यह पिछले सप्ताह इसी स्तंभ में प्रकाशित आलेख की अगली कड़ी है। उस आलेख में मैंने लिखा था कि पाकिस्तान अब्राहम समझौते जैसे किसी समझौते पर हस्ताक्षर करेगा और भारत के साथ शांति स्थापना से बहुत पहले ही वह इजरायल को मान्यता दे देगा। तब से अब तक काफी कुछ बदल गया है। पाकिस्तान अब वैसी किसी घोषणा के करीब है जिसकी कल्पना पिछले सप्ताह तक शायद ही किसी ने की होगी जब मैंने पिछला आलेख लिखा था।
लगभग किसी पटकथा की तरह डॉनल्ड ट्रंप ने बेंजामिन नेतन्याहू की मौजूदगी में गाजा के लिए 20 बिंदुओं वाले समाधान की घोषणा की और संकेत दिया कि फिलिस्तीन का व्यापक प्रश्न इसमें शामिल किया जा सकता है। कुछ ही घंटों में पाकिस्तान ऐसा पहला इस्लामिक देश बन गया जिसने इसका पूरा समर्थन किया। शहबाज शरीफ की लंबी सोशल मीडिया पोस्ट पर नजर डालिए। यह वैसा ही है जैसे कि कोई छोटा सामंत अपने बादशाह की चापलूसी में लगा हो। इस चापलूसी से बादशाह कितने खुश हुए यह इसी बात से जाहिर है कि उन्होंने फील्ड मार्शल के उन शब्दों को ‘सबसे सुंदर’ बता दिया जिनमें बादशाह को ‘अमन का मसीहा’ कहा गया था।
यहां तक कि भारत ने भी समर्थन के पहले पूरा एक दिन इंतजार किया। शायद वह जानना चाहता था कि क्या नेतन्याहू पूरी तरह इस विचार के साथ हैं। यकीनन उस समय तक पाकिस्तानियों ने भी उसका पूरा पाठ किया और यह भी कहा गया होगा कि यह बयान वह नहीं है जैसा उन्हें बताया गया था। लेकिन वे पीछे नहीं हटे और इस मामूली भ्रम से हमारी इस समझ पर फर्क नहीं पड़ता कि पाकिस्तान कैसे सोचता है?
पाकिस्तान की बात करें तो उसके संविधान या उसकी विचारधारा के मुताबिक तो वह इस्लामिक राष्ट्र है। परंतु यदि यह सही है तो पाकिस्तानियों ने किसी इस्लामिक उद्देश्य के लिए लड़ाई क्यों नहीं लड़ी? उसके पश्चिम में तमाम इस्लामिक देशों को कई खतरों का सामना करना पड़ा। पाकिस्तान उम्मा (मुस्लिम ब्रदरहुड) की बात करता नहीं थकता और अपनी सुविधा से उसका इस्तेमाल करता है। मिसाल के तौर पर वह इस्लामिक सहयोग संगठन में कश्मीर को लेकर ऐसी बातें करता है। परंतु वह इसके लिए कुछ ठोस काम नहीं करता।
ऐसा नहीं है कि उसकी सेनाएं कभी साथी इस्लामिक देशों में लड़ाई के लिए नहीं गईं। परंतु यह कहना गलत होगा कि उन्होंने किसी इस्लामिक उद्देश्य के लिए बलिदान दिया। जॉर्डन में (1970, फिलिस्तीन विद्रोह) और सऊदी अरब (मक्का की घेरेबंदी, 1979) में उसने ऐसा सत्ताधारी शाही परिवारों के बचाव के लिए किया।
अगर आप मुझे यह याद दिलाएं कि योम किप्पुर युद्ध के समय पाकिस्तान ने जॉर्डन में अपनी सेना (खासकर वायु सेना) भेजी थी तो मैं आपको याद दिलाऊंगा कि दोनों देशें के बीच अत्यधिक गहरी और पुरानी सैन्य साझेदारी है जिसकी जड़ें पश्चिमी गठजोड़ में निहित हैं। यह पूरी तरह पारस्परिक मामला था क्योंकि 1971 की जंग में जॉर्डन ने 10 एफ-104 स्टारफाइटर विमान पाकिस्तानी वायु सेना को मजबूत बनाने के लिए दिए थे। इसके जो ब्योरे जॉर्डन की शाही वायु सेना डायरी में दर्ज हैं उन्हें पुष्पिंदर सिंह, रवि रिख्ये और पीटर स्टाइनमैन ने अपनी पुस्तक ‘फिजाया: साइकी ऑफ द पाकिस्तान एयर फोर्स’ में प्रस्तुत किया है।
पहले खाड़ी युद्ध के दौरान पाकिस्तानियों ने अपनी फौज मुस्लिम देश इराक की रक्षा के लिए नहीं बल्कि कुवैत पर इराक के कब्जे के बाद सऊदी अरब को सद्दाम के कोप से बचाने के लिए भेजा था। वे कभी किसी वैचारिक वजह से नहीं लड़ रहे थे। अफगानिस्तान के उदाहरण से हम इसे बेहतर समझ सकते हैं। पहले अफगान जिहाद में पाकिस्तान सोवियत समर्थक सत्ता के खिलाफ गठबंधन में शामिल था और वे कह सकते थे कि मुजाहिदीन का काम इस्लामिक प्रकृति का था। लेकिन वर्ष2001 में 9/11 के हमले के बाद जब अमेरिकी सेनाएं वापस आईं तो क्या हुआ? पाकिस्तानी दोबारा उसके साथ हो गए लेकिन इस बार तालिबान के विरुद्ध।
