अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप ने मंगलवार को संयुक्त राष्ट्र महासभा के 80वें अधिवेशन में स्वचालित सीढ़ी (एस्केलेटर) के अचानक रुकने और टेलीप्रॉम्पटर में खराबी के जिक्र के साथ अपना भाषण दिया। यह वैश्विक राजनीति की एक निराशाजनक तस्वीर पेश करता है। ट्रंप का भाषण लगभग 56 मिनट तक चला जो प्रत्येक वैश्विक नेताओं के लिए निर्धारित 15 मिनट से अधिक था। उनके भाषण में तारतम्यता का अभाव था और यह बेतरतीब, ज्यादातर तथ्य-मुक्त और ‘मागा’ के रंग में रंगा था।
मसलन उन्होंने अपने भाषण में दावा कि अमेरिका का सुनहरा युग शुरू हो गया है, प्रवासन एक खतरा है और जिन देशों ने प्रवासियों को स्वीकार किया वे स्वयं का अहित कर रहे हैं। ट्रंप ने कहा कि जलवायु परिवर्तन ‘दुनिया के साथ किया गया बड़ा धोखा’ है और दावा किया कि दुनिया में सात युद्ध रोकने में उनकी अहम भूमिका रही है। अमेरिकी राष्ट्रपति ने यह भी दावा किया कि लंदन में शरिया कानून आ जाएगा और ईसाई धर्म खतरे में है। उन्होंने यह भी कहा कि फिलिस्तीन को मान्यता देना हमास को ‘प्रोत्साहन’ देने के समान है। उन्होंने अपने भाषण में यूरोप को रूसी तेल का एक प्रमुख खरीदार बताया। उनका यह भाषण इस साल जनवरी में उनके उद्घाटन भाषण की तरह ही लग रहा था।
राष्ट्रपति के रूप में पहले कार्यकाल में संयुक्त राष्ट्र में उनके भाषण को हंसी-ठहाकों का साथ मिला था मगर इस बार वहां मौजूद लोगों में खामोशी देखी गई जो शायद इस बात की मौन स्वीकृति थी कि अमेरिका ने दुनिया में सकारात्मक बदलाव लाने की अपनी भूमिका से नाता तोड़ लिया है। अमेरिकी राष्ट्रपति की टिप्पणियों पर दिखी चुप्पी के उलट एक बड़े मुस्लिम देश इंडोनेशिया के राष्ट्रपति प्रबोवो सुबियांतो के भाषण का तालियों के साथ जोरदार स्वागत किया गया।
सुबियांतो ट्रंप के ठीक बाद महासभा को संबोधित करने आए थे। उन्होंने कहा, ‘ताकत को कभी सही नहीं ठहराया जा सकता, सही का सही होना आवश्यक है। कोई भी देश पूरे मानव समाज को नहीं धमका सकता’। ब्राजील के राष्ट्रपति लुइज इनासिओ लूला दा सिल्वा ने डॉनल्ड ट्रंप जैसे नेताओं के कारण उत्पन्न खतरे को काफी मजबूती से व्यक्त किया। उन्होंने बताया कि कैसे 1945 में संयुक्त राष्ट्र के संस्थापकों को प्रेरित करने वाले आदर्शों को अलोकतांत्रिक ताकतों द्वारा खतरा है जो ‘धन की पूजा करते हैं, अज्ञानता की प्रशंसा करते हैं, शारीरिक और डिजिटल लड़ाकों के रूप में कार्य करते हैं और प्रेस पर अंकुश लगाते हैं’।
हालांकि, अमेरिकी राष्ट्रपति की एक बात तो सच मानी जा सकती है। यह वास्तविकता है कि संयुक्त राष्ट्र शांति और सुरक्षा स्थापित करने की प्रभावी ताकत के रूप में कार्य करने में विफल रहा है। मगर यह भी सच है कि ट्रंप ने ही संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद से निकल कर, संयुक्त राष्ट्र के लिए 1 अरब डॉलर की राशि रोक कर और संयुक्त राष्ट्र के योगदान को समाप्त करने का प्रस्ताव देकर उसे कमजोर करने की प्रक्रिया तेज की है। संयुक्त राष्ट्र के नियमित बजट और शांति स्थापना बजट में अमेरिका की हिस्सेदारी क्रमशः 22 फीसदी और 26 फीसदी है।
ट्रंप ने इस बात की अनदेखी कर दी कि अमेरिका अपनी जिम्मेदारियों का पालन करने से इनकार कर संयुक्त राष्ट्र को कमजोर बनाने के लिए जिम्मेदार है। 21वीं सदी में वैश्विक राजनीति में संयुक्त राष्ट्र की भूमिका कमजोर होने की शुरुआत 2003 में शुरू हुई जब अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू बुश ने संयुक्त राष्ट्र चार्टर का उल्लंघन करते हुए इराक पर आक्रमण किया। वर्तमान में इजरायल के सैन्य अभियान को अमेरिकी समर्थन की वजह से फिलिस्तीन का मसला कमजोर हुआ है। यह अलग बात है कि कुछ यूरोपीय देश द्वि-राष्ट्र समाधान प्रस्ताव का देर-सबेर समर्थन कर रहे हैं।
संयुक्त राष्ट्र में प्रमुख निर्णय लेने वाली इकाई सुरक्षा परिषद के स्थायी सदस्य जलवायु परिवर्तन से लेकर संप्रभु राष्ट्रों और मानवाधिकारों के उल्लंघन तक जैसे प्रमुख वैश्विक मुद्दों पर आम सहमति कायम करने के बजाय एक-दूसरे के साथ झगड़ रहे हैं। ट्रंप के संबोधन ने अनजाने में समकालीन वास्तविकताओं को प्रतिबिंबित करने के लिए वैश्विक संस्थागत ढांचे को दुरुस्त करने की तत्काल आवश्यकता का उल्लेख कर दिया।
ब्रिटेन और रूस जैसे कमजोर होते देशों की जगह जर्मनी (जो निर्विवाद रूप से यूरोप की सबसे बड़ी आर्थिक शक्ति है) या ब्राजील और भारत जैसे देशों को जगह दी जानी चाहिए। एक अधिक प्रतिनिधित्व वाली संस्था सत्तावादी राष्ट्रवादियों के उदय को भले नहीं रोक सकती मगर यह दुनिया को अस्थिर करने वाले जरूरी विषयों पर अधिक ध्यान दिए जाने में जरूर कारगर हो सकती है।