इस सप्ताह के स्तंभ के लिए तीन उपयुक्त मुद्दे सामने थे: गरीबी उन्मूलन का पुराना विचार, स्टील उद्योग की अधिक आयात शुल्क के लिए लॉबीइंग और एडी श्रॉफ जैसे सुधारों के पैरोकार इस समय नहीं हैं
इस सप्ताह इस स्तंभ के लिए तीन विषय बिल्कुल समय पर सामने थे। पहला मुद्दा सोशल मीडिया पर वायरल एक पोस्ट जिसमें भारत के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) को देश के अरबपतियों की संपत्ति (बाजार पूंजीकरण के आधार पर) से मिलाकर दिखाया गया और समाज की असमानता को सामने रखा गया। कुछ बेहद समझदार लोग भी इसके झांसे में आ गए। आखिर सभी अच्छे लोग एक ही तरह से सोचते हैं। भारत में वास्तव में बहुत अधिक असमानता है और इसमें कई तरह से इजाफा हो रहा है। तो फिर तर्क क्या है?
बात यह है कि जीडीपी में एक वर्ष की संपूर्ण राष्ट्रीय आय को शामिल किया जाता है, जबकि आपकी संपदा में पिछली आमदनियों से तैयार आपकी बचत, आपकी इक्विटी होल्डिंग का बाजार पूंजीकरण और आपकी अन्य परिसंपत्तियां शामिल होती हैं। संपदा आय नहीं होती और इसी तरह आय संपदा नहीं होती।
भारतीय बाजारों का कुल पूंजीकरण करीब 6 लाख करोड़ डॉलर का है जो देश के कुल जीडीपी से अधिक है। अंबानी, अदाणी, बिरला, टाटा और देश के सभी अरबपतियों की परिसंपत्ति इसमें शामिल है। बाकी बचे देश के करीब 142 करोड़ लोग जीडीपी में अपनी मामूली हिस्सेदारी देते हैं।
अब सवाल यह है कि 1991 के सुधारों के 33 वर्ष बाद आखिर इस विचार को इतना आधार कैसे मिला? इसने हमें पहला सूत्र दिया: वही पुरानी गरीबी की बातें जो हमारे सबसे समझदार लोगों के दिमागों को विचलित कर रही हैं।
दूसरा मसला है स्टील उद्योग का और अधिक आयात शुल्क पर जोर देना जिससे भारत का स्टील दुनिया भर में और अधिक महंगा हो जाएगा। इसकी कीमत स्थानीय उपयोगकर्ता यानी आप और हम चुका रहे हैं जो घर बनाते हैं और वाहन खरीदते हैं। इसकी कीमत गिग वर्कर्स की स्कूटी, किसानों के ट्रैक्टर, घरेलू कढ़ाई और चम्मच के रूप में चुकानी होती है।
यह तब हो रहा है जब सूक्ष्म, लघु और मझोले उपक्रम कह रहे हैं कि स्टील की कीमत के कारण उनकी हालत खराब हो रही है। बड़े वाहन निर्माता फुसफुसाकर कहते हैं कि उनके शिपिंग कंटेनर बंदरगाहों पर मंजूरी की प्रतीक्षा में लंबे समय से पड़े हैं। उनका मुद्दा केवल कीमत नहीं है।
वाहन उद्योग को जितने स्टील की जरूरत होती है उसका 20 फीसदी ऐसा है जो अभी भी भारत में नहीं बनता है। हालांकि सरकार को इसकी परवाह नहीं है और इस मामले में वह पूरी तरह संरक्षणवादी हो जाती है। सुरजीत भल्ला और करन भसीन ने इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित अपने आलेख ‘ड्रीम्स ऑफ विकसित भारत स्टम्बल ओवर नेहरूवियन इंपल्सेज’ में इसे लेकर बहुत भावुक अपील की है। यह दिखाता है कि कैसे आर्थिक सुधारों का बचाव करने वाले और बहुत उम्मीदों के साथ नरेंद्र मोदी सरकार का समर्थन करने वाले भी दुखी हो रहे हैं।
तीसरा मुद्दा विशुद्ध रूप से आकस्मिक है। मुझे मुंबई में फोरम ऑफ फ्री एंटरप्राइजेज (एफएफई) के वार्षिक आयोजन में बोलने का मौका मिला। एफएफई की स्थापना अर्देशिर दराब शॉ (एडी) श्रॉफ ने जुलाई 1956 में की थी। इसका मकसद था, उसी वर्ष अप्रैल में कांग्रेस की औद्योगिक नीति प्रस्ताव में नेहरू ने जो वाम मार्ग अपनाया था, उसका बौद्धिक और दार्शनिक प्रत्युत्तर देना। कांग्रेस की उस नीति ने देश की उद्यमिता को साढ़े तीन दशकों तक रोके रखा। 1991 में पीवी नरसिंह राव ने उसकी जकड़न तोड़ी।
इस नीति ने भारत के उद्योग जगत को ए, बी और सी श्रेणियों में बांट दिया। पहली श्रेणी में सरकारी उपक्रम थे। बी श्रेणी में कुछ क्षेत्रों में पहले से मौजूद निजी क्षेत्र था और सी श्रेणी खुला क्षेत्र था लेकिन केवल लाइसेंसिंग के साथ। यह काफी आकर्षक था और कांग्रेस बार-बार सत्ता में चुनी जाती रही। इं
दिरा गांधी ने अपने पिता के समाजवादी कदमों को व्यापक राष्ट्रीयकरण के जरिये आगे बढ़ाया। इस दौरान न्यू इंडिया एश्योरेंस और बैंक ऑफ इंडिया का भी राष्ट्रीयकरण किया गया। इन दोनों को श्रॉफ ने आगे बढ़ाया था।
एफएफई ने भारतीयों को मुक्त उद्यमिता के लाभ और सरकारी नियंत्रण की बुराइयों से अवगत कराने का काम किया। श्रॉफ उन आठ लोगों के समूह में शामिल थे जिन्होंने 1944 में देश की अर्थव्यवस्था के लिए बॉम्बे योजना तैयार की थी। सुचेता दलाल ने उनकी बेहतरीन जीवनी लिखी है।
जनवरी 1976 में जब आपातकाल के दौरान इंदिरा गांधी बेहद शक्तिशाली थीं, उस समय मैं पत्रकारिता का छात्र था। पढ़ाई के दौरान मैं नई दिल्ली में टाइम्स ऑफ इंडिया समाचार पत्र में छह सप्ताह की इंटर्नशिप कर रहा था। मैं रोज समय से दफ्तर जाता और दिन भर काम के इंतजार में बैठा रहता। उस समय चीफ रिपोर्टर रहे बीके जोशी मुझे कभी कोई काम नहीं देते थे। वह मेरी ओर देखते तक नहीं थे। एक दिन मैंने हिम्मत जुटाकर उनसे पूछा कि वह ऐसा क्यों कर रहे हैं।
उन्होंने जवाब दिया, ‘आपने बहुत अच्छे अंकों से विज्ञान में स्नातक किया है। मैं नहीं चाहता कि आप पत्रकारिता में खप जाएं। वापस जाइए और अपने पंजाब विश्वविद्यालय के केमिकल इंजीनियरिंग विभाग में दाखिला ले लीजिए। तब मैं पेंट या टायर की फैक्ट्री लगाने में आपकी मदद करूंगा।’
उन्होंने कहा कि वह एक उत्कृष्ट युवा को पत्रकारिता में बरबाद होते नहीं देखना चाहते। वह आपातकाल के चरम का दौर था।उस समय न किसी तरह की आज़ादी थी, न नौकरियां और पूर्ण सेंसरशिप लागू थी। मेरे लगातार अड़े रहने पर उन्होंने मुझे आत्मविनाशक घोषित करते हुए एक दिन एक कवरेज पर भेजा और साथ ही यह भी कह दिया कि मैं उस खबर के छपने के बारे में नहीं सोचूं।
मैं बस पकड़कर जयसिंह मार्ग पर स्थित वाईएमसीए पहुंचा जहां एफएफई के तत्कालीन प्रमुख एम आर पई मुक्त बाजारों भाषण दे रहे थे। वह इंदिरा गांधी के लाइसेंस-कोटा राज और माई-बाप सरकार की बखिया उधेड़ रहे थे। वह छोटी बुकलेट भी वितरित कर रहे थे जिनमें ऐसे मुद्दों पर विस्तार से लिखा गया था। वहां एक रजिस्टर रखा था जिसमें हमें अपना पता लिखना था ताकि ये पुस्तिकाएं हमें मिलती रहें।
भविष्य में राजनीतिक अर्थव्यवस्था और अर्थव्यवस्था को लेकर मेरे विचारों को आकार देने में इस बात की अहम भूमिका है। यह संभव है कि 1991 के आर्थिक सुधारों ने एफएफई को श्रीहीन कर दिया। वैचारिक विजय के साथ उसका उद्देश्य प्रायः: पूरा हो गया। वह संगठन अभी भी बरकरार है और प्रसिद्ध अधिवक्ता एचपी रानिया इसके अध्यक्ष हैं। अब यह पहले जैसा मजबूत बौद्धिक संगठन नहीं है जो देश के सभी इलाकों में युवाओं और उम्रदराज लोगों तक पहुंचे और आयात प्रतिस्थापन, सरकार समर्थित पीएलआई जैसे प्रोत्साहन, अतीत से लागू होने वाले करों, संरक्षणवाद और निजीकरण के खात्मे और राज्य के दखल जैसे विचारों का विरोध करे।
अगर कोई कहता है कि मजबूत सत्ता प्रतिष्ठान के खिलाफ आवाज उठाना जोखिम भरा हो सकता है तो उनको याद दिलाइए कि एडी श्रॉफ ने नेहरू को किस तरह चुनौती दी थी। नेहरू का कहना था कि पूंजीवाद लोकतंत्र और राजनीतिक स्वतंत्रता के लिए बुरा है।
श्रॉफ कहते थे कि नेहरू की शैली का समाजवाद जहरीला है और आर्थिक तथा राजनीतिक स्वतंत्रता साथ-साथ आनी चाहिए। देश का आर्थिक सुधार धार खो चुका है। वह कुछ क्षेत्रों में पिछड़ता जा रहा है और एफएफई जैसे मंच भी नहीं हैं जो ऐसी जरूरत के मौके पर काम आए -1991 में कठिनाई से अर्जित आर्थिक सुधारों की रक्षा के लिए। अब आप समझ सकते हैं कि यह मेरे लिए तीसरा और सबसे परेशान करने वाला मुद्दा क्यों है?