इस स्तंभ में दो महत्त्वपूर्ण तथ्यों की चर्चा करते हैं। वर्ष 1993 में निजी म्युचुअल फंड कंपनियां स्थापित करने की अनुमति दी गई थी। पिछले 21 वर्षों के दौरान 2014 तक इन कंपनियों का शेयरों में कुल निवेश बढ़कर 2 लाख करोड़ रुपये हो गया। यह निवेश इक्विटी फंड, बैलेंस्ड फंड और इक्विटी लिंक्ड सेविंग स्कीम में हुए थे।
वर्तमान गति से मार्च 2024 तक म्युचुअल फंड कंपनियों का शेयरों में निवेश 24 लाख करोड़ रुपये के भारी भरकम स्तर तक पहुंच सकता है। इसका सीधा मतलब है कि पिछले एक दशक की तुलना में 12 गुना इजाफा होगा। यह भारत के लोगों की बचत के शेयर बाजार में निवेश को संस्थागत रूप देने की कहानी है।
अब एक दूसरे तथ्य पर विचार करते हैं। वर्ष 1996 में अनिवार्य रूप से शेयर डीमैट रूप में रखने की शुरुआत हुई थी। इसके 24 वर्षों के दौरान डीमैट खातों की संख्या बढ़कर चार करोड़ हो गई। इसके बाद महज साढ़े तीन वर्षों के दौरान यह आंकड़ा 3.25 गुना बढ़कर 13 करोड़ हो गया।
इसका मतलब हुआ कि पिछले तीन वर्षों से कुछ अधिक समय के दौरान बाजार में नौ करोड़ नए निवेशक उतर गए। यह बढ़ोतरी 24 वर्षों के दौरान बने डीमैट खाताधारकों की तुलना में 2.5 गुना है। यह भारतीय शेयर बाजार में खुदरा बचत के सीधे प्रवेश की कहानी है।
अब प्रश्न उठता है कि ये दोनों तथ्य क्या कह रहे हैं। यह भारी भरकम बढ़ोतरी मार्च विशेष चार वर्षों के दौरान हुई है। अगर व्लादीमिर लेनिन के शब्दों में कहे तो कभी-कभी दशकों बीत जाते हैं जब कुछ खास नहीं होता है मगर ऐसा समय भी आता है जब कुछ ही हफ्तों में कई बड़ी घटनाएं हो जाती हैं।
इससे साबित होता है कि भारतीय बाजार में अब विदेशी निवेशकों का दबदबा कम हो गया है और स्थानीय संस्थान और खुदरा निवेशकों की भागीदारी पहले नहीं की तुलना में कई गुना बढ़ गई है। इसका एक फायदा यह हुआ है कि भारतीय बाजार वैश्विक स्तर पर होने वाले उथल पुथल से अब तुलनात्मक रूप से अधिक सुरक्षित हो गए हैं। यह बात इसलिए कहीं जा रही है कि कई ऐसे कारण रहे हैं जिनसे वैश्विक निवेशकों के उत्साह पर प्रभाव पड़ता है और उसका सीधा असर भारत में उनके निवेश पर भी होता है।
अगर उदाहरण की बात करें तो अमेरिका में ब्याज दरों में बढ़ोतरी का सिलसिला जब शुरू हुआ तो उस दौरान विदेशी निवेशकों ने भारतीय शेयरों से अपने निवेश निकलने शुरू कर दिए मगर इससे भारतीय बाजार पर कोई असर नहीं पड़ा क्योंकि स्थानीय निवेशकों ने मोर्चा संभाले रखा।
हालांकि अब जब भारतीय बाजार लगातार नहीं ऊंचाइयां छू रहे हैं उत्साह का एक माहौल सभी पर हावी हो गया है। ऐसी परिस्थितियां पहले भी आई हैं जब विदेशी निवेशकों पर ऐसी धारणा हावी हुई है।
विदेशी संस्थागत निवेशकों (एफआईआई) को 1992 में भारत में आने या दूसरे शब्दों में कहें तो निवेश करने की अनुमति दी गई दी थी। तब से लेकर तक उन्होंने भारतीय शेयर बाजार की दशा दिशा तय की है। 1980 के दशक के अंत से भारतीय कंपनियों का एक मुख्य उद्देश्य परिसंपत्ति वृद्धि के लिए आर्थिक संसाधन जुटाना था।