अब भला उनसे अधिक इस्लामिक कौन हो सकता है? ऐसी तमाम बातें बोली गईं और दर्ज की गईं जो दोनों पक्षों को सताने वाली हैं। इससे भी हमारा तर्क स्थापित होता है। उदाहरण के लिए अमेरिका के बुश प्रशासन के रक्षा मंत्री रॉबर्ट गेट्स ने पाकिस्तान को ‘आतंकवाद के विरुद्ध दिग्गज सहयोगी’ कहा था। यह बात 26/11 के संदर्भ में कही गई थी।
लब्बोलुआब यह कि पाकिस्तान की सेना और रणनीतिक पूंजी हमेशा किराये पर उपलब्ध है। फिर चाहे उसके बदले नकदी मिले, वस्तुएं मिलें (पश्चिम एशिया के अरब देशों से) या फिर सामरिक और आर्थिक लाभ (अमेरिका से)। अफगानिस्तान के दो अमेरिकी युद्धों में पाकिस्तान ने इस्लामिक मुजाहिदीन और तालिबान के विरुद्ध लड़कर अरबों डॉलर की राशि और सैन्य एवं असैन्य सहायता हासिल की।
कुल मिलाकर पाकिस्तान की सेना किराये पर उपलब्ध है और वह किसी भी उदार बोलीकर्ता के लिए काम कर सकती है फिर चाहे वह मुस्लिम हो या ईसाई। आपने कभी नहीं देखा कि पाकिस्तान, ईरान या उसके सहयोगियों जैसे हूतियों की मदद के लिए आगे आया हो, जब उन्हें इजरायल और उसके अमेरिकी सहयोगियों द्वारा कुचला जाता है। इसके अलावा खाड़ी के अरब देश भी, जो कभी-कभी यमन जैसे मामलों में सीधे लड़ते हैं, ज्यादातर ईरान-विरोधी गठबंधनों में मूक भागीदार के रूप में कार्य करते हैं।
पाकिस्तान कभी किसी मुस्लिम की मदद के लिए आगे नहीं आया। चाहे वे फिलिस्तीनी हों या गाजा के निवासी। वह बस कुछ आवाजें उठाता है। अब, वह जिस योजना का इतना अधिक समर्थन कर रहा है, वह नेतन्याहू को प्रसन्न करती है, गाजा को पश्चिमी प्रबंधन के तहत एक बंद कॉलोनी में बदल देती है और दो-राष्ट्र समाधान की अवधारणा को दफन कर देती है। फिलिस्तीन के मुद्दे और यरूशलम को लेकर पाकिस्तान का समर्थन केवल एक दिखावा है। इसमें गंभीरता कम और नाटक अधिक है। पाकिस्तान की सेना कोई इस्लामी सेना नहीं है, और चूंकि सेना ही राज्य की मालिक है, तो यह निष्कर्ष निकलता है कि पाकिस्तान स्वयं भी कोई इस्लामी राज्य नहीं है।
ऐसे में प्रश्न है कि पाकिस्तान क्या है? अगर हम यहां लिखी बातों पर दोबारा नजर डालें तो निष्कर्ष यही निकलेगा कि पाकिस्तान का वैचारिक आधार इस्लाम नहीं है। वह भारत-विरोध या हिंदू-विरोध है। भारत को कमजोर करने के लिए वह हर तरह का समझौता करने को तैयार है। फिर चाहे उसे अपनी सेना किराये पर देनी पड़े, ईरान को छोड़ना पड़े या फिलिस्तीन को और या फिर मुस्लिमों को ही क्यों न मारना पड़े?
पाकिस्तान के नेता इसे समझते हैं। जब तक भारत-विरोध (हिंदू-विरोध) उनके राष्ट्रवाद की पहचान बना रहेगा, तब तक सत्ता पर सेना का नियंत्रण बना रहेगा, चाहे राजनीतिक दलों के पास बहुमत ही क्यों न हो। यही कारण है कि नवाज़ शरीफ और बेनजीर भुट्टो जैसे नेताओं ने भारत के साथ स्थायी शांति की कोशिश की और उन्हें इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ी। यहां तक कि मुशर्रफ़ को भी, जो स्वयं सेना प्रमुख थे, शांति प्रयासों के लिए नहीं बख्शा गया। भारत के साथ स्थायी शांति की कोशिश करने वाले इन सभी नेताओं को सेना ने और अंततः उस विचारधारा से प्रभावित जनमत ने पाकिस्तान की मूल विचारधारा के खिलाफ माना।