पिछले तीन-चार साल में सार्वजनिक व्यय पर बहुत ज्यादा जोर देने के बाद सरकार ने खपत और वृद्धि को बढ़ावा देने के लिए आय कर कटौती की मदद लेने का निश्चय किया है। पूंजीगत व्यय अब भी ज्यादा है मगर उसमें ठहराव आया है। बजट में जो पूंजीगत व्यय बताया गया है उसका काफी हिस्सा बिहार में नई परियोजनाओं के लिए आवंटित किया गया है क्योंकि वहां विधानसभा चुनाव नजदीक हैं। बाकी खर्च पहले से चल रही परियोजनाएं पूरी करने के लिए होगा। अब सरकार को उम्मीद है कि मध्य वर्ग के लिए आयकर में अच्छी-खासी कमी करने से खपत बढ़ेगी और आखिरकार निजी क्षेत्र का निवेश बढ़ेगा।
सरकार ने करीब 1 लाख करोड़ रुपये की आयकर कटौती का प्रस्ताव रखा है, जो सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के 0.3 फीसदी के बराबर है, लेकिन इसका फायदा 4.7 करोड़ शहरी करदाताओं को ही मिलेगा। अगर मान लें कि इस कटौती के कारण बचे हर 1 रुपये में से 80 पैसे खर्च किए जाते हैं तो भी प्रत्यक्ष सरकारी व्यय के मुकाबले इसका असर कम रहेगा। अगर इसका कुछ हिस्सा ऐसे खाद्य पदार्थों पर खर्च होता है, जिनकी आपूर्ति कम है तो क्या इससे महंगाई भी बढ़ेगी और मौद्रिक नीति ज्यादा जटिल हो जाएगी?
नैशनल इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक फाइनैंस ऐंड पॉलिसी में मेरे शोध से पता चला कि कंपनियों द्वारा निवेश मुख्य रूप से क्षमता के इस्तेमाल, प्रतिस्पर्द्धात्मकता और ऋण की उपलब्धता पर निर्भर करता है। पूंजीगत व्यय का ज्यादा असर कंपनियों के अलावा हो रहे निवेश – खास तौर पर आवास तथा रिटेल में हो रहे निवेश – पर पड़ता है। इसलिए अगर कंपनियों का निवेश बढ़ाना ही मकसद है तो पूंजीगत व्यय पर निर्भर रहने के बजाय कर कटौती की मदद से खपत बढ़ाने का तरीका आजमाया जा सकता है क्योंकि इससे क्षमता का अधिक इस्तेमाल होगा।
2023-24 में कंपनियों को रिकॉर्ड मुनाफा हुआ और निफ्टी 500 कंपनियों का जीडीपी-मुनाफा अनुपात बढ़कर 4.6 फीसदी हो गया, जो 2007-08 के बाद से सबसे अधिक रहा। फिर भी निजी निवेश नहीं बढ़ा है। कंपनियों को यह रिकॉर्ड मुनाफा भी बिक्री बढ़ाकर क्षमता का अधिक इस्तेमाल करने से नहीं हुआ है बल्कि श्रम पर आ रहा खर्च कम करने से हुआ है। कॉरपोरेट क्षेत्र की नॉमिनल बिक्री केवल 6 फीसदी बढ़ी है। विडंबना यह है कि 2019 में कॉरपोरेट कर घटाने से सरकार को पिछले पांच साल में 7-8 लाख करोड़ रुपये का नुकसान उठाना पड़ा। कंपनियों ने कर कटौती से हुई बचत का बहुत कम हिस्सा निवेश किया। अगर सरकार ने कॉरपोरेट कर कटौती के बजाय 2019 में मध्य वर्ग के लिए आयकर घटा दिया होता तो अर्थव्यवस्था को ज्यादा फायदा मिला होता।
आर्थिक समीक्षा में भी निजी निवेश में कमी के लिए अत्यधिक विनियमन वाली अर्थव्यवस्था को जिम्मेदार ठहराया गया है। उसमें भी भरोसे पर आधारित नियामक प्रणाली की वकालत की गई है यानी जब तक किसी की गलती साबित नहीं होती है तब तक वह निर्दोष ही रहेगा इसका उलटा नहीं। बजट में विनियमन की योजना का मसौदा तैयार करने के लिए एक और समिति बनाने का प्रस्ताव है। चूंकि सरकार को आकर्षक नाम बहुत पसंद हैं तो हम इसे नियामकीय दक्षता पर विशेष समिति या स्पेशल कमेटी ऑन रेग्युलेटरी एफिशिएंसी (स्कोर) कह सकते हैं।
ध्यान रहे कि नियामकीय सफाई तो जरूरी है मगर इसके तत्काल परिणाम नहीं आएंगे। गंभीरता दिखाने के लिए बजट में कुछ ऐसे उपाय घोषित किए जा सकते थे, जिनसे नियमन में फौरन कमी आए। शोध एवं विकास में निजी क्षेत्र की भागीदारी कम रहने के कारण समझने पर जोर दिया जाना स्वागत योग्य कदम है। मैंने पिछले वर्ष फरवरी में अपने आलेख में कहा था कि शोध एवं विकास पर खर्च को जीडीपी के प्रतिशत के रूप में देखें तो भारत दुनिया के अग्रणी देशों में शामिल है मगर निजी क्षेत्र के लिए यही आंकड़ा देखें तो भारत बहुत पीछे है। मुझे यह देखकर अच्छा लगा कि 2024 की आर्थिक समीक्षा में इसकी विस्तार से पड़ताल की गई और बजट में शोध तथा विकास पर निजी क्षेत्र का व्यय बढ़ाने पर प्रोत्साहन दिया गया।
शोध एवं विकास पर होने वाला खर्च सार्वजनिक संस्थानों के जरिये होता है, जो आम तौर पर अलग-थलग रहते हैं और विश्वविद्यालयों तथा निजी क्षेत्र के साथ न के बराबर संवाद करते हैं। उस खर्च का ज्यादा से ज्यादा फायदा उठाए जाने की भी जरूरत है। शोध एवं विकास कोष बनाने की सरकार की कोशिश संवाद बढ़ाने के लिए ही है।
कृषि में व्यापक सुधारों की जरूरत है लेकिन फिलहाल फलों, सब्जियों और दालों का उत्पादन बढ़ाने पर ध्यान दिया जाना चाहिए क्योंकि इनकी आपूर्ति में अड़चन आने के कारण महंगाई के खिलाफ लड़ाई कठिन बन गई है। इस दिशा में प्रयास स्वागतयोग्य हैं। पर्यटन को बढ़ावा देने और देश में पर्यटन की अनछुई संभावनाओं का पूरा फायदा उठाने के लिए बुनियादी ढांचा बनाया जाना भी सकारात्मक बदलाव है। धार्मिक पर्यटन पर ध्यान देने से देसी-विदेशी पर्यटक आकर्षित होंगे और अर्थव्यवस्था को गति मिलेगी। चिकित्सा पर्यटन पर भी बजट में ध्यान दिया गया है। वीजा शर्तों में नरमी देने से और राज्य सरकारों के साथ मिलकर 50 पर्यटन केंद्रों का विकास करना भी अच्छी बात है।
मोटरसाइकल जैसे कुछ उत्पादों के आयात पर शुल्क घटाना भी अच्छा कदम है। डॉनल्ड ट्रंप ने अमेरिका के राष्ट्रपति के रूप में अपने पहले कार्यकाल के दौरान इसे बहुत तवज्जो दी थी। साथ ही स्मार्टफोन, औषधि और ईवी बैटरियों पर शुल्क कम किया जाना भी स्वागत योग्य है। भारत की होड़ करने की क्षमता को कुंद कर रहे इनवर्टेड ड्यूटी ढांचे को इससे ठीक करने में मदद मिलनी चाहिए। प्रधानमंत्री अमेरिका जा रहे हैं और इस यात्रा के दौरान शुल्क में और कटौती की जा सकती है।
मगर रक्षा व्यय से निराशा हुई है। भू-राजनीति में जिस तरह धड़े बढ़ रहे हैं उन्हें देखते हुए भारत न तो पर्याप्त व्यय कर रहा है और न ही रकम का आवंटन समझदारी के साथ कर रहा है। रक्षा बजट का एक तिहाई हिस्सा तो वेतन एवं पेंशन आदि में ही खर्च हो जाता है। ऐसे में पूंजीगत व्यय और उपकरणों के लिए मामूली इजाफा ही हुआ है। यूक्रेन युद्ध में दिखा है कि आधुनिक युद्ध की प्रकृति काफी बदल गई है और अब जवानों की संख्या नहीं बल्कि आधुनिक उपकरण ज्यादा मायने रखते हैं। परंतु इसके लिए व्यापक पुनर्गठन की जरूरत है, जिसमें बजट से भी मदद मिलनी चाहिए।
आखिर में अधिकतर विश्लेषक वित्त वर्ष 26 में राजकोषीय घाटा कम होकर जीडीपी का 4.4 फीसदी रह जाने के अनुमान से प्रसन्न हैं। परंतु वह आंकड़ा भी नरेंद्र मोदी सरकार के कोविड महामारी से पहले के किसी भी बजट के घाटे से अधिक है। विदेश में स्थितियां अनुकूल रहने के बाद भी 2014-15 से भारत का सार्वजनिक ऋण जीडीपी के प्रतिशत के रूप में बढ़ने लगा और आज 84.3 प्रतिशत हो गया है। सरकारी व्यय का एक तिहाई तो कर्ज और ब्याज चुकाने में ही खर्च हो जाता है। ऐसे में दूसरे खर्च नहीं हो पाते और फिर कोई संकट आया तो उससे निपटने के लिए भी गुंजाइश नहीं रहेगी। अब समय आ गया है कि कुल सार्वजनिक ऋण को तेजी से खींचकर जीडीपी के 70 फीसदी तक लाया जाए।
इसका एक ही तरीका है और वह है तेजी से विनिवेश। इसके लिए करीब 35-40 लाख करोड़ रुपये मूल्य की गैर रणनीतिक परिसंपत्तियां बेची जा सकती हैं। मध्य वर्ग को कर में राहत स्वागतयोग्य है और जनता इसे पसंद भी बहुत करेगी। लेकिन देखना होगा कि जो प्रस्ताव रखा गया है वह देश की वृद्धि को गति देने के लिए पर्याप्त है या नहीं। उसके लिए फैक्टर सुधारों खास तौर पर श्रम कानूनों तथा भूमि अधिग्रहण में सुधारों की बहुत जरूरत है। आम चुनावों से पहले राज्यों के साथ मिलकर ऐसा करने का वादा भी किया गया था।
(लेखक जॉर्ज वॉशिंगटन यूनिवर्सिटी में इंस्टीट्यूट ऑफ इंटरनैशनल इकनॉमिक पॉलिसी के डिस्टिंगुइश्ड विजिटिंग स्कॉलर हैं)