माइक्रोइकनॉमिक्स 101 मुक्त बाजार वाली अर्थव्यवस्था में बाजार के नाकाम होने की वजहें और असर समझाता है। साथ ही वह बताता है कि नियामक क्यों होने चाहिए। समय के साथ-साथ विकासशील अर्थव्यवस्थाओं को भी अहसास हो गया है कि टिकाऊ वृद्धि के लिए भरोसेमंद और प्रतिष्ठित नियामकीय संस्थाएं कितनी जरूरी हैं।
नियामक के गठन की बात करने वाले कानून का मकसद एकदम स्पष्ट होना चाहिए, जिसमें नियामक का उद्देश्य, भूमिका, नियुक्ति की प्रक्रिया, अधिकार और कामकाज साफ शब्दों में परिभाषित किए जाने चाहिए। साथ ही नियमन के लिए सिद्धांत, अपील की प्रक्रिया के साथ यह भी बताया जाना चाहिए कि नियामक को जवाबदेह कैसे बनाया जाएगा। नियामकों को कामकाज और वित्तीय मामलों में स्वतंत्रता होनी चाहिए और यह बात भी कानून में स्पष्ट रूप से बताई जानी चाहिए। 1991 में उदारीकरण की शुरुआत के बाद से देश में कई नियामकीय संस्थाएं स्थापित की गई हैं। इस लेख में उन नियामकों के काम का विश्लेषण नहीं किया जा रहा है बल्कि कुछ ऐसे व्यापक मुद्दों की पड़ताल की जा रही है, जिन पर काम करना जरूरी है।
शुरुआत इसी सवाल के साथ करते हैं कि हमें इतने नियामकों की जरूरत है भी या नहीं। जब भी कोई नई संस्था स्थापित की जाती है तो सरकारी खजाने पर पड़ने वाले वित्तीय बोझ की चिंता के साथ यह सवाल खड़ा हो जाता है। लेकिन इस बात की पड़ताल करना ज्यादा गंभीर और जरूरी है कि जब कई नियामकीय संस्थाओं की भूमिका खराब तरीके से परिभाषित होती है या अपने अधिकार क्षेत्र में आने वाले निकायों एवं हितधारकों के मामले में परस्पर विरोधी भूमिका होती है तो उन संस्थाओं का कैसा असर पड़ता है। और कोई असर हो न हो, कारोबारी सुगमता बढ़ाने का मकसद तो बिल्कुल खत्म हो जाता है!
ऐसा नहीं है कि अतीत में इस पर विचार नहीं किया गया। उदाहरण के लिए 2013 की वित्तीय क्षेत्र विधायी सुधार आयोग की रिपोर्ट स्पष्ट रूप से कहती है कि नियामकीय ढांचे को औचित्य प्रदान करने की जरूरत है। रिपोर्ट में इस क्षेत्र में केवल दो नियामक रखने की सिफारिश भी की गई है। मगर विभिन्न कारणों से उसकी बात और सिफारिश को तवज्जो नहीं दी गई।
इन संस्थानों के गठन और इनके साथ बरताव के बारे में सरकार की मानसिकता बदले जाने की जरूरत है। सबसे पहले उसे स्वीकार करना चाहिए कि सांविधिक नियामकीय संस्थाएं कोई सरकारी विभाग नहीं हैं। कई क्षेत्रों में कुछ नियामकीय संस्थाएं सरकारी हैं। वे सरकारी संस्था होने का हवाला देकर अपने साथ निजी क्षेत्र की संस्थाओं से अलग किस्म का नियामकीय बरताव किए जाने की अपेक्षा करती हैं।
इसमें कीमत और लाभ की पड़ताल की जाए तो कैसा रहेगा? इसमें चुकाई जा रही कीमत तो साफ नजर आती है। सबसे पहले तो इससे बराबरी के अवसर ही खत्म हो जाते हैं। लाभ की बात करें तो गहराई तक खंगालने पर भी हमें मध्यम से दीर्घ अवधि में कुछ नजर नहीं आता। ज्यादातर मौकों पर दिक्कतों को आगे के लिए टाला जाता है और संस्थाओं के कामकाज में एक तरह की बेपरवाही पसर जाती है।
पहली शर्त है कि ये नियामक एकदम निष्पक्ष होकर काम करें। अगर सरकार को लगता है कि ऐसा करना व्यावहारिक नहीं होगा या किसी खास मामले में निष्पक्ष नहीं रहा जा सकता तो बेहतर होगा कि उस नियामक का गठन ही नहीं किया जाए। प्रशासनिक मामलों की बात करें तो इसमें नियामकों की नियुक्ति और उनकी जवाबदेही तय करना शामिल है। निष्पक्ष काम करने का सिद्धांत कहता है कि कार्यकाल सहित नियुक्ति की प्रक्रिया कानून में दी जाए उसके लिए अलग से नियम न बनाए जाएं। साथ ही नियुक्ति का काम भी उस क्षेत्र के मंत्रालय के हवाले नहीं हो।
सरकार के कार्मिक विभाग को सांविधिक नियामकों की नियुक्ति करनी चाहिए।
नियामकीय काम में सही लोगों की नियुक्ति करना चुनौतीपूर्ण हो सकता है। हाल की घटनाओं से बहस छिड़ गई है कि ये नियुक्तियां सरकार से हों या निजी क्षेत्र से। इन पदों को सेवानिवृत्त अधिकारियों की आरामगाह मानने की धारणा खत्म होनी चाहिए। सरकार को सेवानिवृत्ति से काफी पहले ही उपयुक्त व्यक्ति नियुक्त कर देने चाहिए। सुपरिभाषित और अहम भूमिका वाली स्वायत्त नियामकीय संस्थाएं सही लोगों को सरकारी नौकरी छोड़कर आने के लिए जरूर आकर्षित करेंगी। नियामकों की जवाबदेही गंभीर विषय है और नियामकीय स्वतंत्रता के नाम पर उन्हें खुली छूट नहीं दी जा सकती।
पहले देखते हैं कि मौजूदा कानूनों में कौन से प्रावधान नियामकों के काम की निगरानी में काम आ सकते हैं। इसमें केंद्र सरकार की नियम बनाने, नियामकों को निर्देश देने और जरूरत पड़ने पर उन्हें अपने मातहत लाने की शक्ति और नियामकों द्वारा सरकार को सालाना रिपोर्ट देने की जरूरत शामिल हैं। बाद में यह रिपोर्ट संसद में रखी जाती है। इसके अलावा नियम संसद के समक्ष प्रस्तुत करने और नियामकों के आदेश के खिलाफ सुनवाई के लिए अपील संस्था की स्थापना भी इसका हिस्सा है।
किंतु ये प्रावधान उद्देश्य की पूर्ति ठीक से नहीं करते। सरकार प्रशासनिक मसलों में ही नियम बना सकती है। दिशानिर्देश जारी करने पर निष्पक्ष कामकाज का सिद्धांत खतरे में पड़ेगा। अब तक किसी नियामकीय संस्था पर सरकार के हावी होने की बात भी नहीं सुनी गई। सालाना रिपोर्ट पर मीडिया का ही ध्यान जाता है। संसद में पेश नियमों में संशोधन भी नहीं सुना गया। अपील निकाय रिक्तियों से ही जूझते रहते हैं।
ऐसे प्रावधानों को प्रभावी बनाने के लिए कुछ सुधार किए जा सकते हैं लेकिन सही तो यही होगा कि नियामकों के कामकाज पर संसदीय समितियों के जरिये सीधे संसद की नजर रहे। हालांकि विभिन्न मंत्रालयों के कामकाज की निगरानी के लिए संसद की स्थायी समितियां हैं, लेकिन अभी इन्हें पश्चिम के लोकतांत्रिक देशों की तरह परिपक्वता हासिल करने में अभी बहुत समय लग जाएगा। इन समितियों को स्तरीय सहायक कर्मचारियों की मदद से मजबूत बनाते हुए प्रक्रियाओं को दुरुस्त बनाया जाना चाहिए।
एक समिति किसी नियामक को साल में दो बार कामकाज की समीक्षा के लिए बुला सकती है और हितधारकों तथा विशेषज्ञों की राय भी सुन सकती है। नियामकों से कहा जाए कि वे समिति के पर्यवेक्षण पर उठाए गए कदमों पर तय समय सीमा में रिपोर्ट पेश करें। तब समिति अपनी रिपोर्ट को अंतिम रूप दे सकती है। उसके बाद उसे संसद के समक्ष पेश किया जा सकता है और फिर सार्वजनिक भी किया जा सकता है।
वास्तव में व्यवस्था परिपक्व होने पर संबंधित संसदीय समिति को भी नियामकों की नियुक्ति पर मुहर लगाने का अधिकार दिया जा सकता है। बाजार अर्थव्यवस्था में नियामकीय संस्थाएं बहुत अहम हैं। इन्हें आर्थिक वृद्धि में मदद के लिहाज से तैयार किया जाना चाहिए। साथ ही सुनिश्चित होना चाहिए कि सभी हितधारकों का व्यवस्था में विश्वास बना रहे।