हमारे राजनीतिक रणनीतिक इतिहास की एक अहम घटना अपेक्षाकृत कम बहस के साथ गुजर गई। यह घटना थी भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) द्वारा अमेरिकी डीप स्टेट पर ही नहीं बल्कि अमेरिकी विदेश विभाग पर भी हमला। जब भाजपा के आधिकारिक एक्स हैंडल ने 16 भागों में बंटे एक संदेश के जरिये अमेरिकी डीप स्टेट पर हमला किया और कहा कि वह भारत और मोदी सरकार के खिलाफ जंग छेड़ रहा है। ऐसे हमले पर आपकी सामान्य प्रतिक्रिया यह होती कि ठीक है अब तो ट्रंप नए राष्ट्रपति बन गए हैं। वह इस शत्रु पर हमलावर हैं तो भाजपा भी इसमें शामिल हो गई है और वह विजेता का साथ देती हुई नजर आना चाहती है। परंतु इन 16 पोस्ट में से 13वीं पोस्ट डीप स्टेट से परे जाकर अमेरिकी विदेश विभाग पर आरोप लगाती है कि वह इस षड्यंत्रकारी नेटवर्क का नेतृत्व कर रहा है।
इसकी अहम पंक्तियों में कहा गया है, ‘इस एजेंडा के पीछे हमेशा अमेरिकी विदेश विभाग रहा है। डीप स्टेट का स्पष्ट लक्ष्य रहा है प्रधानमंत्री मोदी को निशाना बनाकर भारत को अस्थिर करना। फ्रांस के खोजी मीडिया समूह मीडियापार्ट ने बताया कि ओसीसीआरपी की फंडिंग अमेरिकी विदेश विभााग के यूएसएड से होती है। बल्कि ओसीसीआरपी की 50 फीसदी फंडिंग अमेरिकी विदेश विभाग से होती है।’ पेगासस विवाद का विशेष उल्लेख किया गया, अदाणी समूह को लेकर खुलासों की बात हुई और जॉर्ज सोरोस जैसे अन्य ‘डीप स्टेट’ फिगर्स का भी उल्लेख किया गया। यहां अहम और नई बात थी भाजपा द्वारा अमेरिकी विदेश विभाग पर सीधा हमला। मीडियापार्ट फ्रांस का धुर वामपंथी मंच है जिसने राफेल सौदे की जांच की थी और कांग्रेस तथा मोदी के आलोचकों को उन पर हमले करने का अवसर दिया। अब तक भाजपा के लिए यह फ्रांस के वामपंथी डीप स्टेट का षड्यंत्र था ताकि भारत और मोदी सरकार को कमजोर किया जा सके। अब वह एक विश्वसनीय सहयोगी है। राजनीति में विरोधाभास खुदबखुद खत्म नहीं होते।
अपने नवीनतम अवतार में बेताल मीडियापार्ट की कहानी अमेरिकी प्रतिष्ठान के लिए बहुत अधिक नुकसानदेह थी। उसने खुलासा किया कि अमेरिकी विदेश विभाग दुनिया भर में खोजी पत्रकारिता को फंड करता है लेकिन वह अहम नियुक्तियों और मुद्दों पर वीटो शक्ति भी रखता है। अगर किसी राजनीतिक दल को लगता है कि अमेरिकी सरकार द्वारा फंड की गई गतिविधियों के कारण उसकी सरकार को नुकसान पहुंच रहा है तो उसे सवाल उठाने का पूरा अधिकार है। परंतु दिक्कतें कहीं और आरंभ हुईं। यह पहली बार नहीं है जब भारत के सत्ताधारी दल ने विदेशी ताकतों पर हमला किया या कहें अमेरिका पर हमला किया। इंदिरा गांधी के दौर में कांग्रेस ऐसा अक्सर करती थी।
