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राष्ट्र की बात: चीन-भारत सैन्य परिदृश्य बजट बढ़ाने की जरूरत

भारत ने पिछले दशक में हिमालय की सीमाओं पर जो बुनियादी ढांचा विकास किया है अब वह फलीभूत होता नजर आ रहा है।

Last Updated- November 03, 2024 | 11:49 PM IST
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हम अपनी सेना के बारे में बहुत बातें करते हैं लेकिन उस पर उतना खर्च नहीं करते हैं जितना करने की आवश्यकता है।

भारत और चीन द्वारा वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) से अपनी-अपनी सेना हटाना हमारे राष्ट्रीय संकल्प की दावेदारी की दिशा में एक अहम कदम है। यह याद दिलाता है कि भारत और चीन के बीच सैन्य क्षमता का अंतर न केवल बहुत अधिक हो चुका है बल्कि इसमें लगातार इजाफा होता जा रहा है।

पहले बात करते हैं सकारात्मक परिणाम की। भारतीय सैनिकों को इस बात का श्रेय दिया जाना चाहिए कि वे इन ऊंचाइयों पर चीन की आंखों में आंखे डालकर डटे रहे।

भारत ने पिछले दशक में हिमालय की सीमाओं पर जो बुनियादी ढांचा विकास किया है अब वह फलीभूत होता नजर आ रहा है। कोई और ऐसा तरीका नहीं है जिससे भारत इन अतिरिक्त बलों को तेजी से लाने ले जाने का काम कर पाता। इन्हीं की बदौलत हम इतनी तीव्रता से अपनी समूची स्ट्राइक कोर को हथियारों और मशीनों तथा गोला-बारूद के साथ तैनात कर सके। 14,000 से 17,000 फुट की ऊंचाई पर सैनिकों की निरंतर तैनाती और रखरखाव बताता है कि हमारी सरकार, सेना, इंजीनियरों और ठेकेदारों ने कितना शानदार काम किया है।

परंतु तमाम उत्साह के बीच हमें यह तैयारी रखनी चाहिए कि चीन अगले तीन-चार साल में एक बार फिर गतिरोध की स्थिति निर्मित कर सकता है। वर्ष 2013 से लगातार ऐसा ही हो रहा है। इसे चीन में शी चिनफिंग के उभार से जोड़कर भी देखा जा सकता है।

उन्होंने इस प्रतिबद्धता के साथ सत्ता संभाली थी कि वह 1993 के बाद विभिन्न समझौतों के तहत एलएसी पर बनी शांति और स्थिरता की यथास्थिति को भंग कर देंगे। उन्हें ऐसा करने का यकीन इसलिए भी था कि भारत और चीन की क्षमताओं का अंतर बहुत अधिक बढ़ गया था। वर्ष 2013 में देपसांग, 2016 में डेमचोक और 2017 में डोकलाम में गतिरोध हुआ।

वर्ष 2020 में पूर्वी लद्दाख में चीन ने हरकत की जिसके बारे में कम से कम मेरा मानना है कि उसने ऐसा जम्मू कश्मीर का संवैधानिक दर्जा बदले जाने, लद्दाख को केंद्रशासित प्रदेश बनाने और अक्साई चिन को वापस लेने संबंधी बयान की प्रतिक्रिया में किया।

शी चिनफिंग ने भारत द्वारा तेजी से अधोसंरचना निर्माण और सैन्य तैनाती से संदेश ग्रहण किया और बड़े पैमाने पर चीनी सैनिकों की तैनाती करके दोनों देशों की सैन्य क्षमताओं का अंतर प्रदर्शित करने का प्रयास किया। वह बताना चाहते थे कि भारत को अपनी जमीन की रक्षा करने की भारी कीमत चुकानी होगी। भारत अपनी जमीन बचाने में कामयाब रहा लेकिन इसकी भारी वित्तीय कीमत चुकानी पड़ी।

