डिजिटल व्यक्तिगत डेटा संरक्षण (डीपीडीपी) अधिनियम, 2023 हाल ही में प्रभाव में आया है। यह एक ऐसा अधिनियम है जो डिजिटल व्यक्तिगत डेटा को इस प्रकार रखने की व्यवस्था करता है कि आम लोगों के पास अपने निजी डेटा को सुरक्षित रखने का भी अधिकार हो और कानूनी उद्देश्यों से ऐसे निजी डेटा का इस्तेमाल करना भी संभव हो। भारतीय नियामकीय प्रणाली में यह ताजा विकास ऐसा है जिसे भारत के अनुभवों और नियामकीय सिद्धांतों पर परखा जाना चाहिए।
डेटा संरक्षण के क्षेत्र में व्यक्तिगत स्तर पर दो चुनौतियां हैं: सरकार और कंपनियां। भारत में राज्य को लेकर कोई संरक्षण नहीं है और वह एक अलग बहस है। हमारे यहां ‘डेटा फिडुशिएरी’ यानी डेटा वैश्वासिक ऐसी संस्थाओं को कहा जाता है जिनके पास आम लोगों की जानकारी होती है और जिनसे उम्मीद की जाती है कि वे निष्पक्ष काम करेंगी।
यहां बाजार की विफलता का खतरा भी शामिल है जिसे ‘सूचना की असमानता’ कहा जाता है। यहां व्यक्ति इस बात को लेकर सुनिश्चित नहीं होते हैं कि डेटा फिडुशिएरी उसके डेटा का इस प्रकार इस्तेमाल नहीं करेगी जिससे उसका नुकसान न हो। डीपीडीपी अधिनियम को इसलिए लागू किया गया है ताकि कंपनियां लोगों को नुकसान न पहुंचा सकें।
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इस विश्लेषण में नीति निर्माताओं के समक्ष तीन चयन थे। पहला विचार यह है कि कुछ न किया जाए और सरकार की कोई गलती न होने पर भी एक खास सीमा की बाजार विफलता को स्वीकार कर लिया जाए। दूसरी राह है इस क्षेत्र में एक सरकारी विभाग के नियामकीय हस्तक्षेप के साथ आगे बढ़ना। तीसरी राह है एक पूर्णकालिक नियामक की स्थापना करना जो लोगों का डेटा रखने वाली कंपनियों की गतिविधियों के बारे में विस्तृत नियमन में शामिल रहें।
इस कानून के शुरुआती मसौदे में पूर्णकालिक नियामक की परिकल्पना की गई थी जिसके पास बाध्यकारी नियम बनाने की शक्तियां हों, निगरानी की कार्यकारी शक्ति हो और जो प्रवर्तन कर सकता हो तथा ऐसी अर्द्धन्यायिक शक्तियां जो अनुपालन का आकलन कर सकें।
इस नियामक के पास उपभोक्ताओं के आंकड़े रखने वाली लाखों कंपनियों पर कदम उठाने का अधिकार था। इस प्रस्ताव की व्यापक आलोचना की गई क्योंकि कानून में आपराधिक प्रावधान थे और नियामक तैयार करने को लेकर भारत का अनुभव मिलाजुला था। दुनिया भर के नियामक इस लिहाज से दिक्कतदेह हैं कि वे विधायी और कार्यपालिक कामों को लेकर शक्ति के बंटवारे के सिद्धांत का उल्लंघन करते हैं। भारत में कुछ नियामक दूसरी तरह के हैं जो एक कदम आगे बढ़कर राज्य की तीनों शाखाओं को मिला देते हैं यानी विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका को।
वर्तमान डीपीडीपी अधिनियम भारतीय डेटा संरक्षण बोर्ड (डीपीबी) के लिए प्रक्रियाओं, कामकाम और अधिकारों की व्यवस्था करता है। इस कानून का एक अहम कायदा यह है कि डीपीबी एक निर्णायक निकाय है। यह ऐसा डिजाइन है जो शक्तियों के बंटवारे की तुलना में अधिक सम्मानजनक है।
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इन प्रश्नों को लेकर भारत के अब तक के सफर पर नजर डालना उचित होगा। यह मानना होगा कि कार्यपालिक शाखा का सामान्य कामकाज बाजार की विफलता को तेजी से हल करने की दिशा में बाधाओं और सीमाओं का सामना करता है। यह शक्तियों के बंटवारे के सिद्धांत से सचेत प्रस्थान है। देश की संसद ने सन 1990 के दशक में एक नई तरह की एजेंसी बनाने का निर्णय लिया था ताकि विधायिका को मजबूत किया जा सके और विधानों का प्रवर्तन किया जा सके।
