चीन और पाकिस्तान के बीच एक मजबूत रणनीतिक गठबंधन है। भारत को दोनों से अलग-अलग निपटना चाहिए लेकिन उस स्थिति के लिए भी तैयार रहना चाहिए कि कहीं दोनों मिलकर उसके विरुद्ध साजिश न कर बैठें। विगत तीन दशकों में स्वयं को पाकिस्तान से अलग रख कर प्रस्तुत करना हमारी व्यापक रणनीति का केंद्रीय बिंदु रहा है। परंतु हम भौगोलिक या सामरिक रूप से पाकिस्तान से दूरी नहीं बना सकते। जैसा कि अटल बिहारी वाजपेयी ने कहा था, ‘हम अपने पड़ोसी नहीं चुन सकते।’ भारत को इस मामले में खास ‘मेहरबानी’ हासिल है और हमारे पड़ोस में दो परमाणु हथियार संपन्न शत्रुता रखने वाले पड़ोसी हैं।
उनके बीच मजबूत सामरिक गठजोड़ है जो शायद आज की दुनिया में अमेरिका और इजरायल के बाद सबसे मजबूत गठजोड़ है। इसके बावजूद वो अलग-अलग देश हैं। उनके हित साझा लेकिन प्राथमिकताएं अलग हैं। उनसे निपटने के लिए जरूरी उपाय करने आवश्यक हैं। आदर्श स्थिति में तो एक समय में एक देश से ही निपटना सही है लेकिन इस बात के लिए भी तैयार रहना होगा कि कहीं दोनों मिलकर हमला न बोलें। वे ऐसा प्रत्यक्ष रूप से भी कर सकते हैं और परोक्ष रूप से भी। हमने ऑपरेशन सिंदूर में ऐसा होते हुए देखा। ऐसे में भारत की व्यापक रणनीति का पहला तत्व बचाव का होना चाहिए।
भारत सैन्य और आर्थिक दृष्टि से पाकिस्तान से निपटने के लिए बेहतर तरीके से तैयार है। चीन हमारे सामने असल चुनौती है जिसकी बराबरी करने या फिर स्थायी शांति के लिए जिसके साथ पर्याप्त पारस्परिक हित तैयार करने में हमें लंबा समय लगेगा। यहीं से पाकिस्तान को अलग-थलग रखने का विचार सामने आता है। सन 1980 में इंदिरा गांधी की दूसरी पारी के बाद से हर प्रधानमंत्री ने यही प्रयास किया है। भारत ने अमेरिका समेत पश्चिम की हर उस कोशिश का विरोध किया है जिसमें भारत और पाकिस्तान को एक पलड़े पर रखते हुए किसी नीति का सुझाव दिया गया। बिल क्लिंटन के पहले कार्यकाल तक इसे लेकर प्रगति धीमी रही, लेकिन इसके बाद इसमें तेजी आई और परमाणु समझौते के बाद के दो दशकों में तो इसमें काफी प्रगति हुई।
इस मामले में भारत यहां तक गया कि उसने पश्चिमी नेताओं की भारत और पाकिस्तान की एक साथ यात्राओं का भी विरोध किया। भले ही यह आने वाले नेताओं के लिए कितना भी सुविधाजनक क्यों न रहा हो लेकिन इसे दोनों देशों को एक पलड़े पर रखने का प्रयास माना गया। इसके कारगर होने का पहला संकेत तब मिला जब क्लिंटन करगिल के बाद पाकिस्तान गए लेकिन कुछ घंटे हवाई अड्डे पर बिता कर ही वहां से निकल गए। उन्होंने वहां पाकिस्तान को यह चेतावनी भी दी कि ‘इस महाद्वीप के नक्शे अब खून से नए सिरे से नहीं तैयार किए जा सकते।’अब यह सिद्धांत ठोस तरीके से स्थापित है और हमने देखा कि कैसे इंडोनेशिया के राष्ट्रपति प्रबोवो सुबियांतो गणतंत्र दिवस के मुख्य अतिथि के रूप में भारत आए लेकिन उन्हें इस दौरे में पाकिस्तान को शामिल करने से विनम्र तरीके से रोक दिया गया था। अमेरिका इसकी अलग व्याख्या करता रहा कि और उसका कहना है कि उपमहाद्वीप को लेकर उसका नजरिया एक का नफा, दूसरे का नुकसान वाला नहीं है। वह कहता है कि वह शीतयुद्ध की छाया से परे भारत और पाकिस्तान दोनों के साथ रिश्ते रख सकता है।