वर्ष1970 के दशक के आरंभ में इंदिरा गांधी जब विपक्ष के दबाव में थीं तब वह और उनकी पार्टी अक्सर विरोधियों पर सीआईए एजेंट होने का आरोप लगाते थे। उस समय राज्य सभा के सदस्य पीलू मोदी जो स्वतंत्र पार्टी के संस्थापक भी थे, वह एक दिन सदन में एक बैज पहनकर आए जिस पर लिखा था- ‘मैं सीआईए एजेंट हूं।’ बाद में राजीव गांधी और यहां तक कि पी.वी. नरसिंह राव ने भी दबाव में आने पर बार-बार अमेरिका पर हमला किया। राजीव ने तो यहां तक कहा था कि ‘नानी याद करा देंगे।’ नरसिंह राव ने भी संसदीय बहस में ऐसा ही कुछ कहा था। बाद में विदेश मंत्रालय ने अमेरिकी दूतावास के समक्ष इस बारे में कहा था कि यह जुबान फिसलने का मामला था। तत्कालीन अमेरिकी राजदूत विलियम क्लार्क जूनियर ने नाराजगी में हममें से कुछ संपादकों से कहा था, ‘क्या उनकी जुबान 15 मिनट तक फिसलती रही?’ वह भारत का अमेरिका विरोधी शीतयुद्ध का समय था। अब हम एक अलग दौर में जी रहे हैं जहां लगातार तीन भारतीय प्रधानमंत्रियों और पांच अमेरिकी राष्ट्रपतियों ने हमारे रिश्तों को 21वीं सदी के सर्वाधिक अहम द्विपक्षीय रिश्ते करार दिया है।
भारत और अमेरिका एक दूसरे को रणनीतिक साझेदार के रूप में देखते हैं। वर्ष 2023 में मोदी की आधिकारिक अमेरिका यात्रा के दौरान कही गई कुछ बातें प्रासंगिक हैं। मोदी ने कहा था, ‘हमने जो अहम निर्णय लिया है और उन्होंने हमारी व्यापक और वैश्विक रणनीतिक साझेदारी में एक नया अध्याय जोड़ा है।’ जो बाइडन ने इसे ‘दुनिया की सबसे महत्त्वपूर्ण साझेदारियों’ में शामिल बताया था जो मजबूत है, करीबी है और हालिया इतिहास की सबसे जीवंत साझेदारी है। 6,500 शब्दों के संयुक्त वक्तव्य का यह हिस्सा भी बहुत खूब है: ‘मानवीय उपक्रम का कोई भी कोना इन दो महान देशों की साझेदारी से अछूता नहीं है, जो सागर से सितारों तक विस्तारित है।’ इससे अमेरिकी विदेश विभाग पर भाजपा के हमले को समझा जा सकता है।
यकीनन कूटनीतिक दृष्टि से देखा जाए तो दोनों पक्षों से उच्चतम स्तर पर इस रिश्ते में कोई दिक्कत नहीं है। तो दो महान ताकतें जिन्होंने एक दूसरे को बार-बार अहम रणनीतिक साझेदार के रूप में सराहा है, उन्हें इस विरोधाभास को कैसे दूर किया जाए? कांग्रेस पार्टी भी अब इसमें शामिल हो गई है और उसने मोदी सरकार पर आरोप लगाया है कि वह अपने ‘दोस्त अदाणी को बचाने के लिए’ एक अहम रणनीतिक रिश्ते को नष्ट कर रहे हैं। यह आरोप भी इस समय के विरोधाभासों में एक और विडंबना है। क्योंकि मनमोहन सिंह के परमाणु समझौते वाले दौर को छोड़ दिया जाए तो वह अमेरिका विरोधी रही है।
