इस महीने के आरंभ में फ्रांस की एक अदालत ने केयर्न एनर्जी के हक में फैसला सुनाया और पेरिस में भारत सरकार की परिसंपत्तियों को जब्त करने की इजाजत दे दी। भारत के लिए यह एक नई अंतरराष्ट्रीय शर्मिंदगी थी। कुछ लोगों को यह तीन दशक पुराने दौर की पुनरावृत्ति लगी जब भारत भुगतान संतुलन के संकट से जूझ रहा था और उसकी वैश्विक परिसंपत्तियां बेचे जाने का भय उत्पन्न हो गया था। यह खबर कई के लिए इस बात को याद दिलाती थी कि भारत में कारोबार करने में सरकार के मनमानेपन और पूंजी गंवाने का जोखिम हमेशा रहता है।
उक्त लेनदेन 2006 में हुआ था। सन 2014 में कर विभाग ने तय किया कि 2012 के अतीत से प्रभावी संशोधन के जरिये केयर्न पर कर लगाया जाए जबकि कंपनी 2011 में ही अपना कारोबार वेदांत को बेचकर भारत से जा चुकी थी। बाद में सरकार ने वेदांत में केयर्न की हिस्सेदारी जब्त कर ली, कर रिफंड रोक दिए और केयर्न के उचित लाभांश और अन्य आय जब्त कर लीं। केयर्न ने लडऩे का निर्णय किया और ब्रिटेन-भारत द्विपक्षीय निवेश संधि के तहत गत वर्ष दिसंबर में उसे अंतरराष्ट्रीय मध्यस्थता में जीत हासिल हुई।
भारत सरकार उन संधियों पर भी भरोसा नहीं करती जिन पर उसने हस्ताक्षर किए हैं। इसका नतीजा पेरिस में हुई शर्मिंदगी के रूप में सामने आया। केयर्न के पास यह विकल्प है कि वह मध्यस्थता पंचाट के 1.4 अरब डॉलर के अवार्ड के प्रवर्तन के लिए 160 में से किसी भी न्याय क्षेत्र में मामला दायर करे। वह एक छोटी कंपनी है लेकिन इकलौती नहीं है। गत वर्ष देवास के नाम से जाने जाने वाले निवेशकों के समूह को, जो पहले इसरो की वाणिज्यिक शाखा एंट्रिक्स के साथ समझौते में था, एक मध्यस्थता मामले में 1.4 अरब डॉलर की जीत मिली। वे भी कुछ क्षेत्रों में केयर्न के साथ सहयोग कर सकते हैं और अन्य स्थानों पर अतिरिक्त प्रवर्तन का अनुरोध कर सकते हैं। केयर्न भी किसी बड़ी कंपनी को प्रवर्तन अधिकार बेचने में सक्षम है जो ऐसे कदम उठाने में दक्ष हो और जो भारत को सभी 160 क्षेत्रों में प्रतिक्रिया पर मजबूर कर सकती है।
क्या भारत को इन बातों का अनुमान था? यदि नहीं तो क्यों? यदि हां तो उसने यह शर्मिंदगी क्यों चुनी? जवाब उन चार समस्याओं में छिपा है जो भारतीय राज्य को व्याख्यायित करती हैं और जिनसे निजात पाने में वह नाकाम रहा है। सबसे पहले, निर्णय न ले पाना। दूसरा, क्षमता का अभाव। तीसरा, प्रतिस्पर्धी क्षमता की कमी और सबसे महत्त्वपूर्ण, विनम्रता की कमी।
