हाल ही में खांसी की जहरीले तत्वों के मिश्रण वाली दवा अपनी तरह की कोई इकलौती घटना नहीं है। इस दवा के चलते देश और विदेश में बच्चों की दिल दहलाने वाली मौतें हुईं जिन्हें टाला जा सकता था। यह भारत के स्वास्थ्य क्षेत्र को प्रभावित करने वाली लगातार और चिंताजनक रूप से पूर्वानुमानित नियामक विफलताओं की श्रृंखला का नवीनतम और सबसे भयावह लक्षण मात्र है। जब हम गहराई से विश्लेषण करते हैं, तो समस्या केवल खराब उत्पाद या दोषी निर्माता में नहीं होती। बल्कि यह उस नियामक प्रणाली की संरचना में गहराई से समाई होती है, जिसका उद्देश्य जनता की सुरक्षा करना है।
समूचे परिदृश्य में व्यवस्थागत दिक्कतों को महसूस किया जा सकता है। कफ सिरप त्रासदी जिसमें केंद्रीय औषधि मानक नियंत्रण संगठन (सीडीएससीओ) और उसके राज्य स्तरीय समकक्ष शामिल होते हैं, वह अन्य अहम क्षेत्रों में भी नजर आती है। हम खाद्य पदार्थों के नियमन के क्षेत्र में भी ऐसी ही गलतियां बार-बार होते देख चुके हैं।
भारतीय खाद्य सुरक्षा और मानक प्राधिकरण (एफएसएसएआई) अक्सर दबाव में नजर आता है। हमने अस्पतालों और चिकित्सा प्रतिष्ठानों की निगरानी में भी ऐसा घटित होते हुए देखा है जहां देखरेख के मसलों की गुणवत्ता पर अक्सर नजर नहीं होती। ये कभी-कभी घटित होने वाली घटनाएं नहीं हैं। वे एक बड़े, अधिक बुनियादी मसले की ओर ध्यान आकर्षित करती हैं। जब हम औषधि, खाद्य और चिकित्सकीय प्रतिष्ठान क्षेत्र पर नजर डालते हैं तो हमारे लिए यह स्वाभाविक और तार्किक है कि हम नियामकीय एजेंसी पर ध्यान केंद्रित करें।
परंतु दुखद हकीकत यह है कि इन तीनों क्षेत्रों के नियामक और स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय की अधिकांश नियामकीय एजेंसियां डिजाइन की बुनियादी खामी से जूझ रही हैं।
सबसे पहले, अधिकांश स्वास्थ्य नियामक मंत्रालय के भीतर प्रशासनिक इकाइयां हैं। ये भारतीय प्रतिभूति एवं विनिमय बोर्ड यानी सेबी और रिजर्व बैंक की तरह स्वायत्त इकाइयां नहीं हैं। इनमें से अधिकांश को मंत्रालय की अनुमति के बिना नियम बनाने का अधिकार नहीं है, वे विशेषज्ञ कर्मियों की भर्ती नहीं कर सकते, उनके पास वित्तीय संसाधनों तक स्वतंत्र पहुंच नहीं होती और वे मंत्रालय से मिलने वाले बजट अनुदानों पर निर्भर रहते हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो, प्रभावी नियमन के लिए आवश्यक विषयगत और संसाधन संबंधी स्वायत्तता इनके पास नहीं है।
इसलिए हमें उस मूल मंत्रालय की गहराई से समीक्षा करनी होगी, जिसका कार्य क्षेत्र व्यापक और अक्सर परस्पर विरोधाभासी होता है, और जिसकी संरचना इस महत्त्वपूर्ण और विशिष्ट नियामक कार्य के लिए उपयुक्त रूप से सुसज्जित नहीं है।
सवाल यह भी है कि स्वास्थ्य के संदर्भ में नियमन इतना महत्त्वपूर्ण क्यों है? स्वास्थ्य के सभी क्षेत्र जिसमें चिकित्सा सेवा, अस्पताल, दवाएं और पैरा मेडिकल सहायता शामिल हैं, ये सभी सूचनागत विसंगति के उदाहरण हैं। इनके उपभोक्ताओं के पास यह जानने का कोई तरीका नहीं है कि क्या उसे वह मिल रहा है जिसकी उसे जरूरत है या फिर उसकी गुणवत्ता या क्षमता कैसी है। ऐसे में स्वास्थ्य मामलों के मंत्रालय में यह क्षमता होनी चाहिए कि वह गहराई से सोचे, समझे और सही नियामकीय ढांचा विकसित करे।
स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय के पास ढेर सारी जिम्मेदारियां हैं। नजर डालें तो पता चलता है कि इस मंत्रालय के कार्य क्षेत्र में बहुत अधिक सांविधिक और गैर सांविधिक संस्थाएं भी आती हैं। इनकी तादाद अच्छी खासी है। उदाहरण के लिए इसमें बड़ी नियामकीय एजेंसियां मसलन सीडीएससीओ, राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग, राष्ट्रीय संबद्ध एवं स्वास्थ्य सेवा व्यवसाय आयोग, भारतीय फार्मेसी परिषद, भारतीय दंत चिकित्सा परिषद और एफएसएसएआई आदि शामिल हैं। इसके अलावा स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय अनेक ‘स्वायत्त एजेंसियों’ की भी निगरानी करता है।
