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बुनियादी ढांचा: विकास और वनीकरण में हो बेहतर संतुलन

कई राज्यों ने प्रतिपूरक वनीकरण योजना का 50 प्रतिशत लक्ष्य भी पूरा नहीं किया। बिहार, दिल्ली, मिजोरम तथा नागालैंड जैसे राज्य तो बिल्कुल फिसड्डी रहे।

Last Updated- December 25, 2024 | 10:52 PM IST
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टाइम्स ऑफ इंडिया के दिल्ली संस्करण में 3 दिसंबर 2024 को छपी एक खबर में कहा गया कि राष्ट्रीय हरित अधिकरण (एनजीटी) ने ग्लोबल फॉरेस्ट वॉच की एक रिपोर्ट का स्वत: संज्ञान लिया है, जिसमें कहा गया था कि भारत में सन 2000 से अब तक लगभग 23 लाख हेक्टेयर वन नष्ट हो गए। यह कुल वन क्षेत्र का 6 प्रतिशत है, जितने में 15 दिल्ली शहर एक साथ समा जाएंगे! हालांकि वनों में चिंताजनक कमी का सबसे बड़ा कारण चौतरफा विकास को माना जाएगा, लेकिन यह भी ध्यान रखना जरूरी है कि भारत में कटने वाले वनों की भरपाई के लिए पौधरोपण की नीतियां लागू हैं। ऐसे में सवाल उठता है कि ये नीतियां कितनी कारगर रही हैं? इसका पता लगाने के लिए इन्फ्राविजन फाउंडेशन ने टेरी के साथ मिलकर पूरे क्षेत्र का अध्ययन किया, जिसमें वनों की भरपाई के लिए प्रतिपूरक पौधरोपण निधि प्रबंधन एवं योजना प्राधिकरण (कैम्पा) की कार्यप्रणाली को भी शामिल किया गया।

वर्ष 1972 के स्टॉकहोम कॉन्फ्रेंस से प्रेरित होकर भारत ने 1976 में 42वां संविधान संशोधन किया, जिसमें वन प्रबंधन को समवर्ती सूची में शामिल किया गया और अनुच्छेद 48(ए) और 51(ए)(जी) के जरिये पर्यावरण संरक्षण को बढ़ावा देने पर जोर दिया गया। वन (संरक्षण) अधिनियम 1980 गैर-वन उद्देश्यों के लिए वन भूमि के उपयोग का विनियमन करता है। शुरुआत में इस कानून में वन कटाई की भरपाई के लिए पौधरोपण का प्रावधान नहीं किया गया था, लेकिन बाद में वन (संरक्षण) नियम 1981 में इसे शामिल किया गया और उसके बाद कई संशोधनों और दिशानिर्देशों के जरिये इसे और मजबूत किया गया है। वन (संरक्षण) नियम 1981 भू-परिवर्तन, प्रतिपूरक पौधरोपण से संबंधित विस्तृत प्रक्रियाओं और धन संग्रह तथा उपयोग के तरीके बताता है। इन नियमों को कई बार अपडेट किया गया है और आखिरी संशोधन 2023 में किया गया था।

प्रतिपूरक पौधरोपण के अनुसार यदि वन भूमि को अन्य उद्देश्यों के लिए इस्तेमाल किया जाता है तो उसके बदले उतनी ही भूमि पर पौधरोपण किया जाता है। इसमें वन भूमि के अलावा दूसरी जमीन राज्य वन विभाग को सौंपी जाती है। प्रतिपूरक वनीकरण का लक्ष्य विकास और पर्यावरण संरक्षण के बीच संतुलन बनाए रखना है, लेकिन उसकी आलोचना इस बात पर होती रही है कि पारिस्थितिकी तंत्र और जैव विविधता को होने वाले नुकसान की भरपाई के मामले में वह कितना कारगर है।

