दो पड़ोसी देशों के बीच सैन्य संघर्ष हमेशा उनकी सरकारों की वित्तीय स्थिति पर नकारात्मक असर डालता है। भारत की बात करें तो हमने ऐसा प्रभाव करीब ढाई दशक पहले महसूस किया था। करीब ढाई महीने तक चली करगिल की जंग ने तत्कालीन वित्त मंत्री यशवंत सिन्हा के 1999-2000 के राजकोषीय आकलन को बुरी तरह प्रभावित किया था। सिन्हा ने प्रस्ताव रखा था कि राजकोषीय घाटे को 1999-2000 में कम करके सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी के 4 फीसदी के स्तर पर लाया जाएगा। यह इससे पिछले साल से काफी कम था। परंतु काफी हद तक इस युद्ध के कारण 1999-2000 में हम राजकोषीय घाटे का लक्ष्य हासिल कर पाने में विफल रहे। उस वर्ष वास्तविक राजकोषीय घाटा 5.2 फीसदी रहा। व्यय अनुमान से 7 फीसदी अधिक रहा और कर संग्रह लक्ष्य से 4 फीसदी कम हुआ।
गत सप्ताह भारत और पाकिस्तान की सीमा पर जो कुछ हुआ और जिस तरह दोनों देशों के बीच तनाव बढ़ा उसकी तुलना पूरी तरह कारगिल युद्ध से नहीं की जा सकती है। 1999-2000 में केंद्र सरकार का राजकोषीय गणित केवल कारगिल युद्ध की वजह से नहीं बिगड़ा था। उस समय अप्रैल के अंत से अक्टूबर के मध्य तक पांच महीने से अधिक समय तक एक कार्यवाहक सरकार थी। यानी राजनीतिक अनिश्चितता के हालात थे और एक कार्यवाहक सरकार युद्ध लड़ रही थी। उसके बाद सितंबर-अक्टूबर 1999 में एक माह तक चले आम चुनाव के परिणामस्वरूप एक नई सरकार का गठन हुआ। मई 2025 का सैन्य संघर्ष ऐसे समय में हुआ जब कोई राजनीतिक अनिश्चितता नहीं है न ही कोई चुनाव करीब है। देश में एक मजबूत और स्थिर सरकार है। आम चुनाव को तो छोड़ ही दें, नजदीकी विधान सभा चुनाव भी पांच-छह महीने दूर हैं। इसके बावजूद यह मानना उचित होगा कि गत सप्ताह पाकिस्तान के साथ हुआ टकराव केंद्र सरकार की वित्तीय स्थिति पर असर डालेगा। यह आकलन करना उपयोगी होगा कि क्या वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण के पास पहले से मौजूद विकल्पों में क्या कोई बदलाव आया है?
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सीतारमण के 2025-26 के बजट में कहा गया था कि राजकोषीय घाटा जीडीपी के 4.4 फीसदी तक रहेगा। यह इस अनुमान पर आधारित है कि विशुद्ध कर राजस्व वृद्धि करीब 11 फीसदी रहेगी और व्यय वृद्धि 7 फीसदी तक सीमित रहेगी। राजस्व वृद्धि के कुल अनुमानों की बात करें तो चालू वर्ष के लिए वे उचित ही रुढ़िवादी अनुमान हैं और व्यापक तौर पर गत वर्ष हासिल वृद्धि के अनुरूप ही हैं। हां, अगर आशंका के मुताबिक 2025-26 में आर्थिक गतिविधियों की गति धीमी पड़ती है तो राजस्व प्राप्तियों पर भी असर होगा। परंतु यह कमी अपेक्षाकृत कम होगी और रिजर्व बैंक से प्राप्त अधिशेष की बदौलत इसकी भरपाई हो जाएगी। केंद्रीय बैंक के अब तक के कामकाज को देखते हुए ये प्राप्तियां सुनिश्चित नजर आ रही हैं।
सरकार के वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) संग्रह के जरिये कहीं अधिक बड़ा राजस्व का सहारा मिलने की उम्मीद है। चूंकि कोविड महामारी के कारण लगने वाले जीएसटी क्षतिपूर्ति उपकर संग्रह इतने अधिक नहीं थे कि 2020-21 और 2021-22 में राज्यों की भरपाई की जा सके इसलिए केंद्र सरकार ने दो किस्तों में लगभग 2.7 लाख करोड़ रुपये उधार लेने के लिए आरबीआई के साथ एक विशेष व्यवस्था को औपचारिक रूप दिया था। इस पैसे का इस्तेमाल जून 2022 तक राज्यों की क्षतिपूर्ति संबंधी कमी को पूरा करने में किया गया। उसके बाद क्षतिपूर्ति करने की सुविधा समाप्त कर दी गई। हालांकि, क्षतिपूर्ति उपकर लगाने की व्यवस्था को मार्च 2026 तक बढ़ा दिया गया और इस बात पर सहमति बनी कि जुलाई 2022 के बाद संग्रहीत राशि का इस्तेमाल केंद्र सरकार द्वारा रिजर्व बैंक से लिए गए कर्ज को चुकाने में किया जाएगा।
जीएसटी क्षतिपूर्ति उपकर के जरिये जुलाई 2022 से मार्च 2025 तक लगभग 3.82 लाख करोड़ रुपये की राशि जुटाई गई। यह राशि मार्च 2026 के अंत से पहले पूरा ऋण चुकाने के लिए पर्याप्त लगती है। यहां तक कि 2.7 लाख करोड़ रुपये के ऋण पर ब्याज जोड़कर भी यह पर्याप्त साबित होगी। दूसरे शब्दों में राजस्व में कमी की स्थिति में सरकार राज्यों से मशविरा करके आसानी से इस अतिरिक्त संग्रह का इस्तेमाल राजस्व में कमी की भरपाई के लिए सकती है। राज्य भी इस व्यवस्था से सहमत होंगे क्योंकि उन्हें भी लाभ होगा।
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ऐसे में यह प्रतीत होता है कि सरकार का राजस्व मोटे तौर पर नियंत्रण में बना रहेगा। भले ही धीमी आर्थिक गतिविधियां कुछ हद तक दबाव बनाएं। परंतु सीमा विवाद का प्रभाव व्यय के मोर्चे पर अधिक मुखर होगा। सीमा पर तनाव का अर्थ है राजकोष पर अधिक फंड देने का दबाव ताकि देश की रक्षा तैयारियां मजबूत की जा सकें।
अतीत में कई साल तक सरकार ने रक्षा व्यय पर सख्ती से लगाम रखी। वर्ष2024-25 में कुल रक्षा व्यय (पेंशन देनदारियों को हटाकर) में केवल 3.4 फीसदी का इजाफा हुआ। चालू वर्ष में रक्षा व्यय में 7.6 फीसदी का इजाफा प्रस्तावित है। परंतु गत सप्ताह सीमा पर बढ़े तनाव के संदर्भ में अब यह सवाल उठता है कि क्या यह इजाफा देश की रक्षा तैयारियों और सैन्य ढांचे को मजबूत बनाने की दृष्टि से काफी कम नहीं होगा?
बीते कुछ वर्षों में देश का रक्षा व्यय जीडीपी के 1.5 फीसदी के आसपास रहा है। अतीत में यह बहुत अधिक होता था। उदाहरण के लिए जीडीपी में रक्षा व्यय की हिस्सेदारी करगिल वाले वर्ष में 2.4 फीसदी थी। गत सप्ताह देश की पश्चिमी सीमा पर जो कुछ हुआ उसे देखते हुए इसमें दो राय नहीं कि सरकार रक्षा व्यय बढ़ाने की कोशिश करेगी। इसके लिए जीडीपी में उसकी हिस्सेदारी को बढ़ाकर कम से कम उस स्तर पर ले जाना होगा जिस स्तर पर वह तब थी जब पिछली बार देश सीमा संघर्ष में उलझा था। वृद्धि की गति धीमी हो सकती है लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि बदलाव किस दिशा में होगा।
इसका केंद्र सरकार के राजकोषीय मजबूती के खाके पर गहरा असर होगा। अगर 2025-26 का राजकोषीय घाटे का लक्ष्य हासिल करना है तो सरकार के सामने दो विकल्प हैं। या तो वह व्यय के घटक में बदलाव पूंजीगत व्यय में थोड़ी कमी करते हुए रक्षा व्यय में इजाफा कर सकती है या फिर वह राजकोषीय घाटे में कमी की योजना को अस्थायी रूप से रोक सकती है। कुल ऋण के बारे में अनुमान है कि 2025-26 में वह जीडीपी के 56 फीसदी के बराबर रह जाएगा जबकि इससे पिछले वर्ष यह 57 फीसदी था। शायद राजकोषीय घाटे की योजना में मामूली विचलन एक बेहतर विकल्प है बजाय कि पूंजीगत व्यय में कटौती करने के। किसी भी तरह का सीमा विवाद सरकार को यह अवसर देता है कि वह अपनी राजकोषीय मजबूती की योजना के तहत घाटे को कम करने के लक्ष्य को थोड़ा विराम दे।