वैज्ञानिक और तकनीकी क्षमताओं में अग्रणी देशों की बात करें तो आम तौर पर सऊदी अरब का ध्यान नहीं आता। उसकी छवि अब भी अर्द्ध सामंती, रूढ़िवादी समाज की ही बनी हुई है, जहां वंशवादी राजशाही का शासन है। लेकिन हकीकत काफी अलग है। वली अहद यानी क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान के प्रधानमंत्री बनने के बाद से पिछले सात साल में वहां अभूतपूर्व आर्थिक और सामाजिक बदलाव हुआ है, जिसने 3.4 करोड़ आबादी वाले देश को आधुनिक, तकनीकी रूप से उन्नत और उच्च आय वाले देशों में ला खड़ा किया है।
यह खाड़ी क्षेत्र में ही नहीं पूरी दुनिया में सबसे साक्षर देशों में से एक है। इसकी 98 फीसदी आबादी साक्षर है और 96 फीसदी महिलाएं भी साक्षर हैं। देश की 90 फीसदी से अधिक आबादी शहरों में रहती है और कामकाजी आबादी में महिलाओं की भागीदारी 36 फीसदी है, जो भारत से भी अधिक है। देश की अर्थव्यवस्था 1 लाख करोड़ डॉलर की है और प्रति व्यक्ति आय 21,000 डॉलर है।
यह सही है कि सऊदी अरब की समृद्धि में तेल भंडारों और तेल उत्पादन का बड़ा योगदान है लेकिन मोहम्मद बिन सलमान ने 2030 के लिए एक विजन पर काम शुरू किया है, जिसमें तेल को छोड़कर बाकी अर्थव्यवस्था भी तेजी से बढ़ेगी। साथ ही आधुनिक विनिर्माण, नवीकरणीय और स्वच्छ ऊर्जा, पर्यटन तथा वित्तीय सेवाओं को प्राथमिकता दी जाएगी।
दुनिया का पांचवां सबसे बड़ा सरकारी यानी सॉवरिन वेल्थ फंड सऊदी अरब में ही है, जो 900 अरब डॉलर से अधिक की संपत्तियां संभालता है। इस भारी भरकम पूंजी से न केवल विजन 2030 के तहत महत्त्वाकांक्षी परियोजनाओं को धन मिल रहा है बल्कि भारत समेत दूसरे देशों की परिसंपत्तियों में निवेश भी किया जा रहा है। तेल को निकाल दें तो बाकी सऊदी अर्थव्यवस्था इसके सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में 50 फीसदी से अधिक हिस्सेदारी हासिल कर चुकी है।
ध्यान देने वाली बात यह भी है कि सऊदी अरब ने आर्थिक और सामाजिक बदलाव लाने के लिए उन्नत विज्ञान तथा तकनीक के विकास और इस्तेमाल पर भरपूर जोर दिया है। उसने मानव संसाधन में जमकर निवेश किया और उच्च कौशल वाली तथा तकनीक में माहिर श्रम बल तैयार किया, जिसमें महिलाओं की भी अच्छी-खासी तादाद है।
कुछ ही साल के भीतर यह इंटरनैशनल टेलीकम्युनिकेशन यूनियन के अंतरराष्ट्रीय साइबर सुरक्षा सूचकांक में अमेरिका के बाद दूसरे स्थान पर आ गया है। इसकी नैशनल साइबर सिक्योरिटी अथॉरिटी का दुनिया भर में अच्छा रुतबा है। इसकी राजधानी रियाद में हर साल ग्लोबल साइबरसिक्योरिटी फोरम (जीसीएफ) और ग्लोबल आर्टिफिशल इंटेलिजेंस समिट का आयोजन होता है।
इस साल 2 और 3 अक्टूबर को मैंने चौथे जीसीएफ में हिस्सा लिया। मैं इसमें तीसरी बार गया था। मैं इससे पहले दो बार वहां हुए अनुभवों के बारे में इस समाचार पत्र में लिख चुका हूं। पिछले दो साल में मैंने खुद देखा है कि सऊदी अरब ने उन्नत तकनीकों के विकास और इस्तेमाल में कितनी उल्लेखनीय प्रगति की है।
इस वर्ष के जीसीएफ का विषय था ‘एडवांसिंग कलेक्टिव एक्शन इन साइबर स्पेस।’ फोरम इस बात पर सहमत था कि पूरी दुनिया के लिए एक ही साइबरस्पेस है, जो राष्ट्रीय या क्षेत्रीय सीमाओं से परे है। इसे सुरक्षित बनाने के लिए पूरी दुनिया को एकजुट होकर काम करना होगा, जो आज के ध्रुवीकृत भूराजनीतिक माहौल में थोड़ा मुश्किल है। गाजा में साल भर से चल रही जंग के कारण सऊदी अरब में भी तनाव का माहौल है क्योंकि लेबनान समेत पूरे क्षेत्र पर जंग की चपेट में आने का खतरा मंडरा रहा है। स्थिति इस बात से और भी जटिल हो जाती है कि साइबर क्षमताओं और आर्टिफिशल इंटेलिजेंस (एआई) का विकास तथा प्रयोग मुट्ठी भर ताकतवर बहुराष्ट्रीय तकनीकी कंपनियां ही कर रही हैं।
