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पंजाब में लड़ाई छेड़ने की नहीं है वजह

भारत को कनाडा और सहयोगी देशों द्वारा अंतरराष्ट्रीय पूछताछ पर अपनी प्रतिक्रिया देनी चाहिए

Last Updated- October 01, 2023 | 9:04 PM IST
There is no reason to wage war in Punjab

कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो द्वारा भारत पर हरदीप सिंह निज्जर की हत्या का आरोप लगाए दो सप्ताह बीत चुके हैं। ऐसे में प्रधानमंत्री मोदी की ओर से अगला कदम क्या होना चाहिए? इसे दो हिस्सों में बांट कर देखते हैं।

एक तरीका तो यह है कि मोदी सरकार मौजूदा रुख बरकरार रखे। वहीं दूसरी ओर बेहतर होगा कि वह शांति की घोषणा करते हुए अपने ‘सैनिकों’ को बैरक में वापस बुलाए और लंबे समय से शांत पड़ी आग को भड़काने का जोखिम न उठाए।

पहला रुख है कनाडा और उसके सहयोगियों द्वारा अंतराष्ट्रीय स्तर पर सवाल-जवाब किया जाना। इस मामले में विदेश मंत्री एस जयशंकर के नेतृत्व में राजनयिक बेहतर ढंग से निपट रहे हैं। उन्हें ऐसा करना जारी रखना होगा और इस बारे में भारतीय जनमानस भी लगभग एकमत है। राजनीतिक वर्ग ने भी व्यापक देशहित में एकजुटता का प्रदर्शन किया है।

दूसरे स्तर पर घरेलू प्रतिक्रिया आती है। ज्यादा स्पष्ट बात करें तो पंजाब की बात आती है। इस तरह की प्रतिक्रिया में ज्यादातर कनाडा जा चुके गैंगस्टरों और अलगाववादियों/ ‘आतंकवादियों’ के संपर्कों के यहां छापों और उनकी संपत्ति की जब्ती के रूप में सामने आया है। हमारी शांति स्थापित करने और सैनिकों को वापस बुलाने की मांग पर आपत्तियां उठाई जा सकती हैं। हम तो एक कदम आगे जाकर यह सुझाव भी दे रहे हैं कि सरकार और भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) घरेलू मीडिया खासकर टेलीविजन चैनलों और सोशल मीडिया पर प्रोपगंडा को कम करे।

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भले ही ट्रूडो ने जोश में आकर मोदी सरकार के खिलाफ मोर्चा खोल दिया है लेकिन यह ऐसी कोई वजह नहीं है कि भारत पंजाब में अपने ही लोगों के साथ दुश्मनी का व्यवहार करे। एक तार्किक प्रश्न यह होगा: अगर ये वाकई बुरे लोग हैं जो कि वे हैं तो भारत के उन पर नरमी बरतने से कैसे मदद मिलेगी? यह तर्क आगे कहता है: ट्रूडो ने हमें अवसर दिया है: हम लंबे समय से आश्वस्त से हो गए थे, ऐसे में हमें एक ही बार में मामले को निपटा देना चाहिए। एक प्रतिप्रश्न यह हो सकता है: तो समस्या क्या है?

जून में कनाडा में एक ऐसे व्यक्ति की हत्या हो गई जिस पर आरोप था कि उसने पंजाब में संगठित आतंकी घटनाओं को अंजाम दिया। हम उसके लिए कतई दुखी नहीं हैं। अगर कूटनीतिक मोर्चे पर दिखावा नहीं करना होता तो हम यही कहते कि भला हुआ हमारा पीछा छूटा।

प्रश्न यह होना चाहिए कि अगर यह ट्रूडो के बयान की प्रतिक्रिया में नहीं हो रहा है तो पंजाब में यह सब कार्रवाई उसकी मौत के 15 सप्ताह बाद क्यों की जा रही है? ट्रूडो का आरोप चाहे जितना उकसाने वाला रहा हो लेकिन उसने हमें यह अहसास नहीं कराया है कि पंजाब में शेष रह गई उग्रपंथी सिख राजनीति एक समस्या बनती रही है।

पंजाब में वास्तविक खतरा तब नजर आया था जब वहां के अलगाववाद को भिंडरांवाले जैसा दिखने वाला एक नया कट्‌टर उपदेशक मिला था जिसके पास उसी तरह के अनुयायी भी थे। तब सरकार ने तत्काल कदम उठाया था। वह कुछ रहस्यमयी हालात में दुबई से पंजाब आया था और लोग उसके प्रवचन सुनने के लिए अच्छी खासी तादाद में जुटने भी लगे थे। उसकी जुबान भिंडरांवाले जैसी थी लेकिन एक अंतर भी था। भिंडरांवाले ने कभी ‘खालिस्तान’ शब्द का इस्तेमाल नहीं किया जबकि अमृतपाल सिंह की कोई बात बिना इसके समाप्त नहीं होती।

सरकार ने इस समस्या को बढ़ने दिया और वह तब हरकत में आई जब इस नए ‘मैं भी’ भिंडरांवाले ने एक पुलिस थाने में घुसकर अपने एक समर्थक को छुड़ा लिया था। मैंने भी अपने इस स्तंभ में इस घटना का उल्लेख किया था।

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व्यापक तौर पर और उचित ही यह माना गया था कि सरकारें अमृतपाल की लोकप्रियता देखते हुए उसके खिलाफ कठोर कदम उठाने से बच रही थीं। सरकारें उसे गिरफ्तार करके हिंसा भड़कने और भिंडरांवाले के दौर जैसे हालात नहीं बनने देना चाहती थीं।