इसके अलावा स्ट्राइक कोर समेत सेना को दो मोर्चों पर तैनात करना काफी खर्चीला होता है। पश्चिमी हिमालय मोर्चे पर सक्रियता की बदौलत पाकिस्तान के मैदानी इलाकों में दूर तक हमला करने के लिए प्रशिक्षित स्ट्राइक कोर को इन ऊंचाइयों पर तैनात किया गया। एक अन्य टुकड़ी को जम्मू-पुंछ और राजौरी क्षेत्र की उपद्रवियों से निपटने की भूमिका से हटाकर वहां भेजा गया जिसका फायदा पाकिस्तानी घुसपैठियों ने उठाया। इसके चलते एक बार फिर पाकिस्तान के मोर्चे पर एक टुकड़ी तैनात की गई।

उत्तराखंड वाली सीमा पर चीन से निपटने के लिए एक नई कोर बरेली में तैयार हो रही है, उसकी मदद के लिए एक टुकड़ी को सेंट्रल सेक्टर में तैनात किया गया। दो मोर्चों पर जूझ रही भारतीय सेना में यह बड़ा बदलाव है। पाकिस्तान यह सब देख रहा है। दूसरी ओर चीन का कोई सक्रिय मोर्चा नहीं है। उसके पास यह सुविधा है कि वह अपनी अधिकांश सेना को रणनीतिक रूप से सुरक्षित रखे।

अगर बीते दशक में हमें चीन के साथ तीन-साढ़े तीन बड़े गतिरोधों का सामना करना पड़ा तो हमें इस मुगालते में नहीं रहना चाहिए कि अगले तीन-चार सालों में ऐसा नहीं होगा। यह सवाल जरूर रहेगा कि ऐसा कहां होगा? क्योंकि चीन 3,500 किलोमीटर से अधिक लंबी सीमा पर कहीं भी ऐसा कर सकता है। इससे भारत का संतुलन बिगड़ेगा और पाकिस्तान पर से ध्यान हटेगा। वह पहले ही कश्मीर में गतिविधियां बढ़ाने का हौसला दिखा रहा है।

चीन ने भारत को यह जताकर उसका हित ही किया है कि सैन्य व्यय और आधुनिकीकरण को लेकर उसका रुख अब नहीं चलने वाला है। जब नरेंद्र मोदी की पहली सरकार सत्ता में आई तब रक्षा व्यय बढ़ाने का वादा किया गया था।आरोप लगाया गया था कि संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग) की पिछली सरकार ऐसा नहीं कर रही थी।

आंकड़े बताते हैं कि राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) की पहली सरकार में यह वादा निभाया गया। रक्षा व्यय बजट और सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के प्रतिशत दोनों में यह बढ़ा। 2013 में राष्ट्रीय बजट में रक्षा क्षेत्र 16 फीसदी का हिस्सेदार था, मोदी के समय यानी 2016-17 में यह 18 फीसदी हो गया। यह व्यय में अहम इजाफा था। हालांकि इसके बाद इसमें कमी आने लगी और अब यह केवल 13 फीसदी रह गया है।

मोदी सरकार से यह उम्मीद नहीं की गई थी। यह तब है जब एक पेंशन, एक रैंक लागू हो चुकी है और पेंशन व्यय बढ़ गया है। अग्निपथ योजना का पेंशन पर असर दिखने में कम से कम 15 साल लगेंगे। इनमें से अधिकांश आंकड़े पीआरएस लेजिस्लेटिव रिसर्च से लिए गए हैं।

ऐसा प्रतीत होता है कि कार्यकाल के तीसरे वर्ष तक मोदी इस नतीजे पर पहुंचे कि वास्तविक युद्ध की संभावना असंभव तो नहीं लेकिन बहुत कम है। ऐसे में रक्षा क्षेत्र में अधिक संसाधन लगाने के बजाय उन्हें कल्याण योजनाओं में लगाना चाहिए। यह चुनाव में कारगर साबित हुआ और राष्ट्रीय सुरक्षा का मसला 2019 के पुलवामा-बालाकोट की तरह जरूरत के मुताबिक भावनात्मक उबाल का विषय बना रहा। इसके लिए छोटी-मोटी झड़प ही काफी है। उसके बाद साल दर साल रक्षा बजट में गिरावट का सिलसिला चलता रहा और आज के स्तर पर आ गया।

