केंद्र सरकार को नीति आयोग के मुख्य कार्याधिकारी बीवीआर सुब्रह्मण्यम की सलाह पर ध्यान देना चाहिए। सोमवार को सुब्रह्मण्यम ने कई दिलचस्प और महत्त्वपूर्ण बातें कहीं जो बताती हैं कि अंतरराष्ट्रीय व्यापार को लेकर भारत के नीतिगत विचार में क्या कमियां हैं और इस मामले में क्या करने की आवश्यकता है। कुछ अन्य बातों के अलावा उन्होंने कहा कि भारत को चीन सहित एशिया पर करीबी नजर रखनी होगी और पड़ोसियों के साथ मजबूत कारोबारी रिश्ते कायम करने होंगे।
साफ कहें तो व्यापक तौर पर पड़ोसी देशों के साथ भारत की व्यापार व्यवस्थाएं भूराजनीतिक हालात पर निर्भर करती हैं जो अक्सर प्रतिकूल ही रहते हैं। बहरहाल, भारत शेष एशिया के साथ जुड़ाव स्थापित कर सकता है जो आने वाले वर्षों में वैश्विक वृद्धि का अधिक महत्त्वपूर्ण वाहक सिद्ध होगा। लेकिन चीन की मौजूदगी और दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों के संघ (आसियान) के साथ हुए अपने व्यापार समझौते के परिणामों के कारण भारत अब तक अनिच्छुक बना हुआ है।
बहरहाल, जैसा कि सुब्रह्मण्यम ने उचित ही कहा कि चीन की अनदेखी करना संभव नहीं है। आखिर वह दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था वाला देश है। कुछ देश चीन के साथ व्यापार अधिशेष की अवस्था में हैं। भारत द्वारा अपनी अर्थव्यवस्था में खुलापन नहीं लाने की बुनियादी वजह प्रतिस्पर्धी क्षमता की कमी है। यह कमी भी हमारी व्यापार नीति का ही परिणाम है। घरेलू कारोबारों के संरक्षण के लिए उच्च शुल्क दर लागू करने से कच्चे माल पर कर लगता है जो सीधे तौर पर भारतीय निर्यातकों की प्रतिस्पर्धी क्षमता को प्रभावित करता है। भारत को इस मसले को तत्काल संबोधित करने की जरूरत है।
नीति आयोग की ताजा तिमाही व्यापार निगरानी रिपोर्ट जो चमड़ा और जूते-चप्पल के निर्यात पर केंद्रित है, उसमें कहा गया है कि भारत जूते-चप्पल के निर्माण में लगने वाले कच्चे माल में करीब 10 फीसदी शुल्क लगाता है जबकि उसके प्रतिस्पर्धी मसलन वियतनाम आदि करीब शून्य कर लगाते हैं। भारत को अपना रुख बदलने की आवश्यकता है। मसलन खबरों के मुताबिक एक वरिष्ठ सरकारी अधिकारी ने हाल ही में सुझाव दिया कि भारत को उन देशों के साथ मुक्त व्यापार समझौते पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए जो अभी प्रतिस्पर्धी नहीं हैं। यह व्यापार का सही तरीका नहीं है। अगर भारत किसी गैर प्रतिस्पर्धी देश के साथ व्यापार करता भी है तो भी वह देश ऐसे स्रोतों से वस्तुएं खरीद सकता है जो भारत के मुकाबले अधिक प्रतिस्पर्धी हों।
भारत ने ब्रिटेन के साथ मुक्त व्यापार समझौते पर हस्ताक्षर करके अच्छा किया है और वह यूरोपीय संघ के साथ ऐसे समझौते को लेकर चर्चा कर रहा है। भारत जितनी जल्दी यह समझौता करेगा, उतना ही अच्छा होगा। अमेरिका के साथ भी भारत एक साझा लाभकारी व्यापार समझौते के लिए प्रयासरत है।
बहरहाल, अमेरिकी प्रशासन की अनिश्चित प्रकृति को देखते हुए भारत को जल्द से जल्द अन्य व्यापारिक साझेदार देशों के साथ कहीं अधिक गहन समझौतों के प्रयास करने चाहिए। भारत विशाल क्षेत्रीय समझौतों का हिस्सा भी नहीं है। यही वजह है कि उसे वैश्विक मूल्य श्रृंखलाओं के साथ एकीकृत होने में भी मुश्किलों का सामना करना पड़ता है।
भारत ने व्यापक क्षेत्रीय आर्थिक साझेदारी समझौते (आरसेप) में शामिल होने को लेकर कुछ शको-शुबहे जाहिर किए हैं जो मुख्य रूप से चीन की मौजूदगी से संबंधित हैं। अब उसे अपने रुख की समीक्षा करनी चाहिए। भारत को प्रशांत-पार व्यापक एवं प्रगतिशील साझेदारी समझौते में शामिल होने पर भी विचार करना चाहिए।
भारत के लिए अपने निर्यात का विस्तार करना भी महत्त्वपूर्ण है। बाहरी मांग टिकाऊ उच्च वृद्धि का अहम स्रोत हो सकता है। हाल के दशकों में कई आसियान देश इसका उदाहरण रहे हैं। भारतीय रिजर्व बैंक की मौद्रिक नीति समिति में प्रकाशित ताजा शोध दिखाता है कि कंपनी के स्तर पर और समग्र स्तर पर भी निर्यात वृद्धि का सांख्यिकीय दृष्टि से तयशुदा निवेश वृद्धि पर महत्त्वपूर्ण असर पड़ता है। माना जाता है कि निजी निवेश में सुधार मध्यम अवधि में उच्च आर्थिक वृद्धि बनाए रखने के नजरिये से अहम है। अतः व्यापार की संभावनाओं में सुधार विभिन्न माध्यमों से वृद्धि को बढ़ावा दे सकता है और उसे टिकाऊ बना सकता है।