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नीति नियम: दलगत राजनीति की अपरिहार्यता

पिछले दशक में ही जब पार्टी में वाम धड़ा मजबूत हो रहा था तो कुछ प्रमुख मध्यमार्गियों ने पार्टी छोड़ दी और नई पार्टी बना ली। मगर वह पार्टी चल नहीं पाई और खत्म हो गई।

Last Updated- October 10, 2024 | 10:14 PM IST
राजनीतिक बदलाव की दो कहानियां, Tale of two crossovers

राजनीतिक दलों में विभाजन क्यों होता है या फिर वे एकजुट क्यों रहते हैं? दलगत राजनीति पर हममें से ज्यादातर का रुख कुछ ऐसा होता है: राजनीतिक दल आम तौर पर मतदाताओं के खास समूह का प्रतिनिधित्व करते हैं, जो भौतिक हित, क्षेत्रीय या सामुदायिक चेतना अथवा आर्थिक विचारधारा के कारण एक साथ रहते हैं। जब इनमें से कुछ मतदाताओं के हित दूसरों से अलग होते हैं तो दल बंट जाते हैं। अगर राजनीति में एक नए दल की गुंजाइश होती है तो दोनों दल बने रहते हैं वरना एक ही बचता है।

अधिकतर विधायी व्यवस्थाएं ब्रिटिश संसदीय व्यवस्था से ही पनपी हैं और यह बात उसमें बहुत प्रभावी तरीके से दिखती है। ब्रिटेन की राजनीतिक मुख्यधारा में दो बड़े दलों के लिए जगह है और उनके अलावा एक या दो छोटे दलों के लिए भी गुंजाइश है। वहां तीन क्षेत्रीय दल भी हैं जो यूनाइटेड किंगडम में शामिल छोटे राष्ट्रों का प्रतिनिधित्व करते हैं। वहां के दल विशेषकर लेबर पार्टी में पिछले कुछ दशकों में विभाजन हुआ है।

पिछले दशक में ही जब पार्टी में वाम धड़ा मजबूत हो रहा था तो कुछ प्रमुख मध्यमार्गियों ने पार्टी छोड़ दी और नई पार्टी बना ली। मगर वह पार्टी चल नहीं पाई और खत्म हो गई। मध्यमार्गियों की पिछली पीढ़ी ने 1980 के दशक में अलग होकर सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी का गठन किया था, जिसका अंत मे तीसरे दल लिबरल में विलय हो गया और आज के लिबरल डेमोक्रेट सामने आए। इन बंटवारों में वैचारिक मतभेद स्पष्ट थे और इन्हें आसानी से समझा जा सकता था।

परंतु अन्य देशों के लिए मामला काफी अलग हो सकता था। आयरलैंड को ही देख लें, जहां सत्ता दशकों से दो दलों के बीच बंटी है। परंतु उनके बीच कोई वैचारिक अंतर तलाश पाना मुश्किल है। फियाना फेल और फाइन गाएल दक्षिणपंथी झुकाव वाली मध्यमार्गी दल हैं। उनके मतभेद एक सदी पहले उभरे थे किंत आयरलैंड से बाहर के लोगों को अब इतना अंतर नहीं दिखेगा कि वहां दो दलों की जरूरत हो। इसलिए ताज्जुब की बात नहीं है कि वाम झुकाव वाला तीसरा दल सिन फेन अब इतना बड़ा हो गया है कि दोनों दलों को चुनौती दे रहा है।

पिछले दिनों मेरा पाला दलगत राजनीति के पहेली जैसे स्वभाव से पड़ा, जब जापान में सत्तारूढ़ लिबरल डेमोक्रेटिक पार्टी (एलडीपी) में आंतरिक संघर्ष और अभियान के बाद इस देश को नया प्रधानमंत्री मिल गया। दक्षिणपंथी एलडीपी का विश्व युद्ध के बाद से ही जापान की राजनीति में दबदबा रहा है। वहां विपक्ष को सत्ता में आने के बहुत कम अवसर मिले हैं। परंतु अजीब बात है कि एलडीपी के भीतर की राजनीति इतनी कड़वाहट भरी है, जितनी दो अलग-अलग दलों के बीच होती है। पार्टी में बाकायदा अलग-अलग गुटों की परंपरा है, जो अक्सर किसी खास विचारधारा और व्यक्ति से जुड़े रहते हैं। इनका अपना इतिहास, विभाजन और घोटाले रहे हैं।

