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कॉरपोरेट प्रशासन में सुधार की दरकार, विकसित देश बनाने के लिए सरकार को बाजार के अनुकूल होने की जरूरत

सरकार को बाजार के अनुकूल होना चाहिए न कि कारोबारों के। उसे सभी कंपनियों के साथ तटस्थ रिश्ते रखते हुए काम करना चाहिए। बता रहे हैं नितिन देसाई

Last Updated- August 27, 2024 | 9:57 PM IST
Shooting sparrows with cannons?
Illustration: Binay Sinha

आजाद भारत की अर्थव्यवस्था की बात करें तो नीतिगत बदलाव के मोर्चे पर वह दो बड़े चरणों से गुजर चुकी है। पहले की चर्चा इन दिनों ज्यादा नहीं होती और वह है अप्रैल 1951 में योजनागत विकास की शुरुआत, जब पहली पंचवर्षीय योजना शुरू की गई थी। दूसरा जुलाई 1991 में शुरू किया गया आर्थिक उदारीकरण था, जिसकी चर्चा ज्यादा होती है। इन दोनों की बदौलत वृद्धि की प्रक्रिया में तेजी आई।

परंतु दोनों में सरकार की जो भूमिका सोची गई थी, वह काफी अलग है। इन दोनों बदलावों के प्रभाव को अर्थव्यवस्था की वृद्धि, निवेश और व्यापारिक रुझान में देखा जा सकता है। वृद्धि का एक अपेक्षाकृत धीमा चरण 60 के दशक के मध्य से 70 के दशक के अंत तक भी रहा, जब सूखा, नई कृषि वृद्धि नीति और राजनीतिक उथलपुथल से भरा एक दशक सामने था।

1951-52 में उठाए गए कदम के कारण आए बदलाव कुछ कम लग सकते हैं मगर ये बहुत अहम थे क्योंकि आजादी के पहले की एक सदी में 0.5 फीसदी रहने वाली औसत वार्षिक वृद्धि दर इसके कारण नौ गुना बढ़ गई। 1951 से 1965 के बीच आर्थिक नीति में सार्वजनिक क्षेत्र के विकास पर ध्यान दिया गया, खास तौर पर भारी उद्योग में। यद्यपि इस दौरान निजी निवेश भी बढ़ा। निर्यात उत्पादन के जरिये होने वाली वृद्धि संभव नहीं थी क्योंकि वैश्विक व्यापार के मूल्य में वृद्धि 60 के दशक के उत्तरार्द्ध से ही शुरू हुई।

उच्च वृद्धि का चरण 1980 से शुरू हुआ लेकिन नीतिगत क्षेत्र में सार्वजनिक से निजी निवेश की ओर सफर जुलाई 1991 में उदारीकरण के बाद शुरू हुआ। निवेश और विदेशी व्यापार में सरकारी नियंत्रण कम करने के अलावा एक बड़ा बदलाव था बैंकिंग और म्युचुअल फंड में निजी क्षेत्र को प्रवेश देना।

उदारीकरण से पहले के रुख को देखें तो यह वित्तीय उदारीकरण औद्योगिक निवेश को लाइसेंसमुक्त करने की तुलना में ज्यादा बड़ा बदलाव रहा। उदाहरण के लिए हमने गैर सरकारी पब्लिक लिमिटेड कंपनियों द्वारा जारी नई पूंजी में भारी इजाफा देखा और यह 1981-82 में करीब-करीब 600 करोड़ रुपये से बढ़कर 2021-22 में लगभग 1.5 लाख करोड़ रुपये हो गई।

निर्यातोन्मुखी वृद्धि की ओर बदलाव कम दिखता है। 1951 में वैश्विक वस्तु निर्यात में भारत की हिस्सेदरी 1.9 फीसदी थी। पहले परिवर्तनकारी चरण में 1980 तक यह गिरकर 0.4 फीसदी रह गया था। परंतु उसके बाद से ही इसमें स्थिर गति से वृद्धि हुई और 2003 के बाद से आठ वर्षों तक उच्च वृद्धि के दौर के साथ भारत ने वैश्विक विनिर्माण निर्यात में अपनी हिस्सेदारी दोगुनी कर ली है। अब यह 1.8 फीसदी है यानी 1951 के स्तर से कुछ कम। वाणिज्यिक सेवा निर्यात में भारत की वैश्विक हिस्सेदारी 1990 के 0.6 फीसदी से बढ़कर 2023 में 4.3 फीसदी हो गई।

सवाल यह है कि अगर हमें 2047 तक विकसित देश बनना है तो सरकार और कारोबार के रिश्तों में क्या बदलाव लाना होगा? सबसे स्पष्ट बदलाव है सरकार और निजी कारोबारी क्षेत्र के बीच रिश्ते को चुनिंदा कंपनियों को बढ़ावा देने वाली साझेदारी के बजाय ऐसी साझेदारी बनाना, जहां सरकार कारोबार नहीं बाजार के अनुरूप है एवं सभी कंपनियों के साथ उसके संबंध एकदम निरपेक्ष हैं।

