तुर्की में महंगाई दर भारत और दूसरे देशों के लिए शायद ही कोई बड़ी अहमियत रखती है। मगर उससे हम एक दिलचस्प और महत्त्वपूर्ण सीख ले सकते हैं। तुर्की गणराज्य के केंद्रीय बैंक (सीबीआरटी) ने ऊंची महंगाई के बावजूद ब्याज दर घटा दी है।
अधिकांश विश्लेषकों को यह नीति आश्चर्य में डाल रही है। सीबीआरटी ने ब्याज दर घटाकर 8.5 प्रतिशत कर दी है। यह 2019 के मध्य में 24 प्रतिशत के स्तर पर थी। इससे भी अधिक आश्चर्य की बात यह है कि ब्याज दर घटने के बावजूद महंगाई दर में इजाफा नहीं हुआ है और न ही यह हाल की तिमाहियों में कमोबेश एक जैसी रही है, बल्कि यह घटकर आधी रह गई है! आखिर यह कैसे संभव हो पाया?
इसके कोई संदेह नहीं कि ब्याज दर कम रहने से पूंजी सृजन, आवास, उपभोक्ता वस्तुओं आदि पर व्यय अधिक बढ़ जाता है। इस अतिरिक्त व्यय से महंगाई बढ़ सकती है। हालांकि, सीबीआरटी की अपनी ब्याज दर काफी कम है इसलिए पहले इस पहलू को समझना जरूरी है। तुर्की में बाजार में ब्याज दर वास्तव में बहुत कम नहीं है, खासकर हाल की तिमाहियों के साथ यह बात अधिक लागू होती है।
तुर्की में उपभोक्ता ऋण पर ब्याज दर 35 प्रतिशत और आवास ऋण पर ब्याज 20 प्रतिशत के करीब है। बाजार में वास्तविक ब्याज दर और अनिश्चितताओं को देखते हुए व्यय एवं महंगाई दर बहुत अधिक मजबूत रहने के आसार नजर नहीं आ रहे हैं। यह इस पूरी कहानी का एक पहलू है।
कहानी का दूसरा पहलू यह है कि सीबीआरटी द्वारा ब्याज दर कम रखने से केंद्रीय बैंक के बाजार में रकम की मांग अधिक होगी। मगर सीबीआरटी यह मांग पूरी करने के लिए अधिक मात्रा में रकम जारी नहीं कर रहा है। इसके पीछे यह तर्क दिया जा सकता है कि सीबीआरटी अपनी तरफ से बाजार में रकम का प्रवाह नियंत्रित एवं संभवतः अपने हिसाब से एक वाजिब स्तर पर रखना चाहता है।
चूंकि, आधार रकम की वृद्धि दर नियंत्रण में रखी जाती है इसलिए लोगों के पास वित्तीय प्रणाली में उपलब्ध रकम भी नियंत्रण में रहती है। ये सभी बातें इस तथ्य के विपरीत नहीं जाती हैं कि सीबीआरटी की नीति के बावजूद महंगाई नियंत्रण से बाहर नहीं जा रही है।
अब जरा रकम के प्रवाह पर नियंत्रण को समझने का प्रयास करते हैं। सामान्य परिस्थितियों में दुनिया में ऋण आवंटन सीमित वित्तीय संसाधनों के बीच सूझबूझ के साथ होता है। यह बाजार की एक सामान्य प्रक्रिया है। किसी भी समय मांग के सापेक्ष ऋणदाता रकम की आपूर्ति सीमित रख सकते हैं।
इससे महंगाई नहीं बढ़ती है और कमजोर साख वाले कर्जधारकों एवं तुलनात्मक रूप से कमजोर परियोजनाओं को उनके पिछले भुगतान के आधार पर ही ऋण आवंटित होते हैं, अर्थात उन्हें उतनी ही मात्रा में रकम उधार दी जाती है जितनी वे लौटा सकते हैं। मगर तुर्की में जो हो रहा है वह सामान्य ऋण तक ही सीमित नहीं है।
