अर्थशास्त्रियों को शायद यह महसूस हो रहा होगा कि अमेरिका के राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप के लिए अर्थशास्त्र के प्रारंभिक सिद्धांतों को समझना निहायत ही जरूरी हो गया है। इसके पीछे अर्थशास्त्रियों की यह सोच हो सकती है कि ट्रंप द्वारा 2 अप्रैल को ‘मुक्ति दिवस’ के नाम पर लगाए ऊंचे शुल्क अर्थशास्त्र के किसी भी सिद्धांत से मेल नहीं खाते हैं। ट्रंप का यह सोचना भी सही नहीं है कि अपने अरबपति मित्रों को वे कर रियायत देंगे और इससे जो राजस्व नुकसान होगा उसकी भरपाई शुल्कों से होने वाली कमाई से पूरी कर दी जाएगी।
मगर इन उद्देश्यों और ‘अनुचित व्यापार’ घाटे पर हो रही चर्चा से हटकर देखें तो राजनीतिक नजरिये से राष्ट्रपति ट्रंप के कदम अपनी जगह ठीक लग रहे हैं। कारोबार एवं उद्योग जगत जहां ट्रंप के ‘मुक्ति दिवस’ शुल्कों से नुकसान का हिसाब लगाने में जुटा है, वहीं ट्रंप के कट्टर समर्थक जश्न मना रहे हैं।
कारखानों में काम करने वाले या बेरोजगार रहने वाले ज्यादातर ऐसे समर्थकों को लगता है कि आयात शुल्क लगने के बाद विनिर्माण कंपनियां वापस अमेरिका लौट जाएंगी। उदाहरण के लिए यूनाइटेड ऑटो वर्कर्स (यूएडब्ल्यू) के अध्यक्ष ने कहा कि आयातित वाहनों पर 25 फीसदी शुल्क लगने से ‘एक ऐतिहासिक गलती दुरुस्त’ हो गई है। उनका इशारा 1993-94 के उत्तर अमेरिका मुक्त व्यापार समझौता की तरफ था जिसके बाद विनिर्माण गतिविधियां अमेरिका से मेक्सिको और कनाडा स्थानांतरित हो गईं थीं।
मगर वाहन कंपनियों की तात्कालिक प्रतिक्रिया कुछ और ही कहानी कह रही हैं। यद्यपि, जनरल मोटर्स ने कहा है कि वह अपने कुछ उत्पादन कार्य अमेरिकी राज्य इंडियाना में वापस स्थानांतरित करेगी मगर जगुआर लैंड रोवर और ऑडी जैसी कंपनियों ने अपने वाहन अमेरिका भेजने बंद कर दिए हैं। स्टेलेंटिस ने तो कनाडा और मेक्सिको में क्रिसलर और जीप ब्रांड बनाने वाले संयंत्रों में काम रोक दिया है। इतना ही नहीं, इन संयंत्रों को पुर्जे मुहैया कराने वाले 900 कर्मियों को मिशिगन में नौकरी से निकाल दिया है। यानी जिस उद्देश्य से शुल्क लगाए जा रहे हैं वे पूरे होते नहीं दिख रहे हैं।
यूएडब्ल्यू को इस बात से थोड़ी उम्मीद जग सकती है कि जनरल मोटर्स ने हल्के ट्रक बनाने के लिए इंडियाना स्थित अपने संयंत्र में कुछ उत्पादन गतिविधियां दोबारा शुरू करने की बात कही है। लेकिन यह विनिर्माण को शुल्कों का कवच पहनाने से उत्पन्न समस्याओं का एक अच्छा उदाहरण है। पिक-अप या हल्के ट्रक को 1960 के दशक से ही 25 फीसदी शुल्क का सुरक्षा कवच हासिल है जो आयातित चिकन पर जर्मनी द्वारा लगाए कर लगाने के विरोध में लगाया गया था।