यह सांठगांठ और भ्रष्टाचार से बचने में ही कारगर नीति नहीं है बल्कि इसलिए भी सही है क्योंकि राजनेता और अफसरशाह तकनीक, उत्पादों, प्रक्रियाओं, बाजार विकास आदि की उतनी जानकारी नहीं रखते, जितनी कंपनियों के अधिकारियों को होती है। उत्पादन से जुड़े प्रोत्साहन (पीएलआई) की योजना में प्राथमिकता वाली तकनीकों के वास्तविक प्रदर्शन और कड़ी अफसरशाही जांच की आवश्यकता होती है। यह इस बात का उदाहरण है कि किन चीजों में बदलाव की जरूरत है।

वस्तु एवं सेवा कर यानी जीएसटी तथा व्यापार कर नीतियां तय करते समय उत्पादकों के हितों को पूरी तरह दरकिनार करना सरकार को बाजार के अनुकूल निष्पक्ष कारक बनाने की दिशा में अहम कदम होग। अगर पूरी तरह निष्पक्षता कठिन है तो कम से कम यह सुनिश्चित किया जा सकता है कि विशिष्ट उत्पादकों का हित नियम के बजाय अपवाद हो। सबसे अहम नीतिगत पहल यह होनी चाहिए कि प्रतिस्पर्धा आयोग की क्षमता और उसका प्रभाव बढ़ाया जा सके।

प्रभावी प्रतिस्पर्धा नीति का महत्त्व निजी कारोबारी क्षेत्र के प्रबंधन पर उसके संभावित प्रभाव में निहित है क्योंकि इस क्षेत्र में अब भी परिवारों का दबदबा है। मगर स्वामित्व मसला ही नहीं है। मसला तो पेशेवर प्रबंधन है। परिवार द्वारा संभाले जा रहे उद्यम से पेशेवर प्रबंधन वाले उद्यम तक सफर आसान नहीं है। इस दौरान प्रतिस्पर्धा होती है और संस्थागत अंशधारकों द्वारा अंशधारकों के हितों को मजबूती से सामने रखा जाता है। कंपनियों को भी सरकार का पसंदीदा साझेदार बनने पर जोर देने के बजाय देसी-विदेशी साझेदारों की तुलना में अपने उत्पाद और प्रक्रियाओं पर ध्यान देना चाहिए।

भारत को विकसित या उच्च आय वाला विकासशील देश बनाने के लक्ष्य को हासिल करने के लिए निजी क्षेत्र के निवेश में इजाफा जरूरी है। परंतु देश में सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियां भी काफी हैं। सरकार सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों को मोटे तौर पर दायित्व की तरह देखती है और उनका विनिवेश करके निजीकरण करना चाहती है। इन कंपनियों में से कई तकनीकी विकास में अग्रणी रही हैं और उन्होंने तकनीकी रूप से दक्ष युवाओं का वर्ग तैयार किया है जिन्हें निजी क्षेत्र ने हथिया लिया। सरकार को सरकारी उपक्रमों की संभावनाओं पर सकारात्मक रुख रखना चाहिए।

कारोबारी प्रशासन की जो नीति कंपनियों की स्वतंत्रता बढ़ाती हो उसे राजनीतिक रूप से आकर्षक नहीं माना जाएगा क्योंकि उसे बड़े पैमाने पर समर्थन नहीं मिलेगा। किंतु इसके जरिये वृद्धि और रोजगार सृजन में होने वाले इजाफे का स्वागत किया जाएगा। बहरहाल ऐसी सरकार को आसानी से राजनीतिक स्वीकार्यता मिलेगी जो गैर कॉरपोरेट निजी क्षेत्र की मदद करती नजर आती हो, आय में भारी असमानता कम करने वाली हो और क्षेत्रीय असमानता एवं जाति संबंधित चिंताओं को दूर करने के लिए प्रयासरत हो। मुक्त बाजार वाली पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में एक लोकतांत्रिक सरकार के लिए यह सही है।

ऐसे में वह संदेश भी समझने की आवश्यकता है जो पहली पंचवर्षीय योजना की मुख्य रणनीति वाले अध्याय में लिखा गया था- किसी भी समय किसी देश की आर्थिक स्थिति व्यापक सामाजिक माहौल से बनती है। इसके साथ ही आर्थिक योजना निर्माण को एक व्यापक प्रक्रिया के हिस्से के रूप में देखा जाना चाहिए जिसका लक्ष्य न केवल संसाधनों का विकास है बल्कि मानव क्षमताओं का विकास और लोगों की जरूरतों और आकांक्षाओं को पूरा करने के लिए संस्थागत ढांचा बनाना भी है।

First Published - August 27, 2024 | 9:46 PM IST

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