शिमला समझौता इसी सिद्धांत पर आधारित है कि अब आगे से भारत और पाकिस्तान अपने सभी मामलों को द्विपक्षीय तरीके से हल करेंगे। यह कहा गया कि कोई भी तीसरा पक्ष, मध्यस्थ इसमें कोई भूमिका नहीं निभाएगा और इस तरह संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के तमाम पुराने प्रस्तावों को निरर्थक बना दिया गया। यही वजह है कि डॉनल्ड ट्रंप द्वारा बार-बार (अब तक 16 बार) भारत और पाकिस्तान के बीच संघर्ष विराम कराए जाने के दावों ने भारत को नाराज किया। कांग्रेस ने नरेंद्र मोदी पर आरोप लगाया कि उन्होंने ट्रंप के दबाव के आगे समर्पण कर दिया और उन्होंने प्रतिक्रिया भी दी। परंतु अब लगता है कि यहां दोनों पक्ष शांत हो चुके हैं। उम्मीद की जानी चाहिए कि दोनों पक्षों का यह रिश्ता इस उथलपुथल को झेल जाएगा। ध्यान रहे दोनों इसे 21वीं सदी का सबसे महत्त्वपूर्ण रणनीतिक रिश्ता बताते हैं।
हमें उम्मीद करनी चाहिए कि ट्रंप भी अब यह समझेंगे कि अगर उनको नोबेल पुरस्कार चाहिए तो उसके लिए यह सही भू-सामरिक जगह नहीं है। अगर भारत और पाकिस्तान वास्तव में स्थायी शांति कायम करने पर सहमत होते हैं तो वे किसी बाहरी को इसका श्रेय क्यों देंगे? यहां भी तो ऐसे लोग हैं जो नोबेल की आकांक्षा रखते हैं। आखिर आकांक्षा रखने का हक सबका है। जब ट्रंप शांत हो जाएंगे तो पूरा परिदृश्य कैसा नजर आएगा? यह वह सवाल है जो हमें वापस उस जगह ले जाता है जहां दोनों देशों को एक साथ रखकर देखा जाता था। गौर कीजिए कि हमारी राजनीतिक बहसों, खासकर भारतीय जनता पार्टी द्वारा छेड़ी जाने वाली राजनीतिक बहसों में पाकिस्तान का उल्लेख कितनी बार आता है। जरूरी नहीं कि ऐसा ऑपरेशन सिंदूर के बाद ही हुआ हो। यह एक कड़वी हकीकत है लेकिन इसे स्वीकार करना होगा कि बीते वर्षों में भारतीय जनता पार्टी की सरकारों ने अपनी घरेलू राजनीति को पाकिस्तान के साथ स्थायी शत्रुता के इर्दगिर्द ही तैयार किया है।
मुझे नहीं पता कि आप इन बातों का कैसा विश्लेषण पसंद करेंगे। परंतु अगर आप प्रधानमंत्री के सभी भाषणों का विश्लेषण करें तो पाएंगे कि पाकिस्तान का जिक्र अगर 100 बार आया हो तो उसकी तुलना में चीन का जिक्र सिर्फ एक बार आया। शायद पाकिस्तान का जिक्र 100 से भी अधिक बार आया होगा। हमसे यह भी कहा जाता है कि असली दीर्घकालिक खतरा चीन है। ऐसे में इस बात को कैसे समझा जाए? पाकिस्तान हमारे लिए मायने नहीं रखता, हम उसे बहुत पीछे छोड़ चुके हैं।