कंपनियां अक्सर होड़ और मुनाफे के लिए काम करती हैं। ऐसे में उन पर सरकारों के कायदे लागू करना हमेशा दिक्कत भरा होता है। साइबर तकनीक और एआई अभूतपूर्व तेजी से विकसित हो रही हैं। सरकारें उनके इस्तेमाल के कायदे तय करने की जुगत में ही लगी रहती हैं। इस क्षेत्र की कंपनियां नियमन के प्रयासों से यह कहकर बचती रहती हैं कि ऐसी कोशिशों को नवाचार में रुकावट नहीं बनना चाहिए। एआई के चैटजीपीटी जैसे उत्पादों को बाजार में उतारने से पहले यह सुनिश्चित नहीं किया गया कि उनका दुरुपयोग न हो। अमेरिकी नैशनल साइबर सिक्योरिटी के निदेशक रह चुके क्रिस इंग्लिस ने फोरम में अपनी बात रखते समय इस पर बहुत जोर दिया।
इंग्लिस ने यह भी कहा कि साइबरस्पेस नाजुक है और साइबर तकनीक तथा आर्टिफिशल इंटेलिजेंस के तेज विकास के चक्कर में इसकी मजबूती और सुरक्षा की अनदेखी की गई है। यही वजह है कि साइबर और आर्टिफिशल इंटेलिजेंस दोनों में ही ‘हमलावर’ बचाने वालों पर हावी हैं और भारी पड़ रहे हैं।
मैं सऊदी अरब के विदेश राज्य मंत्री अब्दुल अल जुबैर और विश्व व्यापार संगठन के पूर्व महानिदेशक पास्कल लैमी के साथ साइबर कूटनीति के पैनल में शामिल था। उसमें स्वीकार किया गया कि ऐसे बहुपक्षीय रुख को आगे बढ़ाना मुश्किल है, जो खास तौर पर विकासशील देशों में आर्थिक विकास को रफ्तार देने के लिए साइबर क्षमताओं का इस्तेमाल सुनिश्चित करेगा। मगर इस बात पर सहमति थी कि भूराजनीतिक खेमेबाजी के बाद भी साइबरस्पेस में बच्चों की सुरक्षा करने तथा स्त्री-पुरुष समानता को बढ़ावा देने के लिए आपसी सहयोग संभव है।
नवाचार और नियमन के बीच उचित संतुलन कायम रखने के लिए निजी-सार्वजनिक भागीदारी के सवाल पर मैंने तर्क दिया कि कंपनियां हमेशा नियम-कायदों और सरकारी नियंत्रण का विरोध करेंगी। सरकार को नागरिकों के हितों की रक्षा करनी चाहिए और उन्हें बढ़ावा देना चाहिए लेकिन उसके लक्ष्य निजी कंपनी के मुताबिक नहीं हो सकते क्योंकि कंपनियां मुनाफे के लिए काम करती हैं। वे हमेशा होड़ में आगे रहने की कोशिश करती हैं। मैंने कहा कि निजी-सार्वजनिक भागीदारी जरूरी हो तो भी इसकी डोर सरकार के हाथ में ही रहनी चाहिए।
फोरम में कुछ खास बातें सामने आईं। मसलन साइबर क्षेत्र में तकनीकी प्रगति की रफ्तार उस पर ठीक से सोच-विचार करने तथा आपराधिक कृत्यों समेत उसके व्यापक दुरुपयोग को रोकने की देशों और सरकारों की क्षमता खत्म कर रही है। अंतरराष्ट्रीय राजनीति में और कंपनियों के रवैये में होड़ का तत्त्व सामूहिक भावना को पनपने ही नहीं देता। तेज वृद्धि की संभावना तो बहुत बढ़ी है मगर उसके साथ ही मौजूद खतरा असल में हमारे अस्तित्व के लिए खतरा बन रहा है।
साइबरस्पेस और एआई ने ऐसी दुनिया बना दी है, जहां सर्वाधिक परिष्कृत तकनीकें भी तेजी से फैल जाती हैं। कई गरीब देशों के पास इस क्षेत्र में उन्नत क्षमताएं पहले ही आ चुकी हैं। अतीत के उलट अब उनके पास इतनी क्षमता है कि वे सशक्त बहुपक्षीय संस्थाओं के साथ मिलकर साइबरस्पेस के वैश्विक संचालन को बढ़ावा देने वाले कार्यक्रमों की अगुआई कर सकते हैं। संयुक्त राष्ट्र इकलौता मंच है, जिसके ऐसे प्रयासों को सभी स्वीकार करते हैं। किंतु इसका नेतृत्व तो भारत और सऊदी अरब जैसे देशों को ही करना होगा।