सांविधिक नियामकीय प्राधिकार (एसआरए) की स्थापना का विचार यहीं से उत्पन्न हुआ था। एसआरए की स्थापना सरकार से अलग की गई थी लेकिन यह देश में अब तक के आर्थिक सुधारों का एक अहम आंतरिक हिस्सा था। इस बीच कई एसआरए सामने आए जो वित्त, अधोसंरचना, प्रतिस्पर्धा, ऋणशोधन और दिवालिया, खाद्य एवं अचल संपत्ति समेत कई क्षेत्रों में निगरानी का काम करते हैं।
एसआरए के साथ भारत के अनुभव ने उसे जानकारी के क्षेत्र में काफी समृद्ध किया है। उसे उनकी नाकामियों को लेकर भी समझ हासिल हुई है और उसने हल भी सुझाए हैं। इस अनुभव का सबसे बड़ा हासिल यह है कि पारंपरिक एसआरए अब पारंपरिक सरकारी विभागों की तुलना में बेहतर हल सुझा पा रही हैं। नए कानून की धारा 28(1) जहां कहती है कि बोर्ड को एक स्वतंत्र निकाय के रूप में काम करना चाहिए वहीं यह बात शेष अधिनियम में नहीं नजर आती। अधिनियम के मुताबिक बोर्ड के चेयरपर्सन और सदस्यों के पास दो वर्ष का कार्यकाल होगा जिसे नवीनीकृत किया जा सकेगा।
इतना ही नहीं धारा 24 के मुताबिक बोर्ड को अधिकारियों और कर्मचारियों के लिए केंद्र सरकार की पूर्व मंजूरी की आवश्यकता है। उसे ऐसा केंद्र सरकार की शर्तों के मुताबिक करना होता है। बोर्ड के सदस्यों को निष्पक्ष और पारदर्शी ढंग से चुनने की कोई व्यवस्था नहीं है। उदाहरण के लिए ऐसा कोई कानूनी प्रावधान नहीं है कि केंद्र सरकार को बोर्ड के चयन के लिए पेशेवर खोज और चयन समिति की सहायता करनी होगी। प्रभावी तौर पर अधिनियम केंद्र को बोर्ड पर पूरा नियंत्रण देता है।
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भारतीय प्रतिस्पर्धा आयोग की बात करें तो अन्य नियामकों के उलट वह मोटे तौर पर मशविरा और हिमायत जैसे कामों के अलावा निर्णय देने का काम भी करता है। कानून के पहले संस्करण में कहा गया था कि प्रतिस्पर्धा आयोग न्यायिक प्रक्रियाओं का पालन करेगा। इस कानून को इस आधार पर चुनौती दी गयी कि कार्यपालिक शाखा के पास यह अधिकार है कि वह इस न्यायिक संस्था के सदस्यों की नियुक्ति कर सकती है और यह बात न्यायिक शाखा की स्वतंत्रता के तय सिद्धांत का उल्लंघन करती है। तब सरकार ने नियमों में संशोधन किया ताकि इन नियुक्तयों को एक समिति द्वारा किया जा सके जिसकी अध्यक्षता मुख्य न्यायाधीश द्वारा नामित व्यक्ति के पास हो। डीपीबी में भी ऐसी चुनौतियां आ सकती हैं।
डीपीडीपी अधिनियम भारतीय नियमन में एक दिलचस्प पड़ाव है। बेहतर यही होगा कि हम स्वतंत्र एसआरए तैयार करने प्रक्रिया में रहें और उनकी कमजोरियों को पहचान कर अधिनियम के 140 कानूनों की मदद से उन्हें दूर करते हुए आगे बढ़ें। या फिर क्या यह बेहतर होगा कि स्वतंत्र एसआरए की यात्रा को त्याग दिया जाए और कामकाज को सरकारी विभागों में ही रहने दिया जाए तथा अपीलों को विशेष पंचाट के समक्ष जाने दिया जाए?
आने वाले महीनों में डीपीबी का प्रदर्शन और शक्तियों के बंटवारे तथा न्यायिक स्वतंत्रता पर अदालतों का रुख ही इन बुनियादी सवालों पर प्रकाश डालेगा।
(लेखक पूर्व लोक सेवक, सीपीआर में मानद प्रोफेसर एवं कुछ लाभकारी एवं गैर-लाभकारी निदेशक मंडलों के सदस्य हैं)