यह विपक्ष का काम है कि वह सरकार के विरोधाभासों का लाभ उठाए। परंतु सरकार इस रिश्ते को जिसे वह मूल्यवान मानती है उसे दांव पर लगाए बिना संतुलन कैसे कायम करेगी? इसे यह कहकर नहीं टाला जा सकता है कि पार्टी का अपना नजरिया है और सरकार अपना काम करती रहेगी। भारत और अमेरिका भले ही दोस्त बन गए हों लेकिन अमेरिका विरोध को हमेशा आम जनता का साथ मिला है। हाल के समय में ट्रंप अपने डीप स्टेट और उसके अनेक ‘षड्यंत्रों’ की जिस तरह आलोचना की है उससे यह मुद्दा और तेजी से उभरा है। साथ ही वैश्विक व्यापार को डॉलर से मुक्त करने के विचार ने भी जोर पकड़ा है। हालांकि विदेश मंत्री एस जयशंकर इसे स्पष्ट रूप से खारिज कर चुके हैं।
हमारा अमेरिका विरोध इतना मजबूत है कि कई समझदार और प्रभावशाली लोग ब्रिक्स करेंसी के विचार को लेकर बहुत उत्साहित हैं, भले ही यह चीन की मुद्रा युआन का ही एक और नाम हो। कहने का मतलब यह है कि अमेरिका विरोध शायद सबसे सुरक्षित विचारधारा है जिसे प्रदर्शित किया जाए। करीबी साझेदारियों में भी संदेह और विवाद की स्थिति बनती है। बाइडन की विदाई करीब है और दोनों पक्ष एक दूसरे को दोषी मान रहे हैं। पन्नुन मुद्दे पर अमेरिका ने जोर लगाया और ओसीसीआरपी मुद्दे पर भारत ने जवाब दिया। आप एक मित्र के साथ ऐसा कैसे कर सकते हैं? यह सवाल दोनों एक दूसरे से पूछ रहे हैं।
क्या मोदी सरकार या भाजपा इससे अलग ढंग से निपट सकती थी? अगर कमला हैरिस चुनाव जीततीं तो अलग ढंग से बात होती? इस बारे में केवल अनुमान लगाया जा सकता है। मेरा कहना है कि क्या अमेरिका ने इस मामले को बेहतर संभाला?
अमेरिकी राजदूत एरिक गार्सेटी के कुछ वक्तव्यों को देखिए। जिस समय भारत पहले ही निज्जर-कनाडा मामले की तुलना में पन्नुन मामले पर अलग तरह से उत्तर दे रहा था तब क्या गार्सेटी का लक्ष्मण रेखा का उल्लेख करना कूटनीतिक या वास्तविक तौर पर आवश्यक था? या फिर टाइम्स ऑफ इंडिया को दिया उनका वक्तव्य कि अमेरिका आतंकवाद के मसले पर कथनी और करनी में अंतर करता है। हमारी तरह उनका मुल्क भी जानता है कि कैसे आतकंवाद की कथनी करनी में बदल सकती है। तीन दशकों में पहली बार किसी अमेरिकी राजदूत ने भारत में ऐसी बातें कीं।
हम कह सकते हैं कि गार्सेटी मुंबइया गानों पर जस्टिन ट्रूडो से बेहतर डांस कर सकते हैं, भले ही दोनों के वस्त्र पालिका बाजार के एक ही दर्जी के सिले क्यों न नजर आते हों। इक्कीसवीं सदी में आप फिल्मी संगीत या ढोल पर नाचकर भारतीयों का दिल नहीं जीत सकते। खासकर तब जबकि आप उनको आतंकवाद के मसले पर कथनी-करनी का भेद बता रहे हों।
इसके लिए किसी एक व्यक्ति, संस्था या कार्रवाई को दोष नहीं दिया जा सकता है। हकीकत यह है कि बाइडन के शासन के आखिरी महीनों में रिश्तों में तनाव उत्पन्न हो गया। मेरा मानना है कि भाजपा भी जैसे को तैसा जवाब दे रही है लेकिन यकीनन वह अपनी सरकार के साथ मशविरा नहीं कर रही है। वे ट्रंप के सत्ता संभालने की प्रतीक्षा कर रहे हैं।