वित्त वर्ष 2022-23 के दौरान भारत के निर्यात में करीब 6 फीसदी की वृद्धि देखने को मिली। यह बढ़ोतरी ऐसे समय पर आई है जब वैश्विक स्तर पर वृद्धि को लेकर चिंता जाहिर की जा रही है। इन आंकड़ों में प्रमुख भूमिका पेट्रोलियम उत्पादों की रही है। अगर तेल को निकाल दिया जाए तो गैर तेल निर्यात में पिछले वर्ष की तुलना में मामूली कमी देखने को मिली।
केंद्र सरकार के मुताबिक पेट्रोलियम निर्यात का आंकड़ा 100 अरब डॉलर का रहा जिसमें से 95 अरब डॉलर का निर्यात 2022-23 में किया गया। यह पिछले वर्ष से 40 फीसदी अधिक था। तुलनात्मक रूप से देखा जाए तो 31 मार्च को समाप्त हुए वित्त वर्ष में विनिर्मित स्टील निर्यात में लगभग 50 फीसदी की गिरावट दर्ज की गई।
हालांकि इस असाधारण प्रदर्शन के कारकों में ढांचागत बदलाव की कल्पना नहीं की जा सकती है। हां, इसे 2022 के आरंभ में रूस द्वारा यूक्रेन पर किए गए हमले के कारण बनी विशेष परिस्थितियों का नतीजा अवश्य माना जा सकता है। बाद के महीनों में जीवाश्म ईंधन की कीमतों में इजाफा हुआ और रूस से होने वाले कुछ निर्यात को पश्चिम या संबद्ध राष्ट्रों की रिफाइनरियों से इतर स्थानांतरित करना पड़ा। इससे भारतीय रिफाइनरीज को भी मौका मिला।
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अप्रैल 2023 में भारतीय रिफाइनरी 5.9 करोड़ बैरल कच्चे तेल का आयात कर रही थीं जबकि ठीक एक वर्ष पहले यह आंकड़ा महज 1.2 करोड़ बैरल था। रूस अब भारत को कच्चे तेल का निर्यात करने वाला सबसे बड़ा देश है। भारत के आयात का करीब 40 फीसदी रूस से आता है।
इस रूसी तेल को परिशोधित करके किफायती ढंग से इस्तेमाल किया जा रहा है। वास्तव में भारतीय रिफाइनरी ने कई नए बाजारों में प्रवेश किया है। इसमें ब्राजील और दक्षिण अफ्रीका के बाजार भी शामिल हैं। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि उन्हें कच्चे माल की लागत के क्षेत्र में बढ़त हासिल है।
वास्तव में पेट्रोकेमिकल्स अब यूनाइटेड किंगडम और चीन जैसे देशों को होने वाले भारतीय निर्यात का भी सबसे बड़ा घटक हैं। बहरहाल आयात के सबसे केंद्र रॉटर्डम, एम्सटर्डम तथा नीदरलैंड के अन्य बंदरगाह रहे। ये सभी बंदरगाह पश्चिमी यूरोपीय संघ की अर्थव्यवस्थाओं के लिए प्राथमिक केंद्र की तरह है जहां आयात आता है। यूक्रेन पर रूस के आक्रमण के पहले भारत रोज तकरीबन 1,50,000 बैरल एविएशन टर्बाइन फ्यूल (एटीएफ) और डीजल यूरोप भेजा करता था, अब यह मात्रा बढ़कर 2,00,000 बैरल प्रतिदिन हो चुकी है।
भारत जितने एटीएफ का निर्यात करता है उसका आधा यूरोप में जाता है। भारत के डीजल और पेट्रोल निर्यात का 30 फीसदी यूरोप जाता है। अकेले यूरोपीय संघ को होने वाले एटीएफ निर्यात में 75 फीसदी की बढ़ोतरी दर्ज की गई।
इसे बहुत स्थायी व्यवस्था नहीं माना जा सकता है और इसकी कई वजह हैं। पहली बात, रूसी तेल और उस पर फिलहाल मिल रही रियायत शायद लंबे समय तक न रहे। खासकर यह देखते हुए कि चीन अधोसंरचना निर्माण के जरिये आयात की लागत कम कर सकता है। वह आर्कटिक सागर के रास्ते समुद्री मार्ग से भी ऐसा कर सकता है।
दूसरी बात, यूरोप का राजनीतिक वर्ग जहां फिलहाल रूसी तेल के इस चक्करदार मार्ग से दूरी बनाए हुए हैं क्योंकि यह यूरोपीय संघ में मुद्रास्फीति संबंधी तनाव को कम करता है। यह स्थिति भी शायद हमेशा न रहे। निश्चित रूप से अमेरिका के नीति निर्माता (अमेरिका को भारतीय निर्यात से वैसा लाभ नहीं है जैसा यूरोपीय संघ को है) इस व्यापार को बंद करने वाली व्यवस्था को प्राथमिकता दे सकते हैं।
जानकारी के मुताबिक सरकार भारतीय पेट्रोकेमिकल्स के लिए निर्यात के नए ठिकाने तलाशने पर जोर दे रही है, खासतौर पर सार्वजनिक क्षेत्र के। ऐसे में इस क्षेत्र के वर्तमान प्रदर्शन के आधार पर दीर्घकालिक नीतियां बनाना समझदारी नहीं होगी।