भारत के कर एवं सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) अनुपात पर होने वाली चर्चाओं में अक्सर अन्य देशों की तुलना में भारत के प्रदर्शन का जिक्र किया जाता है। इसका मूल विश्लेषण अन्य समान देशों के साथ सामान्य तुलना या स्टोकेस्टिक फ्रंटियर विश्लेषण जैसे सांख्यिकीय तरीकों पर आधारित है। विश्व बैंक के दक्षिण एशिया विकास अपडेट, 2025 में भी इसी तरीके को अपनाया गया है।
इस तरीके से अंदाजा मिलता है कि कर से मिलने वाले राजस्व संग्रह में कितनी कमी है यानी जितना कर आ सकता था, उससे कितना कम आया। व्यापक निष्कर्ष से यह अंदाजा भी मिलता है कि भारत के लिए कर में कमी या अंतर, उभरते बाजारों और विकासशील देशों के समान ही है। इस दृष्टिकोण के मुताबिक कर संग्रह, मुख्य रूप से अर्थव्यवस्थाओं की संरचनात्मक विशेषताओं पर निर्भर करता है।
इस सवाल का जायजा लेने का एक वैकल्पिक तरीका उन देशों की पहचान करना है जिन्होंने एक निश्चित अवधि में कर-जीडीपी अनुपात में महत्त्वपूर्ण वृद्धि दर्ज की है और राजस्व प्रदर्शन में ऐसे सुधारों के पीछे के कारकों की जांचकी जाए।
आर्थिक सहयोग एवं विकास संगठन (ओईसीडी) के वैश्विक राजस्व पर डेटाबेस से जानकारी का उपयोग करते हुए, उन देशों की पहचान करने की कोशिश की गई है जिन्होंने वर्ष 2000 और 2022 के बीच कर-जीडीपी अनुपात में अच्छी वृद्धि दर्ज की। छोटे द्वीपीय राष्ट्रों और तेल संपन्न देशों को छोड़कर, कुछ देशों ने कर-जीडीपी अनुपात में 9 फीसदी से अधिक की वृद्धि दर्ज की। इनमें कुछ निम्न-मध्यम स्तर की आय वाले देश, कुछ उच्च-मध्यम स्तर के आय वाले देश और कुछ उच्च-आमदनी वाले देश शामिल हैं। साफतौर पर, कर राजस्व जुटाने की आवश्यकता एक ऐसी चिंता है जो कई देशों की है।
यह अध्ययन दिलचस्प हो सकता है कि इन देशों ने कर-जीडीपी अनुपात बढ़ाने और उसे बरकरार रखने में कैसे सफलता प्राप्त की। इनमें से प्रत्येक देश ने कर आधार का विस्तार करने और राजस्व संग्रह में सुधार के लिए विभिन्न कर सुधार उपाय लागू किए हैं। इनमें से कुछ देशों ने पूरी अवधि में लगातार वृद्धि दर्ज की और निकारागुआ इसका एक अच्छा उदाहरण है।
बाकी देशों ने वैश्विक वित्तीय संकट की अवधि के आसपास उच्च स्तर हासिल किया और उसके बाद भी इसे बनाए रखा। इस श्रेणी में जॉर्जिया, मोरक्को और किर्गिस्तान जैसे देश आते हैं। दूसरी ओर, जापान और ट्यूनीशिया ने वैश्विक वित्तीय संकट के दौरान और उसके बाद वृद्धि हासिल की और इसके बाद वर्ष 2015 से दक्षिण कोरिया ने वृद्धि दर्ज की। कर संग्रह में वृद्धि के कारक वास्तव में विभिन्न देशों में अलग-अलग हैं और यह उस वृद्धि में योगदान देने वाले करों में अंतर से दिखता है।
एक और अहम बात यह है कि चार प्रमुख राजस्व समूहों- कॉरपोरेट कर, व्यक्तिगत आयकर, वस्तु एवं सेवा कर और सामाजिक सुरक्षा योगदान पर ध्यान दिया गया है। गौर करने वाली बात यह भी है कि आठ देशों में से छह ने सामाजिक सुरक्षा योगदान में वृद्धि दर्ज की है। वृद्धि में दूसरा सबसे आम योगदानकर्ता वस्तुओं एवं सेवाओं पर कर में बढ़ोतरी है जिसमें मूल्यवर्धित कर (वैट) के साथ-साथ सीमा शुल्क और उत्पाद शुल्क भी शामिल हैं।
इसके अलावा सामाजिक सुरक्षा योगदान की भूमिका के संबंध में कुछ प्रश्न उठते हैं। ये योगदान, अक्सर आंशिक रूप से रोजगार देने वाली कंपनियों द्वारा और आंशिक रूप से कर्मचारी द्वारा भुगतान किए जाते हैं। यह भारत में औपचारिक क्षेत्र के कर्मचारियों के लिए भविष्य निधि योगदान के समान हैं। भारत की कर प्रणाली में, ऐसे योगदानों को कर संग्रह में शामिल नहीं किया जाता है।
कर-जीडीपी अनुपात के बारे में नजरिया सुधारने का आसान तरीका यह हो सकता है कि इन योगदानों को कर संग्रह के ढांचे में शामिल किया जाए। हालांकि, इससे सरकार की देनदारियां भी बढ़ेंगी। दूसरे शब्दों में, यह केवल छवि को प्रभावित करेगा लेकिन सरकार के पास उपलब्ध संसाधनों पर इसका कोई असर नहीं पड़ेगा।
फिर भी एक सैद्धांतिक सवाल बना रहता है कि क्या सरकार द्वारा गारंटी वाली सामाजिक सुरक्षा प्रणाली होने से राज्य और नागरिकों के बीच एक बेहतर संबंध बन सकता है? मध्यवर्गीय करदाताओं के बीच आम धारणा यह है कि लोग सरकार की खर्च प्राथमिकताओं से सहज नहीं हैं। विधि लीगल द्वारा भारत में कर चोरी के प्रभाव और भार पर किए गए एक सर्वेक्षण में सरकारी खर्चों के बारे में लोगों की राय का आकलन किया गया और इसमें बताया गया है कि आधे से भी कम लोग यह मानते हैं कि कर के पैसे का सही इस्तेमाल किया गया है। कर और महसूस किए गए लाभों के बीच एक मजबूत संबंध स्थापित करने से लोग बेहतर ढंग से कर से जुड़े नियमों का पालन करने के लिए प्रोत्साहित हो सकते हैं।
(लेखिका नैशनल इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक फाइनैंस ऐंड पॉलिसी, नई दिल्ली की निदेशक हैं। ये उनके निजी विचार हैं)