आखिरकार इस वर्ष अप्रैल में केंद्र तथा राज्य सरकारों को लगा कि बस अब बहुत हो गया। उन्होंने कुछ हफ्तों के प्रयास के बाद अमृतपाल तथा उसके प्रमुख साथियों को गिरफ्तार कर लिया। वे सभी अब दूरदराज जेल में बंद हैं। अमृतपाल सहित उनमें से कई असम की डिब्रूगढ़ जेल में बंद हैं। उनकी गिरफ्तारी पर कोई खास हिंसा या विरोध प्रदर्शन नहीं हुआ। ऐसा लगा मानो पंजाब के लोग खामोशी से राहत की सांस ले रहे हों। अमृतपाल प्रकरण ने फौरी चिंताएं पैदा कीं लेकिन अंत में वे सब दफन हो गईं।

उसकी गिरफ्तारी पर ज्यादा प्रतिक्रिया न होने से साबित हुआ कि उसकी लोकप्रियता की बात केवल जुबानी चर्चा थी। इससे साबित हुआ कि सिखों को 1983 से 1993 के दशक को लेकर कोई मोह नहीं है। उस दौर में भी सिखों ने ही अलगाववाद और आतंक को पराजित किया था और इस बार भी उसकी वापसी उन्होंने ही रोकी।

केवल यही तथ्य मायने रखता है। कनाडा में कुछ भी हो, ट्रूडो या गुरपतवंत सिंह पन्नू चाहे जो भी कहें, कुछ मायने नहीं रखता। अगर पंजाब में कोई शत्रु है ही नहीं तो अभियान किसके खिलाफ छेड़ा गया है? अगर वे मौजूद हैं तो पहले कदम क्यों नहीं उठाया गया? या फिर समय के साथ उनसे क्यों नहीं निपटा जा सकता है? हड़बड़ी किस बात की है? खालिस्तान के नाम पर दर्जनों प्राइम टाइम बहसें कराने की क्या जल्दी है?

हम उस ब्रांड को दोबारा क्यों खड़ा कर रहे हैं जो समाप्त हो चुका है। जैसा कि हमने गत सप्ताह भी कहा था, पंजाब में खालिस्तान को लेकर कोई भावना नहीं है। ब्रैम्पटन पंजाब में नहीं है। हम उसके बारे में जितनी बात करेंगे, हम एक दफन जिन्न को जिंदा करने का खतरा भी उतना ही बढ़ाते जाएंगे। इससे भी बुरी बात यह है कि आतंकवादी, चरमपंथी और देशद्रोही जैसे जुमलों के इस्तेमाल को सिख बहुत अपमानजनक और भड़काऊ मानेंगे।

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हमें जोखिम को समझने की जरूरत है। नीतियां राजनेताओं द्वारा चलाई जानी चाहिए, न कि पुलिस द्वारा। पुलिस एक राष्ट्रीय राजनीतिक लक्ष्य हासिल करने में मदद कर सकती है लेकिन एक बार अगर आपने एक संवेदनशील पुराने मुद्दे को पुलिस और खुफिया विभााग के हवाले छोड़ दिया तो वे ताकत इस्तेमाल करते हैं। जिनके खिलाफ कार्रवाई होती है वे भी यही करते हैं। यह मानना होगा कि अक्सर बेगुनाह भी पुलिस ज्यादती के शिकार होते हैं। बुरे लोगों के परिजनों को भी निशाना बनाया जाता है। इससे गुस्से और बदले का एक और चक्र शुरू हो सकता है। हम पहले भी ऐसा होते देख चुके हैं। आवेशित होकर पंजाब को उन लोगों और संस्थानों के हवाले करना सही नहीं होगा जो पहले बगावत से जूझ चुके हैं। आज वैसा माहौल नहीं है।

पंजाब के गैंगस्टर, मादक पदार्थ की तस्करी करने वालों का गठजोड़, वसूली, मादक पदार्थों की तस्करी, हथियारों का कारोबार पंजाबी संगीत कलाकारों के साथ गठजोड़, आतंकी हत्याएं आदि जारी रहे हैं। इनसे हमेशा ही संगठित अपराध के रूप में निपटना पड़ा है न कि अलगाववादी आंदोलन के रूप में। ट्रूडो के भड़काने के बाद खतरा बढ़ गया है।

इन कदमों का एक इरादा ट्रूडो और उनके समर्थकों को यह याद दिलाना है कि भारत के लिए पंजाब में समस्या तो है जिससे वह निपटने का प्रयास कर रहा है और उसका एक सिरा कनाडा में है। हम यह नहीं कह रहे हैं कि बुरे लोगों के साथ दयालुता दिखाई जाए। उनसे बस वैसे ही निपटा जाए जैसे सामान्य दिनों में निपटा जाता है। आज की तरह नहीं क्योंकि पंजाब में जमीन पर कुछ भी नया और खतरनाक नहीं हुआ है, न ही ऐसा कुछ होने की संभावना है।

ऐसा कुछ भी नहीं है जिसे ट्रूडो को जताने का प्रयास किया जाए। भारत बहुत बड़ा और अनुभवी देश है और साढ़े तीन करोड़ की आबादी वाला (लगभग पंजाब के बराबर) किसी देश का नेता उसे झटके से कुछ करने को मजबूर नहीं कर सकता। इसलिए हमने यह सलाह देने का साहस किया है कि अपने सैनिकों को बैरक में वापस बुलाइए और युद्ध के लिए तैयार मीडिया में शांति की घोषणा कीजिए।

First Published - October 1, 2023 | 9:04 PM IST

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