निर्णय: मेरा तात्पर्य यह नहीं है कि उचित निर्णय लेकर अनुत्पादक कर संशोधनों से बचा या विचित्र कर मांग को रोका जा सकता था। भारतीय राज्य को मध्यस्थता के दौरान ही पीछे हट जाना चाहिए था जब उसके अधिवक्ताओं को लगा कि वे हार रहे हैं। भारत उस वक्त भी विवादों को नहीं निपटाता जब ऐसा करना उचित हो। ऐसा इसलिए नहीं कि अधिकारियों में निर्णय क्षमता नहीं है बल्कि इसलिए भी कि मामला निपटाने पर कोई प्रोत्साहन नहीं मिलता। वे निजी क्षेत्र के साथ समझौता भी नहीं करना चाहते क्योंकि बाद में भ्रष्टाचार के आरोप लगने का डर रहता है। देश में इसके चलते विपरीत कर निर्णय लिए जाते हैं जिनसे विधिक व्यवस्था की अक्षमता के कारण वे बच निकलते हैं। परंतु अंतरराष्ट्रीय मध्यस्थता में यह कारगर नहीं रहता और उनकी निर्णय संबंधी अक्षमता उजागर हो जाती है।
क्षमता: ज्यादा राज्य क्षमता वाला देश उन जगहों की पहचान कर सकता है जहां मध्यस्थता प्रवर्तन का जोखिम अधिक है। वह दर्जनों अलग-अलग स्थानों पर प्रवर्तन का मुकाबला भी कर सकता है। भारत ऐसा नहीं कर सकता। हमारी व्यवस्था में ऐसे लोग बहुत कम हैं जो अंतरराष्ट्रीय कानून जैसे जटिल विषय को समझ सकें। व्यवस्था के बाहर ऐसे विषय के जानकार बहुत कम हैं। न्यायिक ढांचे में गतिरोध और ज्यादा है। ऐसे में घरेलू मामलों में वे भले ही न्यायाधीशों पर भारी पड़ें लेकिन अंतरराष्ट्रीय मध्यस्थता में वे ऐसा नहीं कर सकते हैं।
क्षमता: भारतीय राज्य अधिकारियों में अक्षमता को प्राथमिकता देता है क्योंकि उनसे किसी तरह का भय नहीं होता। यह विचार मेरा नहीं बल्कि स्वर्गीय अरुण जेटली का है। उन्होंने ऐसा 2017 में केंद्रीय वित्त मंत्री रहते हुए प्रधानमंत्री कार्यालय को की गई शिकायत में कहा था। उन्होंने कहा कि विभिन्न द्विपक्षीय संधियों के तहत 23 मध्यस्थता प्रकरण चल रहे हैं जिनमें भारत सरकार का समुचित प्रतिनिधित्व नहीं हो रहा। उन्होंने कहा कि सरकार पर्याप्त अच्छे वकीलों की मदद नहीं ले रही। उन्होंने यहां तक कहा कि कोई मंत्रालय दैनिक आधार पर समन्वय भी नहीं कर रहा है। यानी अरबों डॉलर की राशि इसलिए गंवाई जा सकती थी क्योंकि सरकार में इन मुद्दों को समझने की काबिलियत रखने वाले लोग (शायद जेटली को छोड़कर) नहीं थे। यह संकट अन्य जगहों पर भी है। इसीलिए निजी-सार्वजनिक भागीदारी नाकाम हुई। भारत सरकार न तो अनुबंध लिख सकती है न उन्हें पढ़ सकती है। वह साफ दिख रही चीजें भी नहीं देख पाती।
विनम्रता: यह सबसे बुनियादी बात है। भारत सरकार मानती है कि चूंकि वह कानून बनाती है इसलिए वह उससे ऊपर है। वह मानती है कि किसी मझोले अफसरशाह द्वारा की गई घरेलू कर कानून अथवा अंतरराष्ट्रीय संधि की व्याख्या घरेलू अदालतों या अंतरराष्ट्रीय पंचाट से अधिक सटीक है। वह अपनी गलती नहीं स्वीकार करती। यही वजह है कि दुनिया भर के निवेशक मानने लगे हैं कि भारत तभी जाइए जब आप वहां की सरकार से प्रताडि़त होना चाहते हों। उदारीकरण के 30 वर्षों में भारतीय राज्य में गहरा दंभ भर गया है। उसे लगता है कि उसकी तमाम गलतियों के बावजूद निवेशक आते रहेंगे। विनम्रता की कमी और यह अतिआत्मविश्वास न केवल भारत के मध्यस्थता मामलों में हार की वजह है बल्कि तीन दशक से चल रही वृद्धि में ठहराव की भी यही वजह है।
