नरेंद्र मोदी सरकार ने अपने तीसरे कार्यकाल के आरंभ में ही देश का फौलादी ढांचा कहलाने वाली अफसरशाही के बारे में दो निर्णय लिए। पहला निर्णय विपक्ष के विरोध के कारण हड़बड़ी में वापस ले लिया गया और दूसरे का खास विरोध ही नहीं हुआ।
पहला निर्णय था अफसरशाही में लैटरल एंट्री यानी सीधी भर्ती का फैसला, जिसके तहत निजी क्षेत्र से 45 लोगों को संयुक्त सचिव, निदेशक, उप सचिव स्तर के सरकारी पदों पर सीधे नियुक्त किया जाना था। दूसरा है केंद्र सरकार द्वारा यूनिफाइड पेंशन स्कीम (यूपीएस) को मंजूरी दिया जाना। इसे राष्ट्रीय पेंशन प्रणाली (एनपीएस) के विकल्प के रूप में लाया गया है तथा कुछ अन्य चीजों के अलावा यह नौकरी के अंतिम 12 महीनों के दौरान मिलने वाले औसत मूल वेतन के 50 प्रतिशत के बराबर पेंशन की गारंटी देती है।
लैटरल एंट्री योजना के तहत 45 पदों पर भर्ती के आवेदन 17 अगस्त को आमंत्रित किए गए थे, लेकिन दो दिन बाद इसे रद्द कर दिया गया क्योंकि सरकार के भीतर और बाहर दोनों जगह इसका विरोध हो रहा था। संभव है कि सरकार बाद में आरक्षण के प्रावधानों को शामिल करते हुए और राजनीतिक चिंताओं को दूर कर इसे पुन: जारी करे। परंतु यह तय नहीं है कि ऐसा कब होगा।
इसके उलट यूपीएस पर लिए गए निर्णय का कांग्रेस अध्यक्ष और अन्य वरिष्ठ पार्टी नेताओं ने स्वागत किया। मंत्रिमंडल की मंजूरी के तत्काल बाद मोदी ने केंद्र सरकार के कर्मचारियों की संयुक्त परामर्श मशीनरी के प्रतिनिधियों से मुलाकात की। उनके नेता ने यूपीएस और सुनिश्चित पेंशन के निर्णय का स्वागत किया। अभी इस संशोधित पेंशन योजना को श्रम संगठनों का बिना शर्त समर्थन नहीं मिला है लेकिन लगता नहीं अप्रैल 2025 में इसकी शुरुआत के समय यह कोई बाधा बनेगा।
किंतु सवाल है कि देश की राजनीतिक व्यवस्था ने मोदी सरकार के इन दो निर्णयों पर एकदम विपरीत प्रतिक्रिया क्यों दी? पहली नजर में लगता है कि देश की राजनीतिक अर्थव्यवस्था आर्थिक सुधारों के तीन दशक बाद भी नहीं बदली है। कोई निर्णय किया भी लाभप्रद क्यों न हो अगर वह समाज के प्रभावी वर्ग के हितों के खिलाफ जाता है तो उसे लागू करने में दिक्कत आती है। 45 पेशेवरों को सरकारी सेवा में लाने के फैसले को विपक्षी दलों और मोदी सरकार के गठबंधन में शामिल कुछ दलों ने वंचित वर्गों के लिए रोजगार में आरक्षण के विचार को क्षति पहुंचाने वाला माना।
आश्चर्य नही कि इस विरोध के कारण ही सरकार को लैटरल एंट्री की अधिसूचना वापस लेनी पड़ी। यह आर्थिक नीति संबंधी पुनर्विचार के बजाय राजनीतिक रूप से पीछे हटने जैसा था। यह मोदी सरकार की विफलता है कि वह गठबंधन साझेदारों के बीच भी लैटरल एंट्री को लेकर आम सहमति नहीं बना सकी, विपक्षी दलों को तो छोड़ ही दिया जाए।
अधिसूचना संघ लोक सेवा आयोग (यूपीएससी) ने जारी की थी और कहा था कि निजी क्षेत्र के 45 लोगों को सेवाओं में शामिल किया जाएगा। अतीत में भी कई समितियों ने इसकी सिफारिश की थी और पिछली सरकारों ने भी सरकारी नौकरियों में निजी क्षेत्र के लोगों को तैनाती देने के लिए इसका इस्तेमाल किया था।
