‘राइट टू डिसकनेक्ट बिल, 2025’ विधेयक के लोक सभा में पेश किए जाने के साथ काम और जीवन के बीच संतुलन पर चली आ रही बहस और तेज हो गई है। लोक सभा सांसद सुप्रिया सुले द्वारा पेश यह विधेयक निजी कंपनियों के लिए है। इसमें उन नियोक्ताओं पर जुर्माना लगाने का प्रस्ताव है, जो कर्मचारियों से तयशुदा घंटों से अधिक काम लेने का दबाव डालते हैं।
चूंकि यह निजी विधेयक है, इसलिए इसके सदन में पारित होने की संभावना बहुत कम है। लेकिन इसने काम के घंटों, कर्मचारियों के शोषण जैसे मुद्दों पर नए सिरे से प्रकाश डाला है और बहस को नया आयाम दिया है। यह बिल भारत के नए श्रम कानूनों के लागू होने के तुरंत बाद पेश किया गया है। इन कानूनों के तहत गिग वर्कर्स, एमएसएमई कर्मचारी और न्यूनतम वेतन पाने वाले लोगों समेत सभी श्रेणियों के कामगारों के लिए सप्ताह में 48 घंटे कार्य करने का प्रावधान किया गया है।
आईएलओ के आंकड़ों के अनुसार 2024 में भारत सबसे अधिक काम करने वाली प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं में से एक है, जहां औसतन प्रति सप्ताह 45.7 घंटे काम होता है, जो चीन के 46.1 घंटे से थोड़ा ही कम है। लेकिन, यह जर्मनी, फ्रांस और ब्रिटेन जैसे देशों से बहुत अधिक है, जहां साप्ताहिक घंटे 30 के आसपास हैं।
इंडीड-सेंससवाइड के 500 कर्मचारियों, नियोक्ताओं और नौकरी चाहने वालों के सर्वेक्षण से पता चलता है कि लोग अधिक स्पष्टता चाहते हैं। कुल 79 प्रतिशत लोग ‘राइट टू डिसकनेक्ट’ नीति को सकारात्मक मानते हैं। फिर भी 88 प्रतिशत लोगों ने बताया कि उन्हें तय घंटों के बाद भी काम करने का दबाव डाला जाता है। तय घंटों के बाद काम करने के लिए अब हर कोई राजी नहीं होता। इस प्रवृत्ति से पेशेवरों में नौकरी छोड़ने की इच्छा बढ़ती है।