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  आज का अखबार  सार्वजनिक उत्तरदायित्व बीमा प्रावधान मजबूत हो
आज का अखबारलेख

सार्वजनिक उत्तरदायित्व बीमा प्रावधान मजबूत हो

सार्वजनिक स्थलों पर दुर्घटना के शिकार लोगों को न्याय देने के लिए सार्वजनिक उत्तरदायित्व बीमा कानून में संशोधन के साथ महंगाई के अनुरूप मुआवजे का प्रावधान करना होगा। बता रहे हैं देवाशिष बसु

देवाशिष बसु देवाशिष बसु —March 14, 2023 9:16 PM IST
© इलस्ट्रेशन- अजय मोहंती
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दिसंबर 2021 में एक सेवानिवृत्त सरकारी अधिकारी और उनकी पत्नी महाराष्ट्र के ठाणे में एक बैंक शाखा में गए थे। लॉकर रूम में बैंक अधिकारी कमजोर सीढ़ी से गिर पड़े। इस घटना में उन्हें काफी चोट आई और डॉक्टरों ने उन्हें शल्य चिकित्सा कराने का परामर्श दिया।

जिस बैंक की शाखा में यह घटना हुई उसने अधिकारी को आई चोट की जिम्मेदारी लेने से इनकार कर दिया और न ही वह किसी तरह का मुआवजा देने को तैयार हुआ। बैंक के अधिकारी ऐंबुलेंस तक बुलाने को तैयार नहीं हुए। जब घायल अधिकारी ने कहा कि ऐंबुलेंस सेवा का भुगतान करने के लिए वह तैयार हैं तब जाकर ऐंबुलेंस बुलाई गई।

उस सेवानिवृत्त अधिकारी ने बैंक शाखा में शिकायत दर्ज कराई और मुख्य अधिकारी तक मामला ले गए। यह मामला बैंकिंग लोकपाल तक भी पहुंच गया। इनमें प्रत्येक स्तर पर उनका दावा खारिज हो गया।

अधिकारी को यहां भी निराशा हाथ लगी और उसकी बात सुनने के बजाय बैंकिंग लोकपाल ने कहा कि उसके निर्णय के खिलाफ अपील नहीं की जा सकती। जब यह मामला भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) के पास पहुंचा तो अधिकारी को इलाज पर आए खर्च की आंशिक रूप से भरपाई की गई।

लगभग हरेक दिन लोग गंभीर दुर्घटना का शिकार होते हैं। बैंकों, रेस्तरां, सिनेमाघरों, थिएटरों, मॉल, अस्पतालों, होटलों में और हवाईअड्डों पर लोग किसी न किसी दुर्घटना का शिकार हो जाते हैं। पुल, सड़क और रोपवे का इस्तेमाल करते वक्त भी लोग गंभीर दुर्घटनाओं का शिकार हो जाते हैं। गुजरात के मोरबी में पुल गिरने की घटना में 135 लोगों की मौत इसका ताजा उदाहरण है। वर्ष 1984 में भोपाल में हुई गैस त्रासदी सबसे हृदय विदारक थी जिसमें हजारों लोगों की मौत हो गई और कई लोग गंभीर रूप से घायल हो गए।

ये सभी घटनाएं सार्वजनिक उत्तरदायित्व (पब्लिक अकाउंटेबिलिटी) के अंतर्गत आती हैं। सार्वजनिक उत्तरदायित्व अपकृत्य कानून (लॉ ऑफ टॉर्ट्स) की एक शाखा है जिसमें प्रावधान है कि जिन लोगों या इकाइयों के परिसरों में या जिनके कार्यों से लोगों को शारीरिक, जायदाद का या वित्तीय नुकसान होता है वे पीड़ित को वित्तीय मुआवजा देने के लिए उत्तरदायी हैं।

भोपाल गैस त्रासदी के सात वर्ष बाद भारत में सरकार ने सार्वजनिक उत्तरदायित्व बीमा (पीएलआई) अधिनियम, 1991 लागू किया। इस अधिनियम के तहत मुआवजा एवं बीमा दोनों ही अनिवार्य बना दिए गए मगर ये प्रावधान केवल दुर्घटना की आशंका वाले उद्योगों के मामले में ही लागू हुए। कारोबारी प्रतिष्ठान प्रायः सामान्य उत्तरदायित्व बीमा लेते हैं ताकि पीड़ितों को मुआवजा दिया जा सके।

मगर यह प्रावधान लागू कराने के लिए कोई ढांचा, किसी तरह की अनिवार्यता या सार्वजनिक दबाव नहीं है। उस बैंक को अपनी जेब से सेवानिवृत्त अधिकारी को मुआवजा नहीं देना पड़ा। बैंक ने सामान्य-उत्तरदायित्व बीमा लिया था जिसकी जानकारी उस शाखा को नहीं थी। सार्वजनिक स्थानों पर आग लगने की घटनाओं के शिकार लोगों की भी लगभग यही कहानी होती है।

त्रुटिपूर्ण उपकरण और रखरखाव के अभाव में अक्सर ऐसी घटनाएं होती हैं। चूंकि, बीमा लेना अनिवार्य नहीं है और इसके बारे में जागरूकता भी कम है इसलिए उत्तर दायित्व बीमा व्यावहारिक रूप से इन मामलों से निपटने में प्रभावी नहीं रहता है। इन घटनाओं के बाद सरकार अक्सर पीड़ितों को अनुदान और कुछ अल्पकालिक सहायता दे देती है।

प्रश्न उठता है कि क्या उपाय किए जाने चाहिए? हाल में ही उत्तरा वैद एडवाइजरी ने अपने एक अध्ययन में सार्वजनिक एवं सामान्य उत्तरदायित्व कानूनों में कई त्रुटियां का जिक्र किया है। इस अध्ययन में इस ढांचे को कार्य योग बनाने के सुझाव दिए गए हैं। इस अध्ययन के सुझावों के अनुसार सबसे पहले पीएलआई अधिनियम का दायरा बढ़ाया जाना चाहिए और आम लोगों को नुकसान पहुंचने, उनकी मृत्यु होने या उन्हें किसी तरह की दिक्कत होने की स्थिति में इसे कारोबार एवं गैर व्यावसायिक संगठनों के लिए अनिवार्य किया जाना चाहिए।

अध्ययन में यह भी सुझाव दिया गया है कि गैर-औद्योगिक हादसों में लोगों के हताहत या घायल होने की स्थिति में एक अलग से न्यायिक मंच की स्थापना की जानी चाहिए। अध्ययन के अनुसार इससे पीड़ितों की समस्याओं का त्वरित निपटारा करने में मदद मिलेगी।

प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद ने एक बेहतर मगर कठिन प्रावधान शुरू किया है। ‘फेयर कंपनसेशन ऐंड अकाउंटेबिलिटी व्हाई इंडिया नीड्स प्यूनिटिव डैमेजेस ऐंड स्ट्रॉन्गर टॉर्ट्स लॉ’ शीर्षक नाम से यह पत्र कुछ दिनों पहले जारी हुआ है। इस पत्र में आदित्य सिन्हा ऐंड बिकाशिता चौधरी ने भारत में अपकृत्य कानून की शुरुआत की पैरवी की है।

उन्होंने इसमें दंडात्मक हर्जाना शामिल करने पर जोर दिया है। पत्र में 2014 में हुई एक घटना का जिक्र हुआ है जिसमें एक 11 वर्ष की लड़की बांध से अचानक तेज प्रवाह के साथ जल छोड़े जाने के कारण डूब जाती है। सिक्किम उच्च न्यायालय ने इस घटना के लिए नैशनल हाइड्रोइलेक्ट्रिक पावर कॉर्पोरेशन (एनएचपीसी) को जिम्मेदार ठहराया। उच्च न्यायालय ने कंपनी को लड़की के माता-पिता को 5 लाख रुपये मुआवजा देने का निर्देश दिया।

2020 में भी बांध से अचानक पानी छोड़े जाने से दो लोगों की मौत हो गई। इस मामले में न्यायालय ने पूर्व में जारी दिशानिर्देशों के उल्लंघन के लिए पीड़ितों के परिवारों को मुआवजे के रूप में 35-35 लाख रुपये देने का आदेश दिया।

पत्र में तर्क दिया गया है कि अपकृत्य कानून और कड़े आर्थिक दंड (मान लें 50 करोड़ रुपये) जैसे लागू किए गए होते तो संभवतः दिशानिर्देश जल्द लागू हुए होते। दिशानिर्देश लागू हो गए होते तो दोबारा ऐसी घटना नहीं हुई होती। इसे दंडात्मक हर्जाना कहा जाता है जो वास्तविक नुकसान के अतिरिक्त भुगतान किया जाता है। पत्र में कहा गया है, ‘अपकृत्य कानून संहिता तैयार होने से हरेक बार ऐसी घटना की सूरत में नए-नए प्रावधान करने की जरूरत पेश नहीं आएगी। इससे पीड़ितों को पर्याप्त मुआवजा देने से भी कोई इनकार नहीं कर पाएगा जैसा कि भोपाल गैस त्रासदी के शिकार लोगों के साथ हुआ था।‘

हालांकि न्यायाधीशों एवं वकीलों के लिए दंडात्मक हर्जाने का प्रावधान स्वीकार कर पाना एक मुश्किल विषय प्रतीत हो रहा है। अगर अनुकरणीय जुर्माने की बात छोड़ दी जाए तो भी लापरवाही के स्पष्ट मामलों में भी अदालतें-दीवानी, फौजदारी या उपभोक्ता-पर्याप्त मुआवजा सुनिश्चित नहीं करा पाती हैं।

दंडात्मक हर्जाने का प्रस्ताव और वकीलों की कंटिनजेंसी फीस (मुकदमा सफल रहने पर वकीलों को दी जाने वाली फीस) दोनों एक दूसरे से जुड़े हैं जैसा कि अमेरिका में पाया जाता है। इससे लापरवाही बरतने वाली इकाइयों के खिलाफ रुख और कड़ा करने में मदद मिलती है। भारत में वकील अपने मुवक्किलों की तरफ से दंडात्मक हर्जाने के लिए इसलिए प्रयास नहीं करते क्योंकि इसमें उन्हें अपने लिए कोई खास लाभ नहीं दिखता है।

कंटिनजेंसी फीस और दंडात्मक हर्जाना सही कदम हैं मगर इनका क्रियान्वयन मुश्किल होगा। कारोबारी प्रतिष्ठानों और कानूनी महकमे में उनके पक्षधर इसका कड़ा विरोध करेंगे। अगर हम सार्वजनिक स्थलों पर दुर्घटना के शिकार लोगों को सही मायने में न्याय देना चाहती है तो पीएलआई कानून में संशोधन के साथ महंगाई के अनुरूप मुआवजे का प्रावधान करना होगा।

(लेखक मनीलाइफडॉटइन के संपादक हैं)

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