भारत और दुनिया में स्टार्टअप की तेज होड़ के बीच सफलता हासिल करने और अस्तित्व बनाए रखने के लिए कारोबारी हुनर के साथ मूल्यों को संजोना भी बेहद जरूरी है। समझा रहे हैं अजित बालकृष्णन
एक दिन तड़के मेरे पास एक फोन आया। दूसरी ओर से जानी-पहचानी आवाज में किसी ने कहा, ‘मुझे लगता है मेरे भाई ने खुदकुशी कर ली।’
‘हे भगवान, क्या हुआ?’ मैंने पूछा।
‘उसने हमारा पुश्तैनी घर गिरवी रखकर बैंक से अपने स्टार्टअप के लिए कर्ज लिया था, जिसे बाद में वह चुका नहीं पाया। इसलिए बैंक ने घर पर कब्जा कर लिया और हमारे दादा-दादी समेत सभी घर वालों को घर खाली करने को कह दिया। उनके पास सिर छिपाने के लिए कोई जगह भी नहीं है! मुझे लगता है इसी वजह से उसने कुछ गोलियां निगल लीं और अब वह जग ही नहीं रहा है।’
मैं एकदम स्तब्ध और अवाक रह गया। अच्छा हुआ कि मेरे मित्र ने फोन काट दिया और मैं गहरी सोच में डूब गया। इस जमाने के ज्यादातर लोगों की तरह मुझे भी लगता है कि स्टार्टअप सारी आधुनिक आर्थिक चुनौतियों का इलाज हैं। इनसे हमें ढेर अपेक्षाएं हैं। मसलन इन्हें अच्छा रोजगार तैयार करना चाहिए, अर्थव्यवस्था का विकास करना चाहिए, हमारी अर्थव्यवस्था को विदेशी टेक दिग्गजों से बचाना चाहिए।
सरकार भी उतने ही जोश के साथ इसमें शामिल है: उसके स्टार्टअप इंडिया मिशन के तहत 2022-23 में करीब 23,000 इकाइयों ने पंजीकरण कराया और आंकड़ों से संकेत मिलता है कि इस साल और भी अधिक इकाइयों का पंजीकरण होगा। इसके अलावा लगभग हर आईआईटी (भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान) और आईआईएम (भारतीय प्रबंध संस्थान) तथा ऐसे ही अन्य शैक्षणिक संस्थानों ने भी अपने-अपने स्टार्टअप केंद्र स्थापित किए हैं। हम भारतीयों को मानो स्टार्टअप का बुखार चढ़ गया है।
मगर मुझे यह सोचकर रात भर नींद नहीं आती है कि स्टार्टअप पर ऐसे जश्न और शोरशराबे के बीच हमें नीति निर्माण के स्तर पर स्टार्टअप की प्रक्रिया में बहुत गहराई तक जाने की जरूरत है। ऐसा नहीं है कि हर स्टार्टअप कामयाब ही होगा और अपने संस्थापकों और निवेशकों को अमीर बना देगा।
अमेरिका तथा भारत के आंकड़े बताते हैं कि 10 में से 9 स्टार्टअप अपनी मंजिल तक नहीं पहुंच पाते। केवल 10 फीसदी स्टार्टअप ही बचते हैं और फल-फूल पाते हैं। आगे का विश्लेषण दिखाता है कि 20 फीसदी स्टार्टअप एक साल बाद ही नाकाम हो जाते हैं, अगले 30 फीसदी स्टार्टअप दो साल के भीतर बंद हो जाते हैं। उससे आगे बढ़ें तो 20 फीसदी स्टार्टअप पांच साल के भीतर बंद हो जाते हैं और 20 फीसदी का बोरिया-बिस्तर 10 साल में बंध जाता है।
इस तरह 10 फीसदी स्टार्टअप ही आर्थिक मायनों में सफल हो पाते हैं। इसका मतलब है कि स्टार्टअप में नाकामी को स्वीकार करना सीखना भी उतना ही जरूरी है, जिसका उसकी कामयाबी का जश्न मनाना सीखना। ऐसा नहीं किया जाए तो स्टार्टअप संस्थापक और उसके परिवार को वैसी ही त्रासदी झेलनी पड़ सकती है, जैसी मेरे मित्र के भाई के कारण हुई।
नाकामी से निपटने के तरीकों पर बात करने से पहले हम नाकामी की वजहों की पड़ताल कर लेते हैं। आंकड़े बताते हैं कि स्टार्टअप की नाकामी की सबसे अहम वजह है उसके बनाए उत्पाद या सेवा का बाजार को लुभाने में असफल रहना यानी उत्पाद बाजार के माफिक नहीं बन पाता।
