Bihar Elections: बिहार में इस बार 14 लाख नए मतदाता (18 से 19 वर्ष की आयु के) नई सरकार चुनने में अपनी हिस्सेदारी निभाएंगे। इनमें से अधिकांश कॉलेज में हैं या अभी-अभी पास हुए हैं। राजनीतिक दल भी इस युवा लहर पर दांव लगा रहे हैं, लेकिन इसमें एक कड़ी गायब है यानी छात्र राजनीति से उभरे नेता। नीतीश कुमार, सुशील कुमार मोदी, लालू प्रसाद जैसे राजनीतिक दिग्गज बिहार की पुरानी छात्र राजनीति की ही देन हैं। लेकिन अब युवा पीढ़ी में ऐसा कोई बड़ा नाम सुनाई नहीं दे रहा।
छात्र संघ के सदस्य और जमीनी कार्यकर्ता इसके लिए अनियमित चुनाव व्यवस्था, छात्रों का दूसरे शहरों में पलायन, धन के साथ-साथ अवसरों की कमी जैसे कारणों को जिम्मेदार मानते हैं। कांग्रेस की छात्र शाखा भारतीय राष्ट्रीय छात्र संघ (एनएसयूआई) के बिहार महासचिव शशि कुमार कहते हैं, ‘यहां के छात्र नेताओं का इस्तेमाल बड़े पैमाने पर भीड़ जुटाने के लिए किया जा रहा है।’
साढ़े चार साल से हमें नेता बनने, आउटरीच कार्यक्रम चलाने, भाषण देने और युवाओं से जुड़ने के लिए कहा जा रहा है। टिकट दिए जाने से ठीक पहले हमें पार्टी कार्यकर्ता कहा जाता है, जिनकी निष्ठा अब परखी जाएगी। उन्होंने कहा कि यह प्रवृत्ति सभी छात्र संगठनों में दिख रही है। यहां तक कि जब राजनीतिक दल छात्र नेताओं पर दांव लगाते हैं, तो उनमें से कई ऐसे होते हैं जो पढ़ने के लिए दूसरे शहर चले गए थे और राजनीति में कदम रखने के बाद राज्य में लौट आए हैं।
गया के 29 वर्षीय धनंजय का ही उदाहरण लीजिए। वह 2024 में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) छात्र संघ के अध्यक्ष चुने गए थे। अब वह भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) लिबरेशन के टिकट पर भोरे निर्वाचन क्षेत्र से चुनाव लड़ रहे हैं। वर्ष 2018-19 के जेएनयू छात्र संघ (जेएनयूएसयू) के अध्यक्ष एन साई बालाजी कहते हैं, ‘जेएनयू, दिल्ली विश्वविद्यालय (डीयू) या शायद बनारस हिंदू विश्वविद्यालय (बीएचयू) के विपरीत बिहार के संस्थान एक स्वस्थ राजनीतिक माहौल बनाए रखने में विफल रहे हैं।’ वह कहते हैं कि छात्रों का पलायन एक महत्त्वपूर्ण कारक है।
डूसू की वर्तमान संयुक्त सचिव दीपिका झा और जेएनयूएसयू के पूर्व अध्यक्ष कन्हैया कुमार बिहार के कई अन्य छात्र नेताओं में शामिल हैं, जिन्होंने राज्य के बाहर से अपनी राजनीतिक यात्रा शुरू की। होनहार छात्रों का प्रदेश छोड़कर दूसरी जगहों पर जाने के लिए यहां शिक्षा का गिरता स्तर काफी हद तक जिम्मेदार है। इंडिया डेटा मैप की रिपोर्ट के अनुसार बिहार में माध्यमिक और उच्चतर माध्यमिक स्तर पर स्कूल छोड़ने की दर क्रमशः 19.5 प्रतिशत और 10.3 प्रतिशत है, जो काफी चिंताजनक है।
