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आर्थिक मुश्किलों से जूझ रहे हैं भारत के पड़ोसी देश

हम पीछे मुड़कर देखें तो इस वर्ष भारत ‘वैश्विक गरीब देशों की आवाज’ बनकर उभरा है। यह बात जी20 शिखर बैठक के आर्थिक एजेंडे पर वापस आने में भी परिलक्षित होती है।

Last Updated- September 29, 2023 | 11:35 PM IST
World in partial recession- यूरोप की इकॉनमी

विकास की प्रक्रिया में श्रीलंका, बांग्लादेश और पाकिस्तान की कमजोरी सामने आ चुकी है। इस विषय में विस्तार से जानकारी प्रदान कर रही हैं अमिता बत्रा

यदि हम पीछे मुड़कर देखें तो इस वर्ष भारत ‘वैश्विक गरीब देशों की आवाज’ बनकर उभरा है। यह बात जी20 शिखर बैठक के आर्थिक एजेंडे पर वापस आने में भी परिलक्षित होती है। खासतौर पर समकालीन विकास चिंताओं के मामले में ऐसा हुआ है।

जलवायु परिवर्तन के मुद्दे और बहुपक्षीय विकास बैंकों के सुधारों ने अधिकतम गति प्राप्त की। उतना ही महत्त्वपूर्ण रहा जी20 के साझा फ्रेमवर्क के तहत जांबिया का अपने कर्जदाताओं के साथ ऋण उपचार समझौते पर सफलतापूर्वक पहुंचना। श्रीलंका के ऋण के पुनर्गठन के लिए भी एक समन्वित प्रणाली प्रस्तुत की गई। यह उन तीन दक्षिण एशियाई देशों में से एक है जिनकी अर्थव्यवस्था इस वर्ष मुश्किलों से गुजर रही है। दो अन्य अर्थव्यवस्थाएं हैं बांग्लादेश और पाकिस्तान।

एक ओर जहां इन दक्षिण एशियाई अर्थव्यवस्थाओं के संकट की कुछ साझा तात्कालिक वजहें तलाशी जा सकती हैं, वहीं ये अपनी विकास प्रक्रिया में कुछ बुनियादी आर्थिक कमियां भी दर्शाते हैं।

श्रीलंका का सामना जब महामारी से हुआ तब उसकी आर्थिक स्थिति खराब हो रही थी और उसके पास अधिक राजकोषीय गुंजाइश शेष नहीं थी। उसका विदेशी कर्ज बढ़ा हुआ था और विदेशी मुद्रा भंडार भी बहुत कम था। ऐसा इसलिए हुआ कि बीते वर्षों में उसने आर्थिक मोर्चे पर नीतिगत रूप से गलत कदम उठाए थे।

उदाहरण के लिए आय और मूल्यवर्धित करों में कटौती करके धीमी पड़ती अर्थव्यवस्था को गति देने का प्रयास करना, आयात को प्राथमिकता देना और विदेशी मुद्रा भंडार की मदद से ऋण चुकाना। राजकोषीय नियमों में सुधारों को रोकने तथा केंद्रीय बैंक, विभिन्न संस्थानों की स्वायत्तता को प्रभावित करने से हालात बिगड़े हैं।

इसके परिणामस्वरूप वृहद आर्थिक मुश्किलें बढ़ीं और 2020 के मध्य में अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष की विस्तारित कोष सुविधा (ईएफएफ) के समाप्त होने के बाद वैश्विक पूंजी बाजार तक पहुंच सीमित होने के कारण हालात और कठिन हो गए।

वर्ष 2021 के अंत तक विदेशी मुद्रा भंडार केवल एक महीने के आयात की भरपाई करने लायक था, ऐसे में यूक्रेन युद्ध ने अर्थव्यवस्था को निर्णायक झटका दिया और खाद्य कीमतों और ईंधन कीमतों में इजाफा हुआ। मई 2022 में श्रीलंका औपचारिक तौर पर अपने बाहरी कर्ज के मामले में डिफॉल्ट कर गया।

हालांकि सितंबर 2022 में अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के साथ 48 महीनों के ईएफएफ की व्यवस्था हुई लेकिन इसे मार्च 2023 में ही अंतिम रूप दिया जा सका। इससे ऋण निस्तारण और कर्जदाताओं के बीच समन्वय की जटिलताएं उजागर होती हैं। सार्वजनिक वित्त प्रबंधन की विस्तारित व्यवस्थाओं और घरेलू राजस्व बढ़ाने के मामले में कम प्रगति के साथ ही

अधोसंरचना और निवेश वित्त की आवश्यकता के कारण कम आय वाले कई विकासशील देश अतीत में लेनदारों के एक विस्तारित समूह से ऋण लेने के लिए प्रेरित हुए हैं जबकि पहले वे पेरिस क्लब के आधिकारिक लेनदारों और बहुपक्षीय ऋण प्रदाता एजेंसियों से ही ऋण लिया करते थे।

कम आय वाले विकासशील देशों के दीर्घकालिक सार्वजनिक और सार्वजनिक गारंटी वाले ऋण में निजी लेनदारों की हिस्सेदारी बीते एक दशक में बढ़ी है। कर्ज में बड़ी हिस्सेदारी द्विपक्षीय ऋण की है जिसमें चीन का कर्ज अधिक है। निजी और द्विपक्षीय कर्जदाताओं के साथ कर्ज की शर्तें आधिकारिक कर्जदाताओं के कर्ज की तुलना में पारदर्शी या अनुकूल नहीं भी रहती हैं। परंतु इसके साथ ही लेनदारों का एक बड़ा समूह भी संकट के समय कर्ज के पुनर्गठन की जटिलता को बढ़ाता है।

