हम सभी ने इस बात पर ध्यान दिया होगा कि आईबीएम, गूगल, माइक्रोसॉफ्ट जैसे वैश्विक संस्थानों और अब विश्व बैंक में भारतीयों के पास नेतृत्व की भूमिका है। प्रवासियों के लिए इस तरह की सफलता हासिल करना आसान नहीं होता है। किसी नई संस्कृति में ढलना आसान नहीं होता है।
जाहिर है हमें इन तमाम लोगों की सराहना करनी चाहिए जिन्होंने दूसरे देश में जाकर इस प्रकार की सफलता हासिल की। भारत में परीक्षा पास करने पर बहुत अधिक जोर दिया जाता है। परीक्षा पास करना तथा जोश और जुनून होना जहां आवश्यक है वहीं इससे बुनियादी काम के अलावा कोई मदद नहीं मिलती।
एक पूरे जीवन को आकार देने तथा तकनीकी सेवा कार्य से रणनीति बनाने और नेतृत्व की भूमिका में जाने की प्रक्रिया प्रमुख रूप से संस्कृति, उद्देश्य, समुदाय, मूल्य और मानवीय गुणों पर आधारित होती है। इन सफल लोगों के पक्ष में कौन सी बात गई? दरअसल उनके नए जीवन की बात करें तो उसमें उनके कॉलेज के पुराने दिनों की तुलना से पर्याप्त कम सांस्कृतिक दूरी थी। वे अपनी मेधा और कड़ी मेहनत से उस अंतर को पूरा कर पाने में कामयाब रहे।
भारत में जिस समय वे पढ़ाई कर रहे थे तब किताबों और विचारों की दुनिया में एक पूरा सांस्कृतिक पैकेज था जिसने नए जीवन को अपनाने की बुनियाद रखी। इस यात्रा का एक तत्त्व है भारत के भीतर बहु-संस्कृति और सहिष्णुता। भारत में बड़े होते हुए आप कई संस्कृतियों को स्वीकार करने, समाहित करने और एक दूसरे के साथ मिलकर काम करना जैसी चीजें सीखते हैं। इसमें बहुत अधिक सहिष्णुता की आवश्यकता होती है।
भारत में कई तरह के लोग रहते हैं। विविधता के साथ एकजुट रहना और साथ मिलकर काम करना हिंदुत्व, जैन और बौद्ध विचारों की गहरी परंपरा का हिस्सा है। यह बात हम भारतीयों को बहुसांस्कृतिक होने के मामले में एक स्वाभाविक बढ़त प्रदान करती है और हम वैश्विक संस्थानों में सांस्कृतिक विविधता से अपेक्षाकृत बेहतर ढंग से निपट पाते हैं। जबकि एकल संस्कृति में पले-बढ़े लोग ऐसा नहीं कर पाते।
यह दिलचस्प है कि भारत में पढ़े और बड़े हुए लोगों का अच्छा प्रदर्शन केवल एक दिलचस्प घटना है या यह भारत के लिए भी मायने रखती है? दुनिया के अन्य देशों में भारतीयों का नेतृत्व वाले पदों पर पहुंचना सूचनाओं की असमता को समाप्त करता है और भारत के साथ वैश्विक संबद्धता को मजबूत करता है। इनमें से प्रत्येक व्यक्ति भारतीय कुलीन वर्ग से जुड़ा हुआ है और भारत के बारे में उनका सटीक निर्णय है।
विश्व बैंक, गूगल और माइक्रोसॉफ्ट जैसे संस्थानों के शीर्ष नेतृत्व के मन में भारत के बारे में एक आम समझ है जो भारत के बारे में उन्हें खामोशी से और स्थिर गति से निर्णय लेने को प्रेरित करती है। यह भारत के लिए अच्छी बात है।
वैश्विक संस्थानों में भारतीय मूल के लोगों की मौजूदगी देखें तो उन संस्थानों में प्रतिभाओं के महत्त्व का भी ध्यान आता है। भारत में भी अगर हम अपनी आंतरिक संस्कृति में विविधता बढ़ाएं तो बाहरी दुनिया से संबद्धता बढ़ाने में सहायता मिलेगी। जैसा कि गूगल के मुख्य कार्याधिकारी सुंदर पिचाई ने कहा भी कि भारत के लिए वह एक बड़ा दिन होगा जब बांग्लादेशी प्रवासी टीसीएस या इन्फोसिस का सीईओ बनेगा।
अगर हम ज्ञान के संकीर्ण उपायों पर विचार करें तो शीर्ष चीनी विश्वविद्यालय भारत के श्रेष्ठतम विश्वविद्यालयों से आगे हैं। परंतु चीन में बड़े होने वाले बहुत कम लोग शीर्ष वैश्विक संस्थानों में ऐसी भूमिका निभा रहे हैं।
हम देखते हैं कि चीन के तकनीकी विशेषज्ञ कई अहम तकनीकी कामों को अंजाम देते हैं लेकिन अक्सर वे रणनीति और नेतृत्व के स्तर तक नहीं पहुंच पाते। ऐसा क्यों हुआ होगा? इसमें एक कारक धाराप्रवाह ढंग से अंग्रेजी बोलने का भी है। इसके अलावा हान-चीनी संस्कृति की एकरूपता, प्रबुद्ध मूल्यों वाले पूर्ण सांस्कृतिक पैकेज का अभाव तथा राज्य शक्ति के अधीन कल्पनाशीलता का विकसित न होना।
सैकड़ो वर्ष पहले से भारत में ज्ञान को लेकर उच्च मूल्य रहे हैं और वे वर्तमान में भी नजर आते हैं। यहां दो कारक काम कर रहे हैं: (अ) भारत विकास के जिस चरण में है, उस चरण के अन्य देशों से तुलना करें तो अस्वाभाविक रूप से उच्च स्तर पर है और (बी) ज्यादा जनसंख्या का अर्थ यह है कि उच्च क्षमता वाले लोगों की तादाद भी अधिक है। इससे अर्थव्यवस्थाओं का एक समुच्चय तैयार होता है जो एक दूसरे के साथ सहयोग और प्रतिस्पर्धा करते हैं।
जैसा कि वैश्विक निगम जानते हैं कि अगर आप 1,000 अच्छे शोधकर्ताओं के साथ एक कार्यालय तैयार करना चाहते हैं तो भारत एक अच्छी जगह है और यहां तात्पर्य केवल कम वेतन से नहीं है। भारत को यह जो बढ़त हासिल है यही हमारी सूचना प्रौद्योगिकी क्रांति का आधार है। इसने वैश्विक स्तर पर हम अपनी इसी बढ़त के आधार पर दुनिया के साथ जुड़ाव कायम कर सके और इसके चलते ही सालाना 200 अरब डॉलर की संपत्ति भारत में आती है।
इससे भविष्य को क्या आकार मिल सकता है? अगर हम सोचते हैं कि इसका संबंध और अधिक आईटी स्नातक तैयार करने से है तो निश्चित तौर पर हम आज बेहतर स्थिति में हैं जहां 16,000 छात्र हर वर्ष आईआईटी में पढ़ाई के लिए आते हैं जो सन 1980 के दशक की तुलना में आठ गुना है। हालांकि शंकाओं की अपनी वजह हैं। हमें यह नहीं मानना चाहिए कि हालात ऐसे ही बने रहेंगे। ऐसा इसलिए क्योंकि बुनियादी तौर पर कई चीजें बदल गई हैं।
जैसा कि ऊपर जोर देकर कहा गया है, जीवन में परीक्षाएं पास करने और जोश और जुनून से काम करने के अलावा भी बहुत कुछ है। वास्तव में मायने रखता है पूरा सांस्कृतिक पैकेज। कई दशक पहले भारतीय कुलीनों के बच्चे भारत के प्रसिद्ध शैक्षणिक संस्थानों में पढ़ते थे। इससे ज्ञान और संस्कृति का प्रवाह ऊपर से नीचे की ओर हुआ और गैर कुलीन बच्चों तक पहुंचा।
अब वह प्रवृत्ति कमजोर पड़ी है। अब तमाम कुलीन भारतीय प्रतिस्पर्धी परीक्षाओं में हिस्सा नहीं लेते। आज औसत आईआईटी स्नातक भी पहले की तुलना में कम किताबें पढ़ता है। उनके पास वह सांस्कृतिक पैकेज भी उतना मजबूत नहीं दिखता है जिसकी मदद से वे तकनीकी कामकाज से इतर अपने आप को उभार सकें। यही कारण है कि आईआईटी का दबदबा अब अपने उच्चतम स्तर तक पहुंच चुका है। अब नेतृत्व भारत तथा विदेशों के अपेक्षाकृत अधिक विविधता वाले शिक्षण संस्थानों से निकलेगा।
(लेखक एक्सकेडीआर फोरम में शोधकर्ता हैं)