‘मुक्ति दिवस’ तक हल्के ट्रकों पर शुल्क आयातित कारों की तुलना में बहुत अधिक था। परिणाम यह हुआ कि अमेरिका में वाहन निर्माता कंपनियां छोटी एवं सिडान कारों के खंड में गलाकाट प्रतिस्पर्द्धा से बचने के लिए हल्के ट्रक बनाने में जुट गईं।
पिक-अप वाहनों के लिए उन्हें बाहर से कोई चुनौती भी नहीं मिल रही थी। अमेरिका में वाहन कंपनियों के लिए पिक-अप ट्रक कारोबार निःसंदेह मुनाफे का सौदा रहा है मगर समस्या यह है कि कहीं दूसरी जगह इन वाहनों का बाजार नहीं है। दुनिया में चीन सबसे अधिक हल्के ट्रकों का उत्पादन करता है और इस कारोबार में इसकी वैश्विक हिस्सेदारी सबसे अधिक है। चीन में विनिर्माण लागत अमेरिका की तुलना में 10फीसदी कम है।
हल्के ट्रकों का उदाहरण इस बात का संकेत हैं कि अमेरिका अन्य जगहों खासकर चीन (जिस पर अमेरिका ने 145 फीसदी शुल्क लगा दिया है) से वाहन उत्पाद मंगाने वाली बहुराष्ट्रीय कंपनियों की सस्ती लागत का मुकाबला नहीं कर सकता है। जो कंपनियां अमेरिका में उत्पादन कार्य दोबारा शुरू करना चाहती हैं वे रोजगार देने के मामले में शायद कुछ विशेष योगदान नहीं दे पाएंगी, जो ट्रंप की उम्मीदों के लिए झटका साबित हो सकता है। विनिर्माण कंपनियां पूरी दुनिया में लागत कम करने के लिए आर्टिफिशल इंटेलिजेंस (एआई) आधारित स्वचालन का इस्तेमाल कर रही हैं और अमेरिका में भी वह ऐसा ही करेंगी।
कुशल कर्मी भी आसानी से नहीं मिलेंगे क्योंकि पिछले कुछ दशकों के दौरान अमेरिका में विनिर्माण उद्योग काफी सिकुड़ गया है। अमेरिका में इस समय हर 12 कर्मियों में केवल एक ही विनिर्माण क्षेत्र में काम करता है जबकि 1970 के दशक में 5 कर्मियों में एक इस क्षेत्र से जुड़ा हुआ था। बेशक, एशिया में तकनीकी कौशल की कमी नहीं है मगर ट्रंप की आव्रजन विरोधी नीतियों के कारण चीन या दूसरे देशों से हुनरमंद लोग अमेरिका जाकर वहां प्रतिभाओं की कमी तो पूरी नहीं कर पाएंगे।
ट्रंप प्रशासन ऐपल को आईफोन अमेरिका में बनाने के लिए कह रहा है और इसके लिए भी शुल्कों पर दांव खेल रहा है। ऐपल शायद ही अमेरिका का रुख करेगी। ऐपल अपने आईफोन एवं अन्य उत्पाद ज्यादातर चीन, भारत और वियतनाम से मंगाती है। एक विश्लेषक ने कहा कि कि आईफोन अगर अमेरिका में तैयार होने लग जाएं तो एक फोन की कीमत लगभग 3,000 डॉलर होगी, जो इस समय 1,000 डॉलर में मिल जाता है। चूंकि, आईफोन का हरेक पुर्जा अमेरिका से बाहर बनता है इसलिए अमेरिका में उत्पादन शुरू करने के लिए ऐपल को अपनी पूरी वैश्विक आपूर्ति व्यवस्था का रुख बदलना होगा जो उथल-पुथल लाने वाली प्रक्रिया होगी और इसमें समय भी काफी अधिक लग सकता है।