‘बालाजी कहते हैं, ‘अच्छे शिक्षाविदों और स्वस्थ लोकतांत्रिक माहौल के बिना आप प्रतिभावान लोगों और संभावित नेताओं को अपने साथ नहीं रख पाएंगे।’ इस चुनाव में भी कई उभरते चेहरे हैं, जिन्होंने दुनिया के विभिन्न हिस्सों से शिक्षा प्राप्त की है। दरभंगा सीट से प्लुरल्स पार्टी की संस्थापक पुष्पम प्रिया चौधरी और लालगंज सीट से राष्ट्रीय जनता दल की शिवानी शुक्ला ने ब्रिटेन से अपनी उच्च शिक्षा प्राप्त की है, जबकि संदेश सीट से दीपू सिंह 2017 में डीयू से स्नातक हैं। बिहार की सबसे युवा सांसद शांभवी चौधरी भी डीयू से स्नातक हैं।
बिहार के स्थानीय पार्टी कार्यकर्ताओं का मानना है कि छात्र दुनिया के किसी भी हिस्से में शिक्षा प्राप्त करें, इसमें कोई समस्या नहीं है, लेकिन स्थानीय छात्रसंघ नेताओं के बारे में रूढ़िवादी धारणाएं बनाना अनुचित है। कुमार कहते हैं, ‘बाहर से पढ़कर आए नेताओं का युवाओं के बीच अधिक प्रभाव हो सकता है, लेकिन स्थानीय छात्र नेता संबंधित निर्वाचन क्षेत्रों के मूल मुद्दों और क्षेत्रीय नब्ज को भलीभांति समझते हैं।’ वह कहते हैं, ‘हमें अक्सर कहा जाता है कि अगर आपको अपनी पहुंच पर भरोसा है, तो स्वतंत्र होकर आगे बढ़ें।’
एबीवीपी के पूर्व राष्ट्रीय महासचिव याज्ञवल्क्य शुक्ला कहते हैं कि सोशल मीडिया के बढ़ते प्रभाव के दौर में सुव्यवस्थित जनसंपर्क भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। वह कहते हैं, ‘स्थानीय नेता तो हैं, लेकिन उनके बारे में प्रचार बड़ी समस्या है।’ हालांकि राज्य के युवा राजनीतिक व्यवस्था से ऐसी उम्मीद रखते हैं कि उन्हीं के बीच से नेतृत्व गढ़ा जाए और आगे बढ़ाया जाए।
वह कहते हैं, ‘मैं एबीवीपी से जुड़ा हूं, जो धनन्जय की विचारधारा से बिल्कुल विपरीत है, लेकिन वहां से आने के कारण मैं उनके अभियानों पर नजर रखता हूं।’
विधान सभा चुनाव में सक्रिय कुछ छात्र नेता कहते हैं कि यदि एक छात्र नेता को राष्ट्रीय स्तर पर जिम्मेदारी निभाने का सपना पूरा करना है तो उसे इसके लिए बेहतर प्रशिक्षण की आवश्यकता होती है। शुक्ला कहते हैं, ‘छात्र राजनीति में चुनाव सुरक्षा और बुनियादी ढांचा विकास जैसे अधिक यथार्थवादी मुद्दों पर लड़े जाते हैं, जबकि विधान सभा चुनाव खासकर बिहार में विचारधारा और जाति की लड़ाई होते हैं।’ इसे देखते हुए इसी वर्ष मार्च में ही पटना विश्वविद्यालय छात्र संघ ने अपनी पहली महिला अध्यक्ष चुनकर इतिहास रचा था। इसके अलावा, पहली बार तीन शीर्ष पदों पर महिला उम्मीदवारों ने कब्जा जमाया। हालांकि विधान सभा चुनाव में केवल 9 प्रतिशत उम्मीदवार ही महिलाएं हैं।
पटना विश्वविद्यालय छात्र संघ (पीयूएसयू) के अध्यक्ष और अब मोतिहारी से जदयू उम्मीदवार दिव्यांशु भारद्वाज के अनुसार विश्वविद्यालयों और छात्र संघों द्वारा समय पर चुनाव न कराने से शिक्षण संस्थानों में राजनीतिक संस्कृति प्रभावित हुई है।