कैम्पा में विभिन्न क्षेत्रों से योगदान आता है, जिससे भारत की विकास प्राथमिकताओं का पता चलता है। बुनियादी ढांचा निर्माण से जुड़ी एजेंसियां इसमें सबसे आगे हैं। खनन और विनिर्माण से लेकर पाइपलाइन एवं नहरों का प्रबंधन करने वाले जल प्राधिकरणों समेत औद्योगिक इकाइयां भी इसमें बढ़-चढ़कर हिस्सा लेती हैं। शहरी विकास एजेंसियां और तेल-गैस कंपनियों जैसी अहम संस्थाएं वन संरक्षण से जुड़ी इस निधि को बढ़ाने में बड़ी भूमिका निभाती हैं। ये एजेंसियां प्रतिपूरक पौधरोपण गतिविधियों को वित्तीय मदद देने के लिए जरूरी हैं किंतु इस प्रक्रिया की तीखी आलोचना हुई है क्योंकि तमाम राज्यों में बैलेंस शीट ठीक से नहीं बताई गई है और वित्तीय जानकारी देने में भी गड़बड़ की गई है। प्रतिपूरक पौधरोपण योजना लागू करने में आने वाली अड़चनें पिछली बार वर्ष 2013 में नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (सीएजी) के ऑडिट में उजागर हुई थीं। प्रबंधन के स्तर पर इसमें गंभीर खामियां मिली थीं।

सीएजी की रिपोर्ट में खुलासा हुआ था कि वर्ष 2006 से 2012 तक वनीकरण के लिए चिह्नित कुल भूमि में से केवल 27 प्रतिशत ही सौंपी गई। इसमें भी केवल 7 प्रतिशत पर ही पौधरोपण किया गया। रिपोर्ट में वित्तीय गड़बड़ियां भी सामने आई थीं जैसे बड़ी मात्रा में निधि और संबंधित खर्चों का कहीं हिसाब ही नहीं मिला। परियोजनाओं की वास्तविक स्थिति की निगरानी के लिए बनाई गई ई-ग्रीन वॉच प्रणाली काम ही नहीं कर रही थी। इसे लागू करने की कमजोर प्रक्रिया के कारण अवैध खनन और अतिक्रमण को बढ़ावा मिला। राज्य कैम्पा दिशादिर्नेश के तहत इस निधि को संभालने के लिए प्रशासनिक संस्था, तदर्थ समिति और कार्यकारी समिति की त्रिस्तरीय व्यवस्था लागू की गई थी।

इन प्रयासों के बावजूद ऑडिट के दौरान कुप्रबंधन का पता चला, जिसकी वजह से 2016 में प्रतिपूरक पौधरोपण निधि (सीएएफ) अधिनियम लागू किया गया और 2018 में इसके कुछ और नियम जोड़े गए। पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय की 2023-24 की वार्षिक रिपोर्ट में प्रतिपूरक पौधरोपण के अधूरे लक्ष्य का उल्लेख कर कैम्पा गतिविधियों पर असंतोष प्रकट किया गया था। प्रतिपूरक पौधरोपण के लिए लक्ष्य तो 56,032 हेक्टेयर का रखा गया था मगर केवल 38,892.87 हेक्टेयर भूमि पर ही वन तैयार किए गए थे। इस तरह 17,140.04 हेक्टेयर की कमी मिली।

प्रतिपूरक पौधरोपण में पारदर्शिता सुनिश्चित करने के लिए शुरू किया गया ई-ग्रीन वॉच पोर्टल अपना मकसद पूरा ही नहीं कर पा रहा है। इसके अलावा बुनियादी ढांचा विकास कंपनियों से कैम्पा को मिले वित्तीय सहयोग का कोई आंकड़ा मिलना भी लगभग असंभव है। पैट्रिक ऑस्करसन और सार्थक शुक्ला जैसे आलोचकों ने 30 सितंबर 2024 को प्रकाशित अपने निबंध ‘मिसिंग ट्रीज, कैंसल्ड राइट्स: डज कंपंसेटरी अफॉरेस्ट्रेशन निगेट फॉरेस्ट राइट्स?’ में बड़ी बारीकी से इस बात का आकलन किया कि ई-ग्रीन वॉच पोर्टल ब्यूरोक्रिटक जाल की तरह लगता है, जहां प्रतिपूरक वनीकरण परियोजनाओं की निगरानी और सत्यापन का प्रयास करते-करते खीझ हो जाती है।