टिम कुक ट्रंप के राष्ट्रपति चुनाव अभियान के लिए भारी भरकम दान देकर अब पछता रहे होंगे। जेफ बेजोस और मार्क जकरबर्ग का भी यही हाल होगा जिनकी कंपनियों को तगड़ा नुकसान हो सकता है क्योंकि उनके विज्ञापन राजस्व में मोटा हिस्सा रखने वाले चीन के विज्ञापनदाता खर्च में कमी कर रहे हैं।
व्यापार से जुड़ी बाधाएं पहले भी अमेरिका के लिए मददगार साबित नहीं हुई हैं। घरेलू उत्पादन बढ़ाने के लिए चीनी आयात पर सीमा (क्यूबा क्रांति से जुड़ी एक खास बात) लगाने के कदम ने अमेरिका में कैंडी उद्योग को पूरी तरह तहस-नहस कर दिया था क्योंकि कन्फेक्शनरी उत्पाद बनाने वाली कंपनियां दूसरे देशों में सस्ती चीनी खोजने लगीं। क्यूबा के साथ अमेरिका के संबंध अब सामान्य हो चुके हैं मगर धनाढ्य चीनी उद्योग से जुड़ा गुट अब भी चीनी आयात पर नियंत्रण का हिमायती है।
अगर शुल्क लगाने के बाद प्रतिकूल प्रभावों से अमेरिका को कोई सबक सीखने की जरूरत है तो भारत उसके लिए मुफीद देश रहेगा। ट्रंप ने ऊंचे आयात शुल्कों के लिए भारत की आलोचना की है। 1960 और 1970 के दशकों में भारतीय कंपनियां इस्पात से लेकर कार सभी तरह के उत्पाद बनाती थीं और बाद में कंज्यूमर ड्यूरेबल भी बनाने लगीं। ये सभी उत्पाद आयात एवं लाइसेंस से जुड़ी पाबंदियों के बीच ही तैयार हो रहे थे।
इस नीति के कारण लंबे समय से मुश्किलों का सामना कर रहे भारतीय उपभोक्ताओं को कम गुणवत्ता वाली वस्तुओं (कार से लेकर रेफ्रिजरेटर, वॉशिंग मशीन एवं टीवी आदि) पर निर्भर रहना पड़ा। उस वक्त इन उत्पादों की इतनी कमी थी कि लोग उन्हें पाने के लिए कतार में आगे जाने के लिए रिश्वत देने के लिए भी तैयार रहते थे। मगर प्रतिस्पर्द्धा के अनुशासन के अभाव में उनमें से ज्यादातर ‘अग्रणी’ ब्रांड (कुछ अपवादों को छोड़कर) 24 जुलाई, 1991 को भारत के ‘मुक्ति दिवस’ के बाद गायब हो गए।
समस्या यह है कि शुरू से ही सुरक्षात्मक वातावरण में आगे बढ़े ज्यादातर भारतीय विनिर्माण उद्योग वैश्विक नियम-शर्तों के अनुरूप प्रतिस्पर्द्धा करना नहीं सीख पाए और विदेशी विनिर्माताओं के हाथों हिस्सेदारी गंवाते गए या घरेलू उत्पादक बन कर रह गए। कुछ हद तक यह भी एक कारण है कि शुल्क बढ़ाकर घरेलू विनिर्माताओं को निवेश के लिए प्रोत्साहित करने की मौजूदा सरकार की नीति कारगर नहीं रही है।
अमेरिका का वैश्विक बौद्धिक संपदा में अब भी दबदबा है। उदाहरण के लिए क्यूपर्टिनो, कैलिफोर्निया स्थित एक स्टार्टअप कंपनी ने उत्पादों का सिर्फ डिजाइन तैयार कर अरबों डॉलर कमाए जिनको फिर कम लागत पर दूसरे देशों में तैयार कराया जाता है। ट्रंप ने शुल्क युद्ध शुरू कर अपने ही देश की सबसे बड़ी मजबूती को नजरअंदाज कर दिया है और भविष्य में इसे इतना नुकसान पहुंचा सकता है जिसकी शायद भरपाई भी न हो पाए।