देशों की एक दूसरे पर निर्भरता समाप्त होती प्रतीत हो रही है। यह दुखद शुरुआत तब हुई है जब उन्हें जलवायु परिवर्तन के संक ट का सामना करने के लिए आपस में अधिक सहयोग की जरूरत है।
करीब 30 वर्ष पहले देशों ने एक दूसरे का सहयोग लेकर प्रगति की राह पर आगे बढऩे का संकल्प लिया था। विभिन्न देशों ने मुक्त व्यापार समझौते पर हस्ताक्षर किए और आपस में वाणिज्य-व्यवसाय करने के लिए नियम तय किए। कई मसलों पर सहमति बनी। इनमें जलवायु परिवर्तन से लेकर जैव विविधता और अन्य मसले शामिल थे। देशों ने आपसी सहयोग से चलने वाले एक दूसरे पर निर्भर दुनिया की रूपरेखा तय करने के लिए कदम बढ़ाया था। इसके दो मकसद थे। एक था पश्चिम जगत के आर्थिक प्रारूप की मदद से पिछड़े देशों में आर्थिक विकास को बढ़ावा देना और दूसरा था इससे पारिस्थितिकीतंत्र पर होने वाले असर का प्रबंधन करना। ऐसी मान्यता थी कि इससे सभी देशों की भागीदारी बढ़ेगी और लोग एक दूसरे से जुड़ते चले जाएंगे। लोग इससे आर्थिक रूप से संपन्न होंगे और बर्बरता छोड़कर मानवाधिकारों और स्वतंत्रता के सिद्धांतों पर चलना शुरू करेंगे। 1990 में सोवियत संघ के विभाजन और इसके बाद 2001 में स्वेच्छाचारी साम्यवादी चीन भी व्यापार परियोजना के माध्यम से दुनिया के लोकतांत्रितक देशों के समूह में शामिल हो गया। सभी देशों के एक साथ आने से उपभोग में तेजी आई जो आर्थिक वृद्धि में तेजी का कारण बनी।
अब यह व्यापक सोच का ताना-बाना पूरी तरह बिखर गया है। यूक्रेन पर रूस का हमला ही इसकी एकमात्र वजह नहीं है बल्कि कई देश ऊर्जा से लेकर अनाज की आपूर्ति में व्यवधान को लेकर चिंतित और सुरक्षित महसूस कर रहे हैं। वे आपसी सहयोग एवं निर्भरता के सिद्धांतों का परित्याग कर अपने आप में सीमित होने की राह पर चल निकले हैं। उदाहरण के लिए अर्जेंटीना अपनी जरूरत से 10 गुना अधिक खाद्यान्न का उत्पादन करता है मगर अब उसने गोमांस, अनाज एवं सोया के निर्यात पर भारी शुल्क लगा दिया है। दुनिया में पाम तेल के सबसे बड़े उत्पादक देश इंडोनेशिया ने इसका निर्यात पूरी तरह रोक कर दुनिया को मुश्किल में डाल दिया है। खाद्य सुरक्षा का विषय अचानक खाद्य संप्रभुता में तब्दील हो गया है।
ईंधन के दाम में भी बेतहाशा वृद्धि हुई है। रूस से आयात होने वाले तेल एवं गैस पर प्रतिबंध की भी इसमें आंशिक भूमिका रही है। ईंधन महंगा होते देख दुनिया पवन एवं सौर ऊर्जा की तरफ बढ़ रही है। मगर हम इस सच्चाई से भी मुंह नहीं मोड़ सकते कि पेट्रोलियम से बिजली आधरित ऊर्जा के लिए आवश्यक ज्यादातर दुर्लभ मृदा खनिज चीन और रूस में हैं। ये दोनों देश गैर-लोकतांत्रिक देशों के समूह में गिने जाते हैं। हम यह भी जानते हैं कि बढ़ती बेरोजगारी के कारण कई देश घरेलू स्तर पर विनिर्माण कार्य बढ़ाने पर अधिक ध्यान दे रहे हैं। कई देश अपनी सीमाएं बंद कर रहे हैं और वैश्विक व्यापार से दूरी बरत रहे हैं। इससे भी अधिक चिंताजनक बात यह है कि दुनिया दो ध्रुवों-नेक एवं विनाशकारी सोच वाले-में बंटती जा रही है। यह बिखराव ऐसे समय में हो रहा है जब बढ़ते वैश्विक तापमान के संकट से निपटने के लिए दुनिया को एकजुट होकर सहयोग करने की जरूरत है। हमें पिछले तीन दशकों में की गईं गलतियों को नहीं दोहराना चाहिए।
