता के जरिये अपनी हैसियत भांपकर बातचीत को तैयार हों उससे पहले वैश्विक शक्ति का पाला बदल जाना चाहिए। तभी जीने का नया तरीका सामने आएगा। मान सकते हैं कि चीन अमेरिका को वापस पश्चिम प्रशांत क्षेत्र में धकेल देगा मगर पूरी तरह नहीं। रूस भी जो चाहता है वह हासिल कर लेगा यानी दूर-दूर तक अपना दबदबा। यह स्थायी व्यवस्था होगी या नहीं यह कुछ अहम सवालों के जवाब पर निर्भर करता है: आज के शासकों की जगह कौन लेगा, क्या बड़ी शक्तियां जियो और जीने दो पर सहमत होंगी और मझोली शक्तियों की क्या भूमिका होगी?

आज की वैश्विक संस्थाओं में सुरक्षा परिषद की ही तरह सुधार होना चाहिए। आदर्श स्थिति में सुरक्षा परिषद को वीटो की व्यवस्था समाप्त करके यूरोपीय संघ तथा अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष या विश्व बैंक की तरह भार पर आधारित मतदान की व्यवस्था अपनानी चाहिए। इससे वीटो अधिकार वाले देश अंतरराष्ट्रीय मत का ज्यादा ध्यान रखेंगे और वैश्विक शक्ति का नया यथार्थ दिखेगा। व्यापार में पूर्ण वैश्विक व्यापारिक नियमों के बजाय बहुपक्षीय व्यवस्था के आसार दिखते हैं। दुनिया के ज्यादातर गरीब अफ्रीकी देशों में रहते हैं और उन देशों की मदद के लिए नया वैश्विक समझौता जरूरी है। ये कदम आसान नहीं होंगे और न ही इनके परिणाम निश्चित हैं, शायद बीच की शक्तियां कतर से सीखकर मध्यस्थता कर सकती हैं।

First Published - January 14, 2025 | 11:11 PM IST

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