भारतीय संदर्भों में यह विरोधाभासी शब्द है जिसमें प्रमुख शोध एवं शिक्षा संस्थान मसलन अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान, चिकित्सा शोध संस्थान परिषद और राष्ट्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण संस्थान शामिल हैं।
मामले को और जटिल बनाते हुए, मंत्रालय कई विशाल और व्यापक सार्वजनिक स्वास्थ्य योजनाओं मसलन राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन और आयुष्मान भारत से लेकर प्रमुख रोग नियंत्रण कार्यक्रमों तक को लागू करने वाली प्रमुख एजेंसी है।
दिक्कत यही है। मंत्रालय एक साथ तीन अलग-अलग, और अक्सर परस्पर विरोधी भूमिकाएं निभाता है:
इससे ध्यान बंटता है। प्रशासनिक सुविधा के लिए किफायत, विशेषज्ञता और जवाबदेही जैसे जरूरी संगठनात्मक सिद्धांतों का त्याग कर दिया जाता है। नियामकीय काम की प्रकृति ही ऐसी है कि उसे बौद्धिक और वित्तीय स्वायत्तता की आवश्यकता होती है। नियमन के लिए एजेंसियों को सशक्त बनाना होता है ताकि वे कड़े फैसले ले सकें जो अक्सर शक्तिशाली निहित स्वार्थी तत्वों के विरुद्ध होते हैं।
उन्हें राजनीतिक या मूल मंत्रालय के हस्तक्षेप से भी मुक्त रहना होता है। इस स्वायत्तता का ठोस और पूर्व परिभाषित जवाबदेही व्यवस्था के माध्यम से बचाव किया जाना चाहिए। नियामक ही प्राथमिक विचारक, मानक तय करने वाले और प्रवर्तक होते हैं। नियामक के मूल मंत्रालय के पास यह क्षमता होनी चाहिए कि वह विशेषज्ञता, विधिक स्पष्टता और वित्तीय आत्मनिर्भरता उत्पन्न कर सके।
दूसरी ओर संस्थानों और योजनाओं के संचालन के लिए एकदम अलग प्रशासनिक कौशल की आवश्यकता होती है। एक अधिक व्यावहारिक और संचालन-केंद्रित दृष्टिकोण, जो लॉजिस्टिक्स, खरीद, मानव संसाधन प्रबंधन और मात्रात्मक लक्ष्यों को पूरा करने पर केंद्रित होता है। एक प्रशासक जिसे एक तिमाही में राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन (एनएचएम) के तहत लगभग 10,000 करोड़ रुपये की राशि को कुशलतापूर्वक खर्च करने की जिम्मेदारी दी गई हो, वह प्रभावी औषधि निरीक्षण और अभियोजन के लिए आवश्यक जटिल कानूनी विवरणों पर अपना पूरा मानसिक ध्यान केंद्रित नहीं कर सकता।
मौजूदा ढांचा जहां प्रशासनिक व्यवस्था नियामक और विनियमित क्षेत्रों, दोनों की निगरानी करता है, वहां हितों का संस्थागत टकराव उत्पन्न होता है। यह नियामक की आवाज को कमजोर करता है और उसके संसाधनों, कर्मी रखने की क्षमता तथा स्वतंत्रता को सीमित करता है, जिससे वह एक शक्तिशाली और स्वतंत्र सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रहरी के बजाय एक अधीनस्थ कार्यालय बनकर रह जाता है।
इसका नतीजा खराब और मिलावटी दवाओं से लेकर अस्पतालों की कमजोर देखरेख तक सामने आता है। यह सही है कि अधिक निरीक्षकों और बेहतर सतर्कता की जरूरत है लेकिन केवल उससे बात नहीं बनने वाली। देश के स्वास्थ्य मंत्रालय को बुनियादी ढंग से बदलने की सख्त आवश्यकता है।
हमें अब केवल एजेंसी की नाकामियों पर ध्यान देने से आगे बढ़कर मंत्रालय के ढांचागत मसलों को हल करना चाहिए। सरकार को स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय को लेकर एक स्पष्ट संगठनात्मक योजना पर काम करना चाहिए। यह काफी कुछ वैसा होना चाहिए जैसा जसवंत सिंह ने ‘21वीं सदी का वित्त मंत्रालय’ के रूप में किया था। जब तक हम यह स्वीकार नहीं करते कि मंत्रालय अकेले अंपायर, खिलाड़ी और स्टेडियम मालिक सबकी भूमिका नहीं निभा सकता, तब तक देश का जन स्वास्थ्य अगली त्रासदी के जोखिम में रहेगा। ढांचागत सुधार लंबे समय से लंबित हैं। प्रशासनिक जड़ता की कीमत लोगों को अपनी जान के रूप में चुकानी पड़ रही है।
(लेखक आईसीपीपी में मानद सीनियर फेलो और पूर्व अफसरशाह हैं)