जापान से बाहर के व्यक्तियों को लगेगा कि वहां दो अलग-अलग दलीय व्यवस्थाएं हैं – एक जापानी संसद डाइट में चुनाव की प्रतिस्पर्द्धा से परे औपचारिक व्यवस्था और दूसरी एलडीपी के भीतर की प्रतिस्पर्द्धा वाली अनौपचारिक व्यवस्था, जो तय करती है कि उसमें किस गुट का दबदबा है।

फिर भी एलडीपी में विभाजन क्यों नहीं हुआ या फिर अलग होने वाले किसी धड़े ने सामान्य दो दलीय व्यवस्था को क्यों नहीं अपनाया यह समझना जापान के बाहर के लोगों के लिए मुश्किल है। निश्चित तौर पर 1970 के दशक में 40 दिनों के युद्ध के दौरान यहां बड़ा संकट खड़ा हो गया था, जब एक धड़े ने खुद को पार्टी मुख्यालय के भीतर बंद कर लिया था। फिर भी यह एकजुट और औपचारिक दल बना रहा, जिसका राजनीतिक दबदबा कायम रहा।

भारत के लोगों के लिए यह व्यवस्था वैसी ही है, जैसे मान लिया कि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस 1960 के दशक में विभाजित ही नहीं हुई थी और इंदिरा गांधी के बाद वहां भी धड़ों वाली व्यवस्था आ गई, जिसमें अलग-अलग धड़े के नेताओं के उत्तराधिकारी पार्टी सदस्यों का विश्वास जीतने के लिए जूझते रहे। यह कल्पना असंभव नहीं है लेकिन यह समझ नहीं आता कि ऐसी व्यवस्था दशकों तक कैसे बनी रह सकती है।

आजादी के आंदोलन में प्रमुख भूमिका निभाने वाले दल का उद्देश्य पूरा होने के कुछ दशक बाद विभाजन होना और प्रमुख छोटी भूस्वामी जातियों का प्रतिनिधित्व करने वाले दलों (जनता पार्टी एवं अन्य) या हिंदू राष्ट्रवादी दलों (भारतीय जनता पार्टी ) तथा क्षेत्रीय आकांक्षाओं का प्रतिनिधित्व करने वाले दलों (द्रविड़ दल एवं तृणमूल कांग्रेस) का उद्भव लगभग अपरिहार्य ही नजर आता है।

ऐसी अपरिहार्यता पर एक स्वाभाविक प्रयोग दक्षिण अफ्रीका में दिख रहा है। अपने उद्भव, उद्देश्य, संगठन और वैचारिक प्रकृति आदि में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस से काफी मिलती-जुलती अफ्रीकन नैशनल कांग्रेस में भी अंदरखाना तनाव हैं। पार्टी के पूर्व नेता जैकब जुमा ने अलग होकर एक मजबूत दल बना लिया है, जो लोकलुभावन एजेंडा पर काम करता है।

अफ्रीकन नैशनल कांग्रेस के भीतर के धड़ों में आर्थिक राष्ट्रवाद, कारोबार समर्थक उदारवादी और अन्य शामिल हैं और देश के भविष्य के बारे में उन सभी का अलग-अलग नजरिया है। जूलू समुदाय का प्रतिनिधित्व करने वाले या केपटाउन जैसे अंग्रेजी-भाषी तथा श्वेत बहुल हिस्से में मजबूत स्थिति वाले जातीय एवं क्षेत्रीय दल स्थानीय स्तर पर चुनौती दे रहे हैं या प्रभावशाली गठबंधन साझेदार बन रहे हैं।

कुछ समय के लिए लगा कि भारत विपरीत दिशा में जा रहा है। हमसे कांग्रेस मुक्त भारत का, विपक्ष रहित राजनीति का वादा किया गया था और ऐसा लगा कि यह हो भी सकता है। परंतु लगता है कि जापान जैसे देश कुछ अलग ही हैं। लोग दलगत राजनीति चाहते हैं भले ही दलों के बीच आयरलैंड की तरह बहुत मामूली अंतर हो। एक दल यानी भारतीय जनता पार्टी के दबदबे वाली व्यवस्था ने नए प्रतिष्ठान के भीतर वैसे ही अलगाव की गुंजाइश पैदा की है, जैसा पुरानी कांग्रेस में हुआ था।

First Published - October 10, 2024 | 10:07 PM IST

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