यह मान्यता चार दशक से भी अधिक पुरानी है। जनरल कृष्णास्वामी सुंदरजी ने 1986 में इंडिया टुडे को दिए एक चर्चित साक्षात्कार में कहा था, ‘चीन ही असली खतरा है। पाकिस्तान से तो यूं ही चलते-फिरते निपटा जा सकता है।’ तो आखिर ऐसा कैसे हुआ कि 1986 में जिसे हम चलते-फिरते निपट लेने का विचार रखते थे वह दोबारा केंद्र में आ गया? इसका छोटा सा जवाब है: हमने ही उस धारणा को दोबारा स्थापित होने दिया। मोदी सरकार ने पाकिस्तान को अपनी घरेलू राजनीति का अनिवार्य अंग बनाकर ऐसा किया है। बात एकदम सीधी है। पाकिस्तान आतंकवाद का पर्याय है यानी इस्लामिक आतंकवाद। और इसी वजह से वह हिंदू-मुस्लिम ध्रुवीकरण की राजनीति का भी केंद्र है।
इन तीन दशकों में भारत की व्यापक रणनीतिक योजना मजबूत और समझदारी भरी थी। यानी चीन के साथ हालात को स्थिरता प्रदान करना और अत्यधिक गंभीर उकसावे पर ही जवाब देना। इस बीच भारतीय अर्थव्यवस्था को मजबूत करना ताकि हमारी राष्ट्रीय व्यापक शक्ति यानी सीएनपी बढ़ जाए और हम इसे शीतयुद्ध के बाद के दौर में अपने अनुकूल स्वरूप में पेश कर सकें। इस बीच दुनिया को यह सलाह देते रहना कि भारत और पाकिस्तान को एक पलड़े पर न रखा जाए क्योंकि हम अलग श्रेणी में हैं। क्या हम अब खुद इस बात पर अमल कर रहे हैं?
पिछले दशक के प्रमाण उम्मीद नहीं बंधाते। खासकर 2019 में जब पुलवामा के बाद मोदी सरकार को अपनी सबसे बड़ी चुनावी जीत मिली, तब से पाकिस्तान मोदी और भाजपा की राजनीति के केंद्र में आ गया। हमने यह खुद किया है।
अब यह ऐसी स्थिति में पहुंच गया है जहां पाकिस्तान भी सोच रहा है कि वह हमें जवाब दे सकता है। परंतु अंतत: उसे अधिक नुकसान उठाना पड़ेगा। जैसा कि हमने पाकिस्तान के क्षतिग्रस्त हवाई अड्डों के रूप में देखा। अगर वे तार्किक होते तो वे भारत के साथ स्थायी शत्रुता के जाल में नहीं फंसते। परंतु यह पाकिस्तानी सेना को भी प्रमुखता की गारंटी देता है। देखिए कैसे ऑपरेशन सिंदूर ने आसिम मुनीर को अचानक राष्ट्रीय नायक बना दिया है।
यह बताता है कि पाकिस्तान को अपने साथ बराबरी से पेश करने के क्या खतरे हैं। पाकिस्तान को अपनी राजनीति का केंद्र बनाकर भाजपा ने अपने लिए और भारत के लिए एक अप्रत्याशित दुविधा खड़ी कर ली है। ऐसे में उसके घरेलू राजनीतिक हित भारत की भू-राजनीतिक प्राथमिकताओं से टकराव में हैं।
भारत के रणनीतिकार समझदार हैं और उन्हें समांतर कई युद्धों वाले ट्रंप के इस दौर से निपटने के लिए वक्त चाहिए। हमारी घरेलू राजनीति में बदलाव से उन्हें ताकत मिलेगी। पाकिस्तान के मामले में हमारे राजनयिकों को खतरे को कम करने के लिए अपने कौशल का प्रयोग करना चाहिए क्योंकि केंद्रित सैन्य खर्च से प्रतिरोधक क्षमता विकसित होती है। इस बीच भाजपा की राजनीति यह होनी चाहिए कि वह पाकिस्तान को बराबरी पर रखने की इस नीति से खुद को मुक्त करे। पाकिस्तान से निपटने के तीन सूत्र हैं- उसे कमजोर करो, भयभीत करो और अपने बराबर मत खड़े होने दो।