गत 4 मई को भारतीय रिजर्व बैंक ने रीपो दर में 0.4 प्रतिशत का इजाफा कर दिया। इसकी प्रमुख वजह थी उपभोक्ता मूल्य मुद्रास्फीति की बढ़ती दर से निपटना जो अब बढ़कर 7.8 फीसदी के स्तर पर पहुंच गई है। हालांकि मूल्य स्थिरता के दृष्टिकोण से इसका स्वागत ही किया गया लेकिन देश में उत्पादन और रोजगार को लेकर चिंता अभी भी बरकरार है। दुनिया के दूसरे हिस्सों की बात करें तो सच यही है कि शेष विश्व में भी ब्याज दरों की नीति को लेकर ऐसा ही कुछ घटित हो रहा है।
अक्सर यह दलील दी जाती है कि हमें ऐसी नीति के साथ समय बिताना होगा। यह बात ऐसे कही जाती है मानो इसका कोई अन्य विकल्प उपलब्ध ही न हो। यह बात सही नहीं है। इस आलेख में आगे चलकर मैं यह बताने की कोशिश करूंगा कि हमारी नीति बेहतर हो सकती है। परंतु उसके पहले यह समझना महत्त्वपूर्ण है कि वास्तविक अर्थव्यवस्था के समूचे चक्र को लेकर कैसी नीति है। सहजता की बात करें तो दो चरणों पर विचार कीजिए-एक मंदी और दूसरा तेजी।
वर्तमान नीतिगत व्यवस्था कुछ इस प्रकार की है कि जब भी मंदी का दौर होता है तब आरबीआई ब्याज दरों में कमी करता है। ऐसे में कर्जदारों के लिए ब्याज की लागत कम होती है। हम कह सकते हैं कि आरबीआई कर्जदारों को एक प्रकार की सब्सिडी देता है। यह बचतकर्ताओं के लिए भी ब्याज आय में कमी करता है। हम कह सकते हैं कि आरबीआई उन पर एक प्रकार का कर लगाता है। स्पष्ट है कि जब अर्थव्यवस्था मंदी में होती है तब आरबीआई एक प्रकार के आभासी ब्याज और सब्सिडी वाली एक योजना संचालित करता है।
इसके बाद तेजी की स्थिति पर विचार करते हैं। अनुमान यही है कि आरबीआई द्वारा ब्याज दरों में इजाफा किए जाने के बाद कर्जदारों के लिए कर बढ़ेगा क्योंकि ब्याज की लागत बढ़ेगी जबकि बचतकर्ताओं को एक प्रकार की सब्सिडी का आभास होगा क्योंकि उनकी ब्याज आय बढ़ेगी। यानी तेजी की स्थिति में भी रिजर्व बैंक वैसी ही आभासी ब्याज-सब्सिडी योजना का संचालन करता है, बस इस बार स्थिति मंदी के एकदम उलट होती है।
मौजूदा नीतिगत व्यवस्था के अधीन ब्याज दरों में कमी का क्रियान्वयन केंद्रीय बैंक की नकदी में सामान्य परिस्थितियों की तुलना में इजाफे के साथ किया जाता है। इसी प्रकार ब्याज दरों में कोई भी इजाफा किए जाने के लिए उस नकदी की मात्रा में कमी की जाती है। स्पष्ट है कि आरबीआई का एक बुनियादी नीतिगत उपकरण यह है कि नकदी की मात्रा में परिवर्तन किया जाए। उसका बुनियादी नीतिगत उपाय ब्याज दरों में बदलाव करना नहीं है बल्कि वह अंतरिम लक्ष्य है जबकि मुद्रास्फीति और उत्पादन उसके अंतिम लक्ष्य हैं। मौजूदा नीतिगत व्यवस्था के अधीन भी मामला काफी हद तक ऐसा ही है।
अब हम ऐसी नीतिगत व्यवस्था बना सकते हैं जिसका प्रस्ताव यहां रखा गया है। बुनियादी सुझाव यही है कि हम रिजर्व बैंक की आभासी कर-सब्सिडी योजना से हटें और एक स्वतंत्र संस्थान की स्पष्ट कर-सब्सिडी व्यवस्था को अपनाएं जो वित्त मंत्रालय से संबद्ध हो। आइये इस बात को और सहज बनाते हैं और मान लेते हैं कि इसे स्वयं वित्त मंत्रालय ही संचालित करेगा।