कारोबार में विविधता, सार्वजनिक निर्गम, टर्म लोन और विशेष पूंजी की आवश्यकता वाली योजनाएं काफी चर्चा में थे। जहां तक निवेशकों की बात है तो उनके लिए निवेश के आधार परिसंपत्ति वृद्धि और पुराने रिकॉर्ड थे। शेयरों पर शोध नहीं होते थे। तब काफी कम लोग निवेशित पूंजी पर प्रतिफल या शुद्ध हैसियत पर प्रतिफल या फिर मुक्त नकदी प्रभाव जैसे या शब्द समझते थे। भेदिया कारोबार और कीमतों में धांधली खूब होते थे। 1990 की शुरुआत तक यूनिट ट्रस्ट ऑफ इंडिया, सरकारी बीमा कंपनियों और विकास वित्त संस्थान संस्थागत निवेशक हुआ करते थे।
एफआईआई ने दो तरीकों से भारतीय बाजार में उतरना शुरू किया। पहले तरीके के तौर पर उन्होंने स्टॉक एक्सचेंजों पर सीधे शेयर खरीदने शुरू किए जिसका सिलसिला 1993 में शुरू हुआ और इसने 1994 में विशाल रूप ले लिया। दूसरी तरीके के रूप में विदेशी निवेशकों ने भारतीय कंपनियों द्वारा विदेश में वैश्विक डिपॉजिटरी रिसीट के माध्यमों से जारी निर्गमों में निवेश किए।
वर्ष 1994 तक तेजी से उभरते बाजार आकर्षण के केंद्र में आ गए और भारत को एशिया की अगली शक्ति के रूप में देखा जाने लगा। वर्ष 1994 में हमारे घर सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि दर 7.4 प्रतिशत के स्तर पर पहुंच गई थी। तब तक एक नियामक की स्थापना भी हो चुकी थी और पूरे देश में इलेक्ट्रॉनिक एक्सचेंज भी स्थापित किया जा चुके थे।
कारोबारी प्रतिष्ठान बड़े सपने देख रहे थे और पूंजी प्रदाता भी उन पर दांव लगाने के लिए पूरी तरह तैयार थे। वर्ष 1994 में जब बाजार नई ऊंचाई पर पहुंचा तब ओपनहाइमर फंड ने आसानी से 55 करोड डॉलर जुटाए। मगर मार्च 1994 में बाजार ने जो स्टार छुआ वह अगले पांच वर्षों तक पार नहीं किया जा सका। हां, सितंबर में कुछ समय के लिए तेजी जरूर दिखी थी।
विदेशी निवेशकों ने हमारी आपकी तरह ही विदेशी निवेश भारी निवेश किए। उन्होंने 1999- 2000 के डॉटकॉम संकट में भी वही गलती दोहराई और 2008 के वित्तीय संकट से पहले भी वही किया। मैं यह बिल्कुल यह तर्क नहीं दे रहा कि बाजार लुढ़कने वाला है या लंबे समय तक इसमें गिरावट जारी रहने वाली है। वास्तव में मैं दो कारणों से काफी उत्साहित हूं। पहली बात, सरकार की तौर से होने वाला भारी भरकम निवेश वेलकम और दूसरी बात भारतीय उपभोक्ताओं की मजबूती है।
मगर यह भी सच है कि बाजार बुनियादी बातों की अवहेलना कर आगे निकल चुका है। यह बुनियादी बातें ऐसी हैं जो संस्थागत निवेशकों को भी प्रभावित करती हैं। ये बातें लालच, अल्प अवधि लाभ कमाने की लालसा, भेड़ चाल वाली मानसिकता और एक अलग रुझान यानी अतार्किक रूप से मुनाफा कमाने से जुड़ी हैं।
सिटीबैंक के पूर्व मुख्य कार्याधिकारी के शब्दों में कहें तो जब ठीक चल रहा होता है तब कोई परवाह नहीं करता मगर हालत खराब होने पर चीज़ें काफी पेचीदा हो जाएंगी। अगर आप यह मानते हैं कि भारतीय म्युचुअल फंड वैश्विक म्युचुअल फंड की तुलना में अलग हैं तो आप गलत हो सकते हैं। विदेशी म्युचुअल फंड कंपनियां बाजार में भारी तेजी के समय तीन बार नुकसान झेल चुकी हैं।
इतना ही नहीं, इस समय कई नए निवेशक हैं जिन्हें यह नहीं पता कि बाजार में अचानक आने वाली उठापटक से कैसे निपटा जाए। यह बात तो सभी जानते कि बाजार में समय-समय पर उठापटक होती रहती है। हमारी बाजार संरचना अब बिल्कुल नया रूप ले चुकी है । भारतीय निवेशक प्रभावशाली जरूर हो गए हैं मगर क्या हुए पूर्व में विदेशी निवेशकों के व्यवहारों से अलग मानदंड स्थापित कर पाएंगे?