मैं तीन सदस्यों वाली उस समिति का सदस्य था, जिसे भारतीय प्रबंध संस्थान के निदेशक का चयन करना था। इस पद के लिए पांच नाम छांटे गए थे। हममें से एक सदस्य ने कहा, ‘इस अभ्यर्थी को चुन लेते हैं।’ मैंने पूछा, ‘क्यों, उसके रेजूमे में ऐसा क्या है जिसकी वजह से आप उसकी सिफारिश कर रहे हैं?’ इस पर उन्होंने जवाब दिया, ‘मैं उसके पिता और भाई को जानता हूं…उनका परिवार प्रतिभाशाली और मेहनती है।’
मुझे अजीब लगा। मैंने पूछा, ‘क्यों? क्या प्रतिभा खानदानी होती है?’ उन्होंने जवाब दिया, ‘हां, होती है। क्या आधुनिक विज्ञान साबित नहीं कर चुका है कि बुद्धिमानी तथा अन्य गुण जीन के जरिये एक से दूसरे में जाते हैं? अगर आपको मेरी बात पर यकीन नहीं तो ‘द बेल कर्व’ नाम की किताब पढ़िए।’
मैं अवाक् रह गया। मुझे पता था कि 50 वर्ष पहले भारत में (और शायद पूरी दुनिया में) सब कुछ ‘पारिवारिक संपर्कों’ की बदौलत हो जाता था और माना जाता था कि कौशल और प्रतिभा माता/पिता से बेटे/बेटियों में पहुंच जाते हैं। लेकिन क्या हम उस दौर को पीछे छोड़कर श्रेष्ठता को दूसरी बातों से नहीं मापने लगे थे? उदाहरण के लिए उसका रेजूमे या काम का पिछला अनुभव कितना सही है…
सच यह है कि जब हम सभी इंटरनेट तथा उससे जुड़ी नई ईजादों मसलन आर्टिफिशल इंटेलिजेंस आदि को समझने और सीखने में व्यस्त रहे तभी उतना ही चौंकाने वाली एक और तकनीकी लहर धीरे-धीरे हमारी जिंदगियों में उथलपुथल मचा रही थी, जिसका नाम था डीएनए।
डीएनए का पूरा नाम है ‘डीऑक्सीराइबोन्यूक्लिक एसिड’ और रसायनशास्त्री इसे अणु कहते हैं। पेचीदा रासायनिक नामों वाले और भी कई अणु हैं, जिनसे हम बेपरवाही दिखा सकते हैं मगर वैज्ञानिक डीएनए के बारे में जो दावे कर रहे हैं, वे डरावने हैं और उनकी अनदेखी नहीं की जा सकती। उदाहरण के लिए वे कहते हैं, ‘हर व्यक्ति में खास और अलग तरह का डीएनए होता है, जो माता-पिता से संतान में चला जाता है।’
अगर यह केवल रासायनिक पदार्थ होता, जो पशु, पक्षी और मनुष्य की हरेक प्रजाति में आलग-अलग होता तो भी हम इसे नजरअंदाज कर देते और वैज्ञानिकों को इससे माथापच्ची करने देते और सेमिनारों में इस पर बड़ी-बड़ी बातें करने देते। लेकिन अब तो और भी बड़े दावे किए जा रहे हैं।
इस क्षेत्र में इस कड़वी बहस की शुरुआत रिचर्ड जे हर्नस्टीन और चार्ल्स मरे की 1994 में आई किताब से हुई, जिसका शीर्षक है: ‘द बेल कर्व: इंटेलिजेंस ऐंड क्लास स्ट्रक्चर इन अमेरिकन लाइफ।’ इस किताब ने जोर दिया कि आईक्यू परीक्षा में आंकी जाने वाली किसी व्यक्ति की बुद्धिमता का निर्धारण मोटे तौर पर उन जीन्स के जरिये होता है, जो उसे अपने माता-पिता से मिलते हैं।
