एक अप्रैल से 1 जून, 2024 तक विस्तारित आम चुनाव की प्रक्रिया के दौरान लाजिमी ही है कि लोगों का ध्यान बाहरी दुनिया के बजाय घरेलू राजनीतिक घटनाक्रम पर केंद्रित हो जाए। देश में बनने वाली अगली सरकार के सामने एक ऐसा अंतरराष्ट्रीय परिदृश्य होगा जो 1 अप्रैल से तब तक बहुत बदल चुका होगा। वह परिदृश्य कैसा होगा?
अमेरिकी की ताकत और कम हो चुकी होगी। उसकी घरेलू नीतियां और अधिक बंटी हुई तथा पहले की तुलना में अधिक ध्रुवीकृत हो चुकी हैं। इजरायल-हमास जंग में अमेरिकी रुख ने अमेरिकी समाज को इस हद तक विभाजित कर दिया है जैसा कि वियतनाम युद्ध के बाद से नहीं देखा गया था। राष्ट्रपति जो बाइडन न तो इजरायल को रोक पा रहे हैं और न ही उसे सैन्य या आर्थिक मदद देने से इनकार कर पा रहे हैं।
यूरोप में रूस, यूक्रेन के साथ जंग में अहम लाभ हासिल कर रहा है और अमेरिका वहां गंभीर दुविधा में फंसा है। वह नहीं चाहता कि लड़ाई इतनी बढ़े कि नाटो को सीधे दखल देना पड़े। परंतु यूक्रेन का युद्ध हारना या शांति की असमान शर्तों को मानना अमेरिका की विश्वसनीयता को गहरा झटका देगा। नवंबर के राष्ट्रपति चुनाव में बाइडन के दोबारा जीतने को लेकर अनिश्चितता और ट्रंप की वापसी की आशंका भी हालात गंभीर बना रही है।
अमेरिका ने हिंद-प्रशांत क्षेत्र में चीन के साथ विवाद को धीमा किया है। उसने चीन के साथ संबद्धता बढ़ाने को लेकर कूटनीतिक प्रयास तेज किए हैं। इसमें द्विपक्षीय मशविरा व्यवस्था को दोबारा शुरू करना शामिल है जो पिछले कई सालों से ठप थी। अमेरिका की हिंद-प्रशांत रणनीति अपनी जगह है लेकिन हम देख सकते हैं कि ऑस्ट्रेलिया, भारत, जापान और अमेरिका के क्वाड समूह की प्राथमिकताएं कमजोर पड़ी हैं।
इस वर्ष जनवरी में प्रस्तावित क्वाड समूह की बैठक टाल दी गई लेकिन उसके लिए नई तारीख नहीं तय की गई। चीन की ओर से किसी भी आक्रमण की स्थिति में ताइवान की रक्षा की बात बार-बार दोहराने के बाद इस वर्ष जनवरी में राष्ट्रपति जो बाइडन ने कहा कि अमेरिका ताइवान की आजादी का समर्थन नहीं करता है। चीन ने इसका स्वागत किया।
अमेरिका को यूरोप और पