एक समाचार की सुर्खियां हैं: ‘शिक्षकों: एआई आपकी नौकरियां ले लेगा!’ एक अन्य सुर्खी सवाल करती है, ‘क्या एआई विश्वविद्यालयों में निरर्थक नौकरियों को खत्म कर देगा?’ तीसरी सुर्खी कहती है, ‘छात्रों ने विश्वविद्यालय की परीक्षा में एआई की मदद से धोखाधड़ी की’ इन दिनों रोज ऐसी खबरें हमें देखने को मिलती हैं। ये खबरें न केवल ऑनलाइन समाचार पत्रों में देखने को मिलीं बल्कि दुनिया के कुछ अत्यंत प्रतिष्ठित शैक्षणिक संस्थानों के जर्नल्स में भी नजर आईं। स्कूल, कॉलेज और उच्च शिक्षा के क्षेत्र में आर्टिफिशल इंटेलिजेंस यानी एआई को लेकर जो कुछ कहा जा रहा है उसे किस तरह समझा जाए?
अगर कुछ देर के लिए इन बातों पर विचार किया जाए तो दरअसल कहा यह जा रहा है कि शिक्षा के क्षेत्र में क्रांतिकारी परिवर्तन आ रहे हैं और एक व्यक्ति के रूप में मेरी चिंता जो दरअसल इस मध्यवर्गीय मान्यता पर आधारित है कि अच्छी शिक्षा व्यवस्था प्रगति और आर्थिक तरक्की का सबसे अहम वाहक है, अगर ऐसा है: क्या एक देश के रूप में हम अपने स्कूलों, कॉलेजों, भारतीय प्रबंधन संस्थानों, भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थानों और चिकित्सा महाविद्यालयों आदि में एआई का सही तरीके से इस्तेमाल कर रहे हैं?
अभी तक यह माना जा रहा था कि हाल के दिनों के अन्य तकनीकी नवाचारों मसलन कंप्यूटर और इंटरनेट की तरह एआई भी मौजूदा शिक्षा व्यवस्था में उपयोगी और सहायक भूमिका निभाएगा। परंतु अब हमारे सामने स्थिति यह है कि शायद एआई की वजह से सीखने और सिखाने की हमारी जांची-परखी तकनीक, स्कूल और कॉलेज तथा विश्वविद्यालयों जैसे संस्थान और परीक्षा आदि की व्यवस्था में बुनियादी बदलाव लाना पड़ सकता है।
मैं एक ऐसा व्यक्ति हूं जिसने दिन के चार-पांच घंटे पाइथन प्रोग्रामिंग में बिताए हैं, अपने मनोरंजन के लिए कई उभरते अलगोरिद्म का इस्तेमाल किया है (मेरे लिए यह वैसा ही है जैसे मेरे कुछ दोस्तों के लिए टीवी या मोबाइल पर क्रिकेट मैच देखना), ऐसे में मेरा निजी मत अब तक यही रहा है कि एआई के बारे में अधिकांश खबरें बढ़ाचढ़ाकर पेश की गई या चौंकाने वाली रही हैं।
मसलन, माइक्रोसॉफ्ट द्वारा ओपनएआई (चैटजीपीटी बनाने वाली) में 14 अरब डॉलर देकर हिस्सेदारी खरीदी गई है। उसकी यह कोशिश शायद गूगल को सर्च या खोज में पछाड़ने की रणनीति का हिस्सा थी। गूगल इस कारोबार से अरबों डॉलर कमाती है। परंतु अब मुझे चिंता हो रही है कि एआई तकनीक में शायद बाजार हिस्सेदारी और राजस्व से अधिक कुछ दांव पर लगा है। खासतौर पर शिक्षा जैसे अहम क्षेत्र में। मैं खुद दिन में कई बार चैटजीपीटी का इस्तेमाल करता हूं और अपनी शंकाओं का निवारण करता हूं। मिसाल के तौर पर मैं उससे पूछता हूं कि स्वस्थ रहने के लिए एक व्यक्ति को दिन में कितने मिनट पैदल चलना चाहिए।
चैटजीपीटी जवाब देता है, ‘अच्छा स्वास्थ्य बरकरार रखने के लिए एक वयस्क व्यक्ति को रोज शाम 30 से 60 मिनट तक तेज पैदल चलना चाहिए। हृदय के स्वास्थ्य, वजन के प्रबंधन और तनाव से राहत के लिए इतनी तेज गति से चलना चाहिए कि दिल की धड़कनें बढ़ें लेकिन आप बातचीत करने के लायक रहें।’
इस बात ने मुझे राहत दी क्योंकि इससे मुझे एहसास हुआ कि मैं अपने चिकित्सक की सलाह पर जो कर रहा हूं वह एकदम सही दिशा में है। अगर मैंने एक सर्च इंजन से यही सवाल किया होता तो उसने मुझे वेबसाइट्स के अनगिनत लिंक प्रदान किए होते, जिन्हें मुझे खोलकर पढ़ना पड़ता।
मुझे लगता है कि चैटजीपीटी और अन्य एआई विकल्पों की ओर जाने की एक प्रमुख वजह यह है कि वे इंसानों की तरह बातचीत करते हैं। इसके अलावा मेरे दिमाग में कई ऐसे सवाल हैं जिनके बारे में मुझे पता नहीं है कि उन्हें किस तरह पूछा जाए। उदाहरण के लिए, ‘कृपया मुझे बताएं कि मुंबई में इतनी सारी ऊंची इमारतें खाली क्यों पड़ी हैं?’
चैटजीपीटी का जवाब है, ‘मुंबई की खाली पड़ी ऊंची इमारतें संपत्ति की बढ़ी हुई कीमतों, नियामकीय देरी, अनबिके मकानों, डेवलपर्स के दिवालिया होने और शहरी चुनौतियों के बीच मध्य वर्ग के खरीदारों की सीमित क्षमता के कारण है।’ ऐसा जवाब इस मुद्दे को लेकर बुनियादी समझ पैदा करने में मदद करता है।
आज पूरी दुनिया में यह चिंता है कि स्कूल या कॉलेज के छात्र चैटजीपीटी या अपने मोबाइल फोन की मदद से परीक्षा के सवालों के जवाब तलाश कर सकते हैं। फिर चाहे निबंध लिखना हो, बहुविकल्पीय प्रश्नों के उत्तर तलाशने हों या कंप्यूटर प्रोग्रामिंग से जुड़ी पहेलियों का जवाब तलाशना हो। इसके परिणामस्वरूप सभी तरह की परीक्षाओं के लिए परीक्षा कक्षों में मोबाइल फोन ले जाने पर रोक लगा दी गई।
फिर चाहे वे सेंट्रल बोर्ड ऑफ सेकंडरी एजुकेशन की परीक्षाएं हों या आईआईएम की प्रवेश परीक्षा। परंतु इन सभी बातों के चलते मुझे आश्चर्य हो रहा है कि क्या स्कूल और कॉलेजों के हमारे शिक्षण और परीक्षण में अधिक बुनियादी बदलावों की आवश्यकता है। मौजूदा व्यवस्था यह है कि छात्र कक्षाओं में रोज कई घंटों तक शांति से बैठे रहते हैं और इसके बाद घर जाकर पढ़ने और लिखने (गृहकार्य) जैसे अकादमिक काम करते हैं।
कई जगह से ऐसे सुझाव आए हैं (कैलिफोर्निया स्थित खान अकादमी के संस्थापक और सीईओ साई खान ने भी अपनी हालिया पुस्तक ब्रेव न्यू वर्ड्स में यही कहा है) कि छात्रों को ‘गृहकार्य’ के रूप में दिया जाने वाला काम स्कूल में ही करने देना चाहिए और रिकॉर्ड किए गए लेक्चर घर में अपनी सुविधा से देखना चाहिए।
जॉर्जिया इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नॉलजी में कंप्यूटर विज्ञान के जानेमाने प्रोफेसर अशोक गोयल ने एआई आधारित आभासी शिक्षण सहायक ‘जिल वॉटसन’ विकसित किया है जो इस प्रकार डिजाइन है कि छात्रों की जिज्ञासाओं को ऑनलाइन हल किया जा सके।
माना जा रहा है कि इस नवाचार ने ऑनलाइन शिक्षा के प्रभाव और दायरे को बहुत बढ़ाने का काम किया है, खासकर जॉर्जिया टेक के कंप्यूटर विज्ञान विभाग के ऑनलाइन मास्टर ऑफ साइंस के अध्ययन में। क्या आज का समय सन 1448 जैसा है जब गुटेनबर्ग प्रेस का अविष्कार किया गया था। उसकी बदौलत किताबों के जरिये ज्ञान और शिक्षा, दोनों सभी लोगों को उपलब्ध हो सके। इससे पहले इंसानों को खुद किताबों की प्रतियां लिखकर तैयार करनी होती थीं।