दूसरी सबसे बड़ी वजह है स्टार्टअप को शुरुआत में मिली पूंजी बहुत जल्दी इस्तेमाल हो जाना। तीसरी सबसे महत्वपूर्ण वजह है सही लोगों को नौकरी पर नहीं रख पाना। ध्यान रहे कि दोस्तों या रिश्तेदारों का जमावड़ा इकट्ठा कर लेने से बात नहीं बनती। संस्थापकों के पास एक-दूसरो को सहारा देने वाले कौशल होने चाहिए। मसलन एक संस्थापक तकनीक का जानकार है तो दूसरे को मार्केटिंग का विशेषज्ञ होना चाहिए।
नाकामी की आखिरी वजह कोई ऐसी घटना होती है, जिस पर हमारा वश नहीं चलता मगर जिसका हमारे कारोबार या कामकाज पर बहुत असर पड़ता है। उदारहण के लिए रुपये में अचानक गिरावट आ जाना या आपके लिए जरूरी वस्तु के आयात पर अचानक बहुत अधिक शुल्क लग जाना।
इसी तरह वर्ल्ड वाइड वेब (डब्ल्यूडब्ल्यूडब्ल्यू) किसी ऐसे पड़ाव पर पहुंच सकता है, जहां उसका बुनियादी ढांचा ही अचानक बदल जाए। अगर वर्तमान स्टार्टअप या पहले से जम चुके स्टार्टअप ऐसे बदलावों को पहले से नहीं भांप पाते हैं तो उनके सामने गंभीर संकट आ सकता है।
यह बदलाव किस तरह का हो सकता है, इसे पूरी तरह समझने के लिए हमें टिम बर्नर्स ली की बात सुननी होगी। विकीपीडिया पर लिखे परिचय को जस
का तस लिखें तो टिम बर्नर्स ली ‘इंगलैंड के कंप्यूटर वैज्ञानिक हैं, जो डब्ल्यूडब्ल्यूडब्ल्यू, एचटीएमएल मार्कअप लैंग्वेज, यूआरएल सिस्टम और एचटीटीपी के आविष्कार के लिए सबसे ज्यादा मशहूर हैं।’ यह पढ़ते हुए आप ध्यान देंगे कि कंप्यूटर विज्ञान का जिक्र किए बगैर ही इन संक्षिप्त नामों ने वह सब स्पष्ट कर दिया जो वर्ल्ड वाइड वेब बनाने के लिए जरूरी है और जिसे हम सब प्यार करते हैं तथा मानते हैं कि उसी ने आधुनिक दुनिया बनाई है।
परंतु अब दम साधकर सुनिए कि हमारी यह आधुनिक दुनिया गढ़ने वाला विद्वान व्यक्ति आज के वेब के बारे में क्या कहता है (सारे बयान उनकी वेबसाइट से लिए गए हैं)। वह कहते हैं कि आज का वेब जानबूझकर सरकार के इशारे पर हैंकिंग तथा हमलों, आपराधिक व्यवहार, ऑनलाइन प्रताड़ना जैसे गलत इरादों से बनाया गया है। इसे कुछ इस तरह तैयार किया गया है कि इस्तेमाल करने वाले की कोई अहमियत ही नहीं रह जाती।
विज्ञापन से कमाई का मॉडल इसका उदाहरण है, जिसमें लोगों को कीबोर्ड क्लिक करने के लिए आकर्षित करने वाली सामग्री (क्लिकबेट) और गलत सूचना के प्रसार से व्यावसायिक लाभ होता है। इसकी वजह से ऑनलाइन चर्चा का स्तर गिरा है और ध्रुवीकरण बढ़ता जा रहा है।
वेब के संस्थापक अपने जादुई अविष्कार के इस हश्र पर निराशा और नाराजगी जाहिर करने के लिए इससे कड़वा और क्या कह सकते थे। उनकी राय में कंपनियों को सुनिश्चित करना चाहिए कि जल्दी मुनाफा हासिल करने की उनकी दौड़ से मानवाधिकारों, लोकतंत्र, वैज्ञानिक तथ्यों और जन सुरक्षा की बलि न चढ़ जाए।
क्या ऐसा हो सकता है कि टिम बर्नर्स ली की बातों को ध्यान से सुनने वाले स्टार्टअप ही कल की दुनिया में फलें-फूलें? क्या आज की लीक पर चल रहे बाकी सभी का वैसा ही त्रासद अंत होगा, जिससे इस आलेख की शुरुआत हुई थी? इसका मतलब है कि जो स्टार्टअप विकेंद्रीकृत मॉडल पर चलते हैं और जिनके यहां यूजर्स का अपनी जानकारी पर अधिक नियंत्रण होता है, उनके लिए विकेंद्रीकृत संगठनों तथा विश्वसनीय पहचान प्रबंधन पर जोर देना ही सफलता की कुंजी है। ब्लॉकचेन, स्मार्ट कॉन्टैक्ट्स और विकेंद्रीकृत ऐप्स ही शायद कल सफलता के आसमान पर चमकेंगे।