इन्फ्राविजन फाउंडेशन की तरफ से किए अध्ययन में टेरी ने बताया कि कई राज्यों ने प्रतिपूरक वनीकरण योजना का 50 प्रतिशत लक्ष्य भी पूरा नहीं किया। बिहार, दिल्ली, मिजोरम तथा नागालैंड जैसे राज्य तो बिल्कुल फिसड्डी रहे। रिपोर्ट में यह भी पता चला कि केवल 7 राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों – उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, तेलंगाना, ओडिशा, जम्मू-कश्मीर, दिल्ली और हरियाणा में ही वनीकरण के रिकॉर्ड के लिए अलग वेबसाइट हैं।

भूमि का उपयोग बदलने और कैम्पा गतिविधियों के लिए निधि उपयोग जैसे मामलों की पड़ताल से पता चला कि ई-ग्रीन वॉच, परिवेश पोर्टल, एनुअल प्लान ऑफ एक्शन (एपीओ), वार्षिक रिपोर्ट तथा निगरानी एवं मूल्यांकन दस्तावेज आदि के आंकड़े आपस में बिल्कुल मेल नहीं खाते। जमीन उपलब्ध नहीं होना और छोटे टुकड़ों में होना, निधि का खराब तरीके से इस्तेमाल होना और रिकॉर्ड को सहेजकर नहीं रखना जैसी चुनौतियां भी सामने आईं। इसके अलावा डेटा संकलन की कई पहल किए जाने के बाद भी ज्यादातर डेटा पुराना था, इस्तेमाल लायक नहीं था या उपलब्ध ही नहीं था।

कैम्पा को आगे बढ़ाने के लिए पांच सिफारिशें की गई हैं।
पहली, डेटा में पारदर्शिता जरूरी है। राज्य अपनी कैम्पा वेबसाइट नियमित रूप से अपडेट करें, ताकि एपीओ, निगरानी एवं मूल्यांकन रिपोर्ट और व्यय विवरण आदि की नवीनतम जानकारी केवल एक क्लिक पर मिल जाए।
दूसरी, राज्य भूमि वितरण व्यवस्था दुरुस्त करने तथा भूमि बैंक बनाने पर ध्यान दें ताकि प्रतिपूरक वनीकरण के लिए उपयुक्त जमीन आसानी से ढूंढी जा सके।
तीसरी, राज्यों के वन विभागों के लिए क्षमता निर्माण कार्यक्रम आयोजित किए जाएं। इससे परियोजना बनाने, लागू करने और निगरानी करने में आसानी होगी।
चौथी, प्रतिपूरक वनीकरण योजना को सफल बनाने के लिए स्थानीय जैव विविधता एवं जलवायु स्थितियों को जरूर ध्यान में रखा जाए ताकि पौधे शुरुआती चरण में ही नष्ट न हो जाएं। प्रतिपूरक पौधरोरण प्रौद्योगिकी में नवाचार के लिए अनुसंधान एवं विकास को बढ़ावा दिया जाए।
पांचवीं बात, स्थानीय समुदायों को प्रतिपूरक वनीकरण परियोजनाओं में भागीदार बनाया जाए और उसके लाभ साझा करने का तरीका तलाशा जाए। इससे वे इसमें भागीदारी के लिए प्रोत्साहित होंगे और वनों को अपना मानेंगे।

कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि प्रतिपूरक वनीकरण परियोजनाओं की हालत बहुत अच्छी नहीं है। इसमें अधिक पारदर्शिता और सार्वजनिक जवाबदेही के साथ आमूल-चूल परिवर्तन होना चाहिए। उसके बाद ही पारिस्थितक संरक्षण के प्रति उचित संवेदना के साथ भारत की तेज वृद्धि की महत्त्वाकांक्षा पूरी हो सकेगी।

(लेखक बुनियादी ढांचा विशेषज्ञ हैं। वह इन्फ्राविजन के संस्थापक एवं प्रबंध ट्रस्टी भी हैं। शोध के बिंदु टेरी और वृंदा सिंह से प्राप्त हुए)

First Published - December 25, 2024 | 10:52 PM IST

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