मैक्रोट्रेंड्स डॉट नेट के मुताबिक यह शायद 1960 के बाद का सबसे निचला स्तर है। इस वर्ष रक्षा बजट जीडीपी के 1.9 फीसदी के बराबर है। शी चिनफिंग का दिया झटका शायद हमारी आश्वस्ति को तोड़ेगा। हम सेना के बारे में बातें बहुत करते हैं लेकिन उसके लिए जरूरी धन नहीं मुहैया कराते हैं। हम यह नहीं कह रहे कि रक्षा बजट को दोगुना किया जाए या राजीव गांधी के कार्यकाल की तरह जीडीपी के 4.23 फीसदी (1987) के उच्चतम स्तर तक पहुंचा दिया जाए।

परंतु मौजूदा गिरावट का सिलसिला बदलना चाहिए। अगर भारत अगले वर्ष रक्षा बजट में जीडीपी के 0.2 फीसदी तक का इजाफा करना चाहे तो क्या होगा? जेएनयू के राष्ट्रीय सुरक्षा अध्ययन केंद्र के एसोसिएट प्रोफेसर लक्ष्मण बेहेरा के अनुसार सात फीसदी की अनुमानित जीडीपी वृद्धि के साथ अगर रक्षा व्यय जीडीपी के 1.9 फीसदी रखा जाए तो रक्षा बलों को 43,000 करोड़ रुपये की अतिरिक्त राशि मिलेगी।

इसका बड़ा हिस्सा वेतन में चला जाएगा और आधुनिकीकरण तथा सैन्य खरीद के लिए बहुत कम राशि बचेगी। इसमें 0.2 फीसदी का इजाफा करके इसे 2.1 फीसदी करने भर से हम 1.22 लाख करोड़ रुपये की अतिरिक्त राशि जुटा सकेंगे। चूंकि रक्षा नियोजना चरणबद्ध नहीं हो सकता है इसलिए यह स्पष्ट घोषित किया जाना चाहिए कि इसके जीडीपी के 2.5 फीसदी के स्तर तक पहुंचने तक इसमें सालाना 0.1 फीसदी का इजाफा किया जाएगा।

यह अतिरिक्त राशि रक्षा खरीद और आधुनिकीकरण में लगनी चाहिए। इससे लड़ाकू विमान और पनडुब्बियां, मिसाइल और तोप आदि खरीदी जानी चाहिए। साइबर और ड्रोन युद्ध क्षमताओं में भी इजाफा करने की जरूरत है। यह 2017 से अब तक के रुझान में अहम बदलाव होगा।

सरकार का यह सोचना सही हो सकता है कि शायद संपूर्ण युद्ध देखने को नहीं मिले लेकिन अगर आपके कदम आपके विचारों को आपके शत्रु तक संप्रेषित कर रहे हैं (इस मामले में घटता रक्षा व्यय) तो वे इसका फायदा उठा सकते हैं। शांति की गारंटी तभी है जब युद्ध की पूरी तैयारी हो तथा कुछ अहम क्षेत्रों में शत्रु पर बढ़त हासिल हो। अगर ऐसा नहीं किया गया तो चीन और पाकिस्तान दोनों को बढ़ावा मिलेगा और वे कुछ न कुछ हरकतें कर सकते हैं।

भारत खुद को यूं संकट में नहीं छोड़ सकता। रक्षा बजट को धीरे-धीरे बढ़ाकर अगले चार साल में जीडीपी के 2.5 फीसदी तक करना जरूरी है और हम ऐसा कर सकते हैं।

(अगले सप्ताह जानेंगे कि कैसे कुछ अतिरिक्त संसाधन जुटाए जा सकते हैं और किन क्षेत्रों में श्रेष्ठता हासिल की जा सकती है।)

First Published - November 3, 2024 | 11:49 PM IST

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