किताब ने चौंकाने वाली एक और बात कही। उसने जोर देकर कहा कि अलग-अलग नस्लों और जातीय समूहों में औसत आईक्यू भी अलग-अलग होता है क्योंकि यह उन्हें विरासत में मिले जीन से तय होता है। पुस्तक में विवाद खड़ा करने वाला एक दावा यह भी किया गया कि अमेरिकी समाज में आईक्यू द्वारा आंकी जाने वाली बुद्धिमता सामाजिक-आर्थिक नतीजों को बहुत हद तक प्रभावित करती है। यह भी कहा गया कि अलग-अलग नस्लों में अलग-अलग आईक्यू होता है और समाज बोध की क्षमता से अधिक संतुष्ट होता जा रहा है और बोधपरक कुलीनता की ओर बढ़ता जा रहा है।
इस किताब ने बहुत अधिक विवाद पैदा किए मगर हममें से कई लोग इस बात पर चिंतित हैं कि डीएनए के बारे में चल रहा शोध गलत दिशा में जा सकता है और इसे सामाजिक आर्थिक भेद का आधार बताया जा सकता है। दूसरी ओर डीएनए से संबंधित शोध ही हमें यह समझने में मदद करते हैं कि कुछ खास बीमारियां किन खास अनुवांशिक या रासायनिक कारणों से होती हैं। इस जानकारी की बदौलत ही हम नई दवाएं और इलाज तलाश पा रहे हैं, जिनसे कुछ खास बीमारियों का इलाज हो सकता है।
मेरे सांस रोककर बैठिए प्रिय पाठको! इन एकदम नई और क्रांतिकारी पहलों में से कई के केंद्र में एक तमिल व्यक्ति है, जिसका नाम है वेंकटरमण (वेंकी) रामकृष्णन। 1952 में तमिलनाडु के चिदंबरम में जन्मे वेंकी रामकृष्णन को 2009 में थॉमस स्टीज़ और अदा योनाथ के साथ रसायन विज्ञान के नोबेल से सम्मानित किया गया।
मगर वेंकी को यह उपलब्धि भारत में शोध करते समय नहीं मिली। उन्होंने बड़ौदा में महाराजा सयाजीराव विश्वविद्यालय से भौतिकी में स्नातक किया और पीएचडी के लिए ओहायो विश्वविद्यालय चले गए। उसके बाद उन्होंने विभिन्न अमेरिकी शोध संस्थानों के जरिये काम किया। उनकी आत्मकथा ‘जीन मशीन’ बहुत प्रसिद्ध पुस्तक है।
ये सब बहुत अच्छा लगता है मगर विचारक समुदाय में यह चिंता बढ़ती जा रही है कि बड़ा खतरा मंडरा रहा है। खतरा इस बात का है कि अच्छी शिक्षा के साथ प्रयास और कड़ी मेहनत से जीवन में सफलता मिलने की हमारी आधुनिक मान्यता की जगह यह धारणा न छा जाए कि विरासत में मिले जीन ही मायने रखते हैं। अति उत्साह में यह भी माना जा सकता है कि समाज के लिए जीन ही सब कुछ हैं और उनके अलावा कुछ भी मायने नहीं रखता।
यह बिल्कुल वैसा ही है, जैसे अतीत में देखा गया है: तब हमने परमाणु की बनावट में महारत हासिल कर ली, जिससे हमें इलेक्ट्रॉनिक्स, सिंथेटिक केमिकल मिले और उसके बाद बाइट को मुट्ठी में करके कंप्यूटर, मोबाइल फोन, आर्टिफिशल इंटेलिजेंस तैयार कर दिए।
इसके बाद हमने मान लिया कि दुनिया को बेहतर जगह बनाने और समाज को फायदा देने के लिए यही सब चाहिए। लेकिन हमने सीखा है कि जैसे परमाणु और बाइट को समाज के लिए नुकसानदेह बनने से रोकने के लिए उन पर नियंत्रण जरूरी है नवैसे ही शायद जीन को भी खास तौर पर ‘जीन बनाम योग्यता’ जैसी बहसों में नियंत्रण की बहुत जरूरत है।
(लेखक इंटरनेट उद्यमी हैं)