प्रस्तावित नीतिगत व्यवस्था में वित्त मंत्रालय सीधी सब्सिडी प्रदान कर सकता है ताकि ब्याज की लागत कम की जा सके और मंदी के समय में वास्तविक निवेश को बढ़ाया जा सके। यह राशि मंदी के समय में प्रभावी ब्याज दर में कमी के समकक्ष होगी। वहीं तेजी के समय वित्त मंत्रालय इसका उलटा कर सकता है। वित्त मंत्रालय की यह नीति आर्थिक चक्र के दौरान वास्तविक निवेश और उत्पादन को स्थिर बनाने का काम करेगी। इससे आरबीआई को मौका मिलेगा कि वह अपने प्रमुख नीतिगत उपाय पर ध्यान केंद्रित करे यानी मुद्रास्फीति को लक्षित करने पर ध्यान लगाए। ऐसी व्यवस्था कारगर साबित हो सकती है क्योंकि इसमें किसी तरह का लेनदेन शामिल नहीं होगा।
पहले से चली आ रही नीतिगत व्यवस्था में एक ही नीतिगत उपाय है जिसके माध्यम से केंद्रीय बैंक दो प्रकार के चरों-मुद्रास्फीति और उत्पादन से निपटता है। इसके विपरीत प्रस्तावित नीतिगत व्यवस्था में हमारे पास दो नीतिगत उपाय होंगे: एक केंद्रीय बैंक के माध्यम से तथा दूसरा वित्त मंत्रालय के जरिये। ऐसा करके हम गंभीर किस्म के लेनदेन से बच सकते हैं। बात केवल इतनी सी नहीं है।
वर्तमान ब्याज दर नीति बहुत भोथरी है। ब्याज दर नीति का लक्ष्य जहां वृहद आर्थिक स्थिरता कायम करने का है वहीं इसके दुष्प्रभाव भी हैं। रिजर्व बैंक मध्य वर्ग के लिए ब्याज आय में उस समय कमी करता है जब अर्थव्यवस्था मंदी के दौर से गुजर रही होती है। ऐसा करने से उनकी कठिनाइयों में और इजाफा होता है।
इसके अलावा आरबीआई परिसंपत्ति मूल्य स्थिरता को भी नकारात्मक ढंग से प्रभावित करता है। ब्याज दरें कम करते हुए वह शेयर कीमतों को गति देता है जबकि ब्याज दरें बढ़ाते समय वह शेयरों की कीमत कम करता है। ताजा उदाहरण इसी महीने देखने को मिला जब ब्याज दरों में इजाफा किए जाने के बाद सेंसेक्स में महत्त्वपूर्ण गिरावट देखने को मिली।
यह प्रस्तावित नीतिगत व्यवस्था कुछ पाठकों को अजीब लग सकती है। बहरहाल, हकीकत में यह इकलौता ऐसा तरीका है जिसके माध्यम से आरबीआई को अपनी मौद्रिक नीति का संचालन करना चाहिए तथा वित्त मंत्रालय को कर-सब्सिडी योजना का संचालन करना चाहिए। विचित्र बात यह है कि मौजूदा नीतिगत व्यवस्था के अधीन केंद्रीय बैंक एक प्रभावी कर-सब्सिडी योजना का इस्तेमाल करता है। हमारी आर्थिक विचार प्रक्रिया में यह एक अहम प्रश्न है कि यह व्यवस्था इतने समय तक क्यों लागू रही? मैंने यहां इन बातों को सरल ढंग से प्रस्तुत करने की कोशिश की है तथा कई अन्य संबद्ध विषयों से भी चीजें प्रस्तुत की हैं। परंतु एक अधिक सामान्य विश्लेषण मेरी आगामी पुस्तक में प्रस्तुत किया जाएगा जिसका शीर्षक है- थिंकिंग अफ्रेश ऑन माइक्रो-फाइनैंशियल स्टैबिलिटी।
(लेखक भारतीय सांख्यिकी संस्थान, दिल्ली केंद्र के अतिथि प्राध्यापक हैं)