पाकिस्तान में अलग बात यह है कि बाहरी कर्ज पर उसकी निर्भरता बहुत पुरानी है। तमाम वृहद आर्थिक संकटों के बावजूद उसमें सुधार के उपायों को अपनाने की प्रतिबद्धता भी नहीं है। इस वर्ष के आरंभ में कई दशकों की उच्चतम मुद्रास्फीति दर और बढ़ती ऊर्जा कीमतों तथा विपरीत व्यापार शर्तों के कारण तनावपूर्ण भुगतान संतुलन के कारण पाकिस्तान सॉवरिन ऋण डिफॉल्ट और आर्थिक पतन के कगार पर था।

उदार राजकोषीय नीति अपनाए रखने के कारण आर्थिक हालात और बिगड़ गए। संकट से निपटने के लिए सरकारी व्यय में सख्ती करने और राजस्व जुटाने के अलावा जरूरी आर्थिक सुधारों का क्रियान्वयन भी आवश्यक था। 2019 के अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के कार्यक्रम के अनुसार विनिमय दर और ब्याज दरों में सुधार के बीच पाकिस्तान की नए ऋण के लिए कोष के साथ कठोर बातचीत हुई।

संकट के कई दिनों के बाद पाकिस्तान केवल नौ महीने के लिए आपात ऋण जुटा पाया। अब अगले वर्ष वह ऋण जुटा पाएगा या नहीं यह संभावना इस बात पर निर्भर है कि पाकिस्तान मजबूत वृहद आर्थिक नीतियों और टिकाऊ ऋण पुनर्गठन को अपना पाता है या नहीं।

बांग्लादेश ने अपनी आर्थिक वृद्धि और मानव विकास के साथ दक्षिण एशिया में सफलता की एक नई कहानी लिखी है। महामारी के दौरान वह सफल टीकाकरण और सरकारी मदद के कारण जल्दी पटरी पर लौटने में कामयाब रहा। 2021 के आरंभ में वैश्विक बाजारों में तैयार वस्त्रों की मांग ने भी इसमें उसकी मदद की।

हालांकि यूक्रेन संकट ने उसकी अर्थव्यवस्था को झटका दिया और इसके कारण मुद्रास्फीति का दबाव बना, ऊर्जा संकट आया, राजस्व में कमी, व्यापार घाटे में इजाफा तथा विदेशों से धन के प्रेषण में समस्या पैदा हुई। उसकी कई बड़ी अधोसंरचना विकास योजनाएं विदेशी ऋण से चल रही थीं जिनमें चीन प्रमुख कर्जदाता था। ऐसे में घटते विदेशी मुद्रा भंडार के साथ पुनर्भुगतान की समस्या सामने आई।

हालात की नजाकत और आसन्न संकट को देखते हुए बांग्लादेश की सरकार ने जुलाई 2022 में अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष से तीन वर्ष के ऋण के लिए संपर्क किया। इतना ही नहीं वहां की सरकार ने राजकोषीय अतिरेक को स्वीकार किया और महंगी अधोसंरचना परियोजनाओं को लेकर गति धीमी की है। इसके अलावा वह चीन से इतर स्रोतों से फंडिंग जुटा रहा है।

तीनों अर्थव्यवस्थाओं ने तात्कालिक सुधार कर लिया है लेकिन वृद्धि की संभावनाएं कमजोर ही हैं। खासतौर पर पाकिस्तान और श्रीलंका में जहां अगले वित्त वर्ष तक सीमित सुधार की गुंजाइश है। बांग्लादेश में वृद्धि की गति धीमी रही क्योंकि बाहरी मांग में कमी आई है। मुद्रास्फीति तीनों अर्थव्यवस्थाओं के लिए चिंता का कारण है और घरेलू सार्वजनिक वित्त का प्रबंधन टिकाऊ सुधार के लिए महत्त्वपूर्ण है।

हालांकि दीर्घावधि की संभावनाओं के लिए इन देशों में गहन ढांचागत सुधारों की आवश्यकता है। पाकिस्तान में अलग तरह की दिक्कतें हैं। वहां सरकारी व्यय की दिशा ठीक नहीं है और टिकाऊ विकास की राह भी नहीं विकसित हो पा रही है। बांग्लादेश और श्रीलंका को अपने उत्पादन आधार में विविधता लानी होगी ताकि वे विदेशी मुद्रा के लिए क्रमश: तैयार वस्त्रों और पर्यटन पर विविधता कम कर सकें।

इतना ही नहीं श्रीलंका को उम्रदराज होती जनांकिकी की चुनौती से भी निपटना होगा। यह श्रम शक्ति की वृद्धि और उत्पादकता पर भी असर डाल रही है। वहीं बांग्लादेश के सामने जलवायु परिवर्तन की गंभीर चुनौती मौजूद है।

(ले​खिका जेएनयू के अंतरराष्ट्रीय अध्ययन केंद्र में अर्थशास्त्र की प्रोफेसर हैं। लेख में विचार व्य​क्तिगत हैं)

First Published - September 29, 2023 | 11:24 PM IST

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