यह नया नियंत्रण प्रशासनिक ब्याज दरों के कम रहने का नतीजा है न कि बाजार निर्धारित ब्याज दरों का। यह नियंत्रण मुख्य रूप से सीबीआरटी कर रहा है न कि बैंक और दूसरे वित्तीय संस्थान। पिछली कुछ तिमाहियों में इस तरह का नियंत्रण सीबीआरटी द्वारा किया गया एक नया महत्त्वपूर्ण सुधार है।
मगर बदलती परिस्थितियों का सामना करने के लिए यह राष्ट्रपति रेचेप तैयप एर्दोआन के दबाव में उठाया गया कदम है। यह कदम एक प्रयोग हो सकता है और इसके साथ कुछ त्रुटियां भी आने वाले समय में दिख सकती हैं। हालांकि, इस सुधार की काफी सराहना हो रहा है मगर ब्याज दर कम रखने के अपने नुकसान हैं।
पहला नुकसान तो यह है कि बाजार में वास्तविक ब्याज दर, जैसा कि पहले चर्चा की गई है, अपेक्षाकृत ऊंचे स्तर पर रहती है। दूसरी खामी यह है कि केंद्रीय बैंक द्वारा रकम की सीमित आपूर्ति उसकी इच्छा पर या मनमाने आधार पर हो सकती है।
तीसरी खामी यह है कि कम ब्याज दर- जिस सीमा तक बाजार में वह वास्तविक रूप से निचले स्तर पर है- लीरा को और कमजोर कर सकती हैं। कम ब्याज दर के कारण मुद्रा बाजार में उत्साह के बावजूद लीरा अन्य मुद्राओं के खिलाफ दबाव में रह सकती है। इस तरह, तुर्की में इस तरह की गैर-परंपरागत नीति से कुछ समस्याएं पैदा हो सकती हैं। वहां ब्याज दर नीति में कुछ बदलाव करने की जरूरत है। यह बदलाव कैसे होना चाहिए यह एक अलग विषय है।
यहां मुख्य प्रसंग यह है कि ब्याज दर कम रहने के बावजूद महंगाई दर कम रह सकती है! यह पहेली तब समझ में आती है जब हम ब्याज दरों से इतर मुद्रा एवं मूल्य पर विचार करते हैं। तुर्की में सर्वाधिक आसानी से उपलब्ध रकम (ब्रॉड मनी) की वृद्धि दर 86 प्रतिशत से कम होकर 41 प्रतिशत रह गई है।
लोगों के पास और बैंकों में जमा रकम (नैरो मनी) की वृद्धि दर 96 प्रतिशत से कम होकर 32 प्रतिशत रह गई है। वित्तीय प्रणाली में मौजूद मुद्रा एवं बैंकों में जमा रकम (बेस मनी) 85 प्रतिशत से कम होकर 30 प्रतिशत से कम रह गई है।
दूसरी तरफ, महंगाई दर अक्टूबर 2022 में दर्ज 80 प्रतिशत से कम होकर इस समय 40 प्रतिशत से भी कम रह गई है। इस तरह, जो हो रहा है वह मांग आधारित महंगाई के सिद्धांत के विपरीत है और इसका नतीजा महंगाई में कमी के रूप में दिख रही है।
अंत में यह कहा जा सकता है कि सभी बातों पर विचार करने के बाद राजनीतिज्ञों को अर्थशास्त्रियों की भी सुननी चाहिए। हालांकि, हम अर्थशास्त्रियों को भी अपने विश्लेषण ढांचे के इस्तेमाल में लचीला रुख रखना चाहिए। अन्यथा लोगों पर गंभीर प्रभाव पड़ेगा जिसका उल्लेख रोनाल्ड रीगन ने किया था। उन्होंने कहा था, ‘अर्थशास्त्री वे लोग होते हैं यह सोचकर हैरान होते हैं कि जो वास्तविकता में घटित होती है क्या वह सिद्धांत रूप में भी काम कर सकती है या नहीं।’
(लेखक अशोक यूनिवर्सिटी में अतिथि प्राध्यापक हैं। वंशिका टंडन ने भी लेख में योगदान दिया है)