हमें दुनिया में बदलती परिस्थितियों का जायजा लेना चाहिए ताकि हम बेहतर प्रदर्शन कर पाएं। पहली समस्या स्वयं वैश्वीकरण परियोजना या वैश्वीकरण की मुहिम से जुड़ी है। वैश्वीकरण का उद्देश्य दुनिया में संपन्नता को बढ़ावा देना ही नहीं था बल्कि सस्ती वस्तुओं एवं श्रम की मदद से वाणिज्य-व्यापार बढ़ाना भी एक प्रमुख लक्ष्य था। मुक्त व्यापार की वकालत करने वाले अर्थशास्त्री हमें यह बताते रहते हैं कि जिन देशों में कृषि योग्य भूमि की कमी है वहां गेहूं एवं चावल उगाना कितना मुश्किल है। ऐसे लोग हमें यह भी समझाते हैं कि उन जगहों पर विनिर्माण करना बेहतर रहता है जहां श्रम सस्ता है और देश पर्यावरण सुरक्षा की कीमत अदा करने से भी बच सकते हैं। इस ‘सस्ते श्रम’ का यह भी मतलब है कि ऐसी वस्तुओं की भरमार है जो उपभोग की हमारी ललक शांत करते हैं। इसमें कोई संदेह नहीं कि इस आर्थिक सोच ने कुछ देशों को काफी धनवान बना दिया है। इस आर्थिक सोच की वजह से सभी देश अनुकूल बाजारों की तलाश में जुट गए हैं। उन्हें इस बात की कोई परवाह नहीं कि इन बाजारों में श्रम एवं पर्यावरण को कितना नुकसान पहुंच रहा है। दुनिया इस समय जलवायु परिवर्तन के संकट के मुहाने पर पहुंच चुकी है। इसकी वजह यह है कि दुनिया ने वास्तव में कभी कार्बन उत्सर्जन कम नहीं किया बल्कि उत्सर्जन उन देशों तक भी पहुंचा दिया जहां विनिर्माण गतिविधियां बढ़ गई हैं।
दूसरी और एक भीषण गलती यह हुई है कि हमने सोशल मीडिया के उदय को लोकतंत्र के विकास से जोड़ दिया है। सरकार एवं लोकतंत्र से लोगों का ध्यान हटकर सोशल मीडिया पर होने वाली टीका टिप्पणी पर चला गया है। सोशल मीडिया की ताकत का उदय 2010 में अरब जगत की क्रांति से हुआ।
सोशल मीडिया की मदद से अरब देशों में तानाशाह एवं निरंकुश शासकों का अंत हो गया। दुनिया को सोशल मीडिया की ताकत का अंदाजा लग चुका था। हमें लगा कि लोकतंत्र को सोशल मीडिया के रूप में एक और अधिकार मिल चुका है और लोग पहले से अधिक मुखर होकर सीधे अपनी बात कह पा रहे हैं जिससे नए बदलाव आ रहे हैं। इन दिनों लोकतंत्र का नया हथियार सोशल मीडिया पेचीदा एवं दागदार छवि वाला बन गया है। इसके माध्यम से घृणा एवं धार्मिक उन्माद फैलाए जा रहे हैं। यह इसलिए भी हो रहा है कि हमने बिना गंभीरता से विचार किए यह मान लिया कि बाजार सरकार बदल सकते हैं और सोशल मीडिया लोकतंत्र का ही दूसरा रूप है। दुनिया इस वक्त बड़े बदलाव से गुजर रही है जो हमें साझा भविष्य की राह पर कतई नहीं ले जा रहे हैं। हमें इस पर लगातार चर्चा करनी चाहिए।