परंतु पिछले मौकों और इस अवसर में एक बुनियादी अंतर था। अतीत में मसलन 1950 के दशक में औद्योगिक प्रबंधन पूल या बाद के दिनों में सरकारी क्षेत्र के प्रबंधकों या वरिष्ठ अर्थशास्त्रियों को सरकारी नौकरी में रखते समय अक्सर सचिव स्तर पर नियुक्तियां की गई थीं। कुछ ही नियुक्तियां थीं जो उप सचिव, निदेशक या संयुक्त सचिव स्तर पर हुई थीं। यही वजह है कि तब सरकारी नौकरियों में लैटरल एंट्री का इस प्रकार विरोध नहीं हुआ।
इससे भी अहम यह है कि अतीत में ऐसी भर्तियां छोटी तादाद में हुईं। परंतु गत सप्ताह मोदी सरकार ने एक साथ निजी क्षेत्र के 45 पेशेवरों की नियुक्ति का बड़ा निर्णय लिया। यह संख्या फौलादी ढांचे यानी भारतीय प्रशासनिक सेवा में हर साल शामिल होने वाले अधिकारियों की करीब एक चौथाई थी। आश्चर्य नहीं कि यूपीएससी की अधिसूचना ने अफसरशाहों में चिंता पैदा कर दी। उन्हें डर था कि उनकी पदोन्नति में बाधा आ जाएगी। ऐसी घोषणा करने के पहले अगर उन्हें भरोसे में लिया गया होता तो शायद ऐसी स्थिति नहीं बनती और सरकारी व्यवस्था में लैटरल एंट्री को स्थापित किया जा सकता था। देश की राजनीतिक अर्थव्यवस्था को भारी आर्थिक संकट के बगैर बड़े सुधारों के लिए अभी तैयार होना है।
इसकी तुलना में यूपीएस का प्रस्ताव कुछ चिंताओं के बाद भी सहजता से आगे बढ़ा। इन चिंताओं से आगे की बातचीत और मशविरे में निपटा जा सकता है। प्रधानमंत्री ने यूपीएस की घोषणा के तत्काल बाद केंद्र सरकार के कर्मचारियों की संयुक्त परामर्श मशीनरी के प्रतिनिधियों से मुलाकात की, इससे भी सरकारी कर्मचारियों में होने वाले असंतोष में कमी आई होगी। यूपीएस निश्चित तौर पर एनपीएस से बेहतर नहीं है क्योंकि उसमें राजकोष का ध्यान रखते हुए पेंशन नीति के लिए अंशदान किया जा रहा था।
उसके उलट यूपीएस निश्चित अंशदान और निश्चित लाभ दोनों के सिद्धांतों पर आधारित है। अब सरकार पहले के 14 फीसदी के बजाय 18.5 फीसदी अंशदान करेगी जबकि कर्मचारी का अंशदान 10 फीसदी बना रहेगा। किंतु यह कर्मचारी की नौकरी के आखिरी साल के आसार वेतन की 50 फीसदी तक पेंशन की गारंटी भी देती है।
राजकोषीय दृष्टि से देखें तो यूपीएस के कारण राजकोष पर अतिरिक्त बोझ आता है, लेकिन यह पुरानी पेंशन योजना और दोनों पक्षों से किसी अंशदान के बिना सुनिश्चित पेंशन देने से बेहतर है। एक बड़ा लाभ वह विसंगति दूर होना है, जो छठे केंद्रीय वेतन आयोग द्वारा पेंशन के लिए तय पूर्ण सेवा अवधि को 33 वर्ष से घटाकर 20 वर्ष करने के कारण आई थी। यूपीएस में इसके लिए 25 वर्ष की अवधि तय की गई है। यह बदलाव कर्मचारियों से चर्चा के बाद किया गया है।
2024-25 के अपने बजट भाषण में पिछले महीने वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने एनपीएस पर सरकार की प्रगति का जिक्र किया था। उन्होंने खुशी जताई थी कि केंद्र सरकार के कर्मचारियों की संयुक्त परामर्श मशीनरी ने इस पर सकारात्मक रुख अपनाया है। उन्होंने उम्मीद जताई थी कि आम नागरिकों के संरक्षण के लिए राजकोष का ध्यान रखते हुए सभी प्रासंगिक मुद्दों को हल कर लिया जाएगा।
अब ऐसा लगता है कि संशोधित पेंशन योजना को सरकारी कर्मियों द्वारा स्वीकारे जाने की पहली बाधा दूर हो गई है। इससे ज्यादा बड़ी दिक्कत यह सुनिश्चित करना होगी कि यूपीएस में राजकोष का ध्यान रखा जाए। यह चुनौती हो सकती है क्योंकि सरकार के अंशदान को बढ़ाने या पूरी पेंशन पाने की पात्रता अवधि को कम करने की मांग सामने आएगी।