इसमें दो राय नहीं है कि 22 जनवरी की तारीख आगामी दिनों में भारत के राष्ट्रीय कैलेंडर में सबसे महत्त्वपूर्ण तारीखों में से एक होने वाली है। दुनिया के सबसे पुराने धर्म के लिए एक बड़े नए त्योहार का आविष्कार हुआ है और यह नरेंद्र मोदी के लिए एक बड़ी उपलब्धि है। हालांकि कुछ राजनीतिक प्रश्न हैं जिन पर बहस होनी चाहिए।
क्या 22 जनवरी की तारीख यह तय करती है कि हमारे देश में संवैधानिक धर्मनिरपेक्षता की वापसी नहीं होगी? मोदी-शाह की भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने अयोध्या में वैचारिक प्रस्ताव गढ़ दिया है उसका प्रतिवाद संभव है? क्या मोदी को चुनौती देने वालों का कोई भविष्य है?
अगर इन सवालों का जवाब नकार में है तो बेहतर होता कि हम यह बहस नहीं करते। परंतु ऐसा करने की जरूरत नहीं है क्योंकि इसका अर्थ होगा यह मूर्खतापूर्ण अनुमान कि अब भारत में कोई प्रतिस्पर्धी राजनीति नहीं होगी। किसी समाज में राजनीति कभी नहीं रुकती। अगर अयोध्या के राम राज्य में यह नहीं रुकी तो 21वीं सदी के लोकतंत्र में यह नहीं रुकेगी चाहे वह कितनी भी गलत क्यों न नजर आ रही हो।
अयोध्या में हुए आयोजन का सबसे अप्रत्याशित परिणाम यह है कि मोदी सरकार और भाजपा की विचारधारा को चुनौती देने वाले कई लोगों ने हार स्वीकार कर ली है। कई लोगों को डर है कि गणतंत्र अब शेष नहीं है या कम कम वह गणतंत्र अब नहीं रहा जिसमें वे बड़े हुए और जिसे उन लोगों ने बनाया था जिनका वे बहुत सम्मान करते हैं। यह बात आंशिक रूप से सही हो सकती है।
परंतु यह तो लोकतंत्रों की प्रकृति में निहित है कि निर्वाचित नेता अपना चरित्र और दिशा बदल सकते हैं। अगर आप असहमत हों तो इसका अर्थ यह नहीं है कि इसका अंत हो चुका है। यह गणतंत्र इंदिरा गांधी के आपातकाल की अग्निपरीक्षा से भी गुजर चुका है।
हुआ यही कि जिन राजनीतिक ताकतों को उन्होंने 21 महीने तक जेल में बंद रखा उन्होंने गणराज्य को मुक्त कराने की क्षमता दिखाई। अब उनकी संतानें और उत्तराधिकारी इसके कुछ बुनियादी सिद्धांतों को संशोधित करने और पुनर्परिभाषित करने का प्रयास कर रहे हैं। उन्हें चुनौती दी जा सकती है, ठीक वैसे ही जैसे इंदिरा गांधी को 1970 के दशक में दी गई थी।
इसके लिए चुनौती देने वालों के नाराज होने भर से बात नहीं बनेगी। उनको भाजपा की वापसी से सबक लेना चाहिए। यह दिखाता है कि कैसे एक शक्तिशाली राजनीतिक शक्ति का पतन हो सकता है और कैसे एक नई शक्ति का उभार हो सकता है।
आइए देखते हैं कि कैसे भाजपा के लिए आंकड़ों में तब्दीली आई। पार्टी की स्थापना अप्रैल 1980 में हुई थी यानी उसी वर्ष जनवरी में हुए चुनावों में इंदिरा गांधी की सत्ता में वापसी के तुरंत बाद। यह पुराने जन संघ का ही नया नाम था और यह पार्टी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की विचारधारा का प्रतिनिधित्व करती थी।
सन 1984 के लोकसभा चुनाव में पार्टी को दो सीट पर जीत मिली। अगली बार यानी 1989 में पार्टी 85 सीट पर पहुंच गई। 1991 में उसे 120 सीट, 1996 में 161 सीट, 1998 में 182 सीट और 1999 में एक बार फिर 182 सीट पर जीत मिली। अंतिम दो नतीजों के कारण अटल बिहारी वाजपेयी छह वर्ष तक सत्ता में रहे।
उस दौर की उल्लेखनीय बात यह रही कि विचारधारा को लेकर लचीलापन। नई पार्टी के संस्थापकों में यह चतुराई थी कि वे सत्ता के साथ विचारधारा को संतुलित कर सकें। बड़े दार्शनिक मुद्दे जो आपके दिल के करीब हों उनका भी वक्त आएगा। संभव है कि आपकी पीढ़ी नियति के साथ साक्षात्कार न कर सके (नेहरू के समर्थकों से माफी) लेकिन आपके बच्चे ऐसा करेंगे।
आपको कितना धैर्यवान होने की आवश्यकता है यह समझने के लिए भी भाजपा का उदाहरण लेना होगा। सन 1989 में उसे 85 सीट पर जीत मिली थी और वह राष्ट्रीय गठबंधन में हिस्सेदारी मांग सकती थी लेकिन उसने ऐसा नहीं किया। इसके बजाय उसने विश्वनाथ प्रताप सिंह के जनता दल को बाहर से समर्थन दिया। इस दौरान उसने अपने सबसे बड़े वैचारिक शत्रु वाम मोर्चे का साथ दिया।
शत्रु के शत्रु के साथ हाथ मिलाने में कोई शर्म की बात नहीं थी। इसके पीछे एक मकसद था। पहला, कांग्रेस को सत्ता से बाहर रखकर कमजोर करना ताकि तीसरे मोर्चे का अस्थिर गठबंधन भारतीयों को यकीन दिलाए कि उन्हें एक मजबूत राष्ट्रीय दल की आवश्यकता है। जरूरी नहीं कि वह दल कांग्रेस हो क्योंकि अब उनके पास एक विकल्प था। दूसरा, खुद को मंदिर अभियान की तैयारी के लिए समय देना।
भाजपा ने 2004 में एक दशक के लिए सत्ता गंवा दी लेकिन लोक सभा में उसकी संख्या कभी 100 से कम नहीं हुई। छह वर्ष की सत्ता और विश्वसनीय शासन ने एक आधार तैयार कर दिया था। सत्ता से इस वनवास का अंत होने तक उसने नया नेतृत्व तैयार कर लिया था जिसके प्रतीक थे नरेंद्र मोदी।
मोदी का उभार कैसे हुआ और उन्होंने राष्ट्रीय राजनीति में इंदिरा गांधी के समान दर्जा कैसे हासिल कर लिया? वह 1990 के दशक में आरएसएस द्वारा गुजरात में नियुक्त एक अनजाना चेहरा थे। वह वरिष्ठता, किसी विरासती पात्रता या आला कमान के निर्देश पर शीर्ष तक नहीं पहुंचे। उन्होंने भाजपा के भीतर संघर्ष करके तरक्की की।
इस दौरान उन्होंने कई वरिष्ठ नेताओं, पार्टी के पूर्व और वर्तमान अध्यक्षों तथा राष्ट्रीय दिग्गजों को पीछे छोड़ा। पार्टी और उसके नेताओं ने 2004 और 2009 में हारने वाले नेतृत्व को खारिज कर दिया। इसकी तुलना 2014 के बाद के भाजपा के प्रतिद्वंद्वियों से कीजिए।
मजबूत संवैधानिक लोकतांत्रिक देशों में रातोरात क्रांति नहीं होती। सन 1984 में दो सीट से 2014 में बहुमत तक भाजपा को तीन दशक लगे जिसमें उसने कड़ी मेहनत की और त्याग भी किया। पार्टी ने उस समय भी हिम्मत नहीं हारी थी जब उसके अस्तित्व पर संकट आ गया था और इंदिरा गांधी ने 529 सीट के चुनाव में 353 सीट पर जबरदस्त जीत हासिल की थी।
अगर वे कहना चाहते कि यह गणतंत्र का अंत है तो उनका यह कहना मोदी के ताजा आलोचकों की तुलना में कहीं अधिक उचित प्रतीत होता। खासतौर पर यह देखते हुए कि जनवरी 1980 में वे यह सोच सकते थे कि अभी तो देश को आपातकाल से निजात दिलाई थी और मतदाताओं ने इतनी जल्दी नकार दिया। साथ ही अगर भारत के लोग इंदिरा गांधी को माफ करना चाहते थे और उन्हें इतनी जल्दी सत्ता में वापस लाना चाहते थे तो क्या वाकई उन्हें लोकतंत्र की जरूरत भी थी?
गणतंत्र तथा उदारवाद को मृत बताना गुस्से में पराजय स्वीकार करने जैसा है। ऐसा लगता है मानो सन 1970 के दशक की किसी फिल्म में नाराज माता-पिता अपनी संतान से कह रहे हों, ‘तुम मेरे लिए मर चुके हो।’ लोकतांत्रिक राजनीति में हमेशा विचारों और विचारधाराओं का संघर्ष होता है। संवैधानिक गणराज्य मरते नहीं हैं, राजनेता, राजनीतिक दल और विचार मर सकते हैं। मिसाल के तौर पर स्वतंत्र पार्टी का उदारवादी कहां गुम हो गया? सन 1967 के चुनाव में उसे 44 सीट मिली थीं जो इंदिरा गांधी की कांग्रेस के बाद सबसे अधिक थीं। उस चुनाव में जन संघ को 35 सीट मिली थीं।
पराजय की भावना का अगला स्तर इस आशंका में नजर आता है कि मोदी के पास अब इतनी शक्ति है कि वे संविधान को खत्म कर एक नया संविधान तैयार करा सकते हैं तथा भारत को राष्ट्रपति प्रणाली वाले देश में बदलकर खुद को आजीवन राष्ट्रपति घोषित कर सकते हैं, यह आखिरी चुनाव होने वाला है वगैरह।
बहरहाल, वह ऐसा कुछ नहीं करेंगे। वह इसी संविधान, संसद और चुनाव से सारी जरूरी शक्ति हासिल करते हैं। अगर यह व्यवस्था उनके लिए सही काम कर रही है तो वे इसे क्यों बदलेंगे? इसी व्यवस्था, संविधान और राजनीति के दायरे में उनके प्रतिद्वंद्वियों को मोदी को हराने की राजनीतिक, बौद्धिक और नैतिक शक्ति हासिल करनी होगी। मोदी ने इस गणतंत्र को जो दिशा दे दी है, अगर वह उन्हें पसंद नहीं तो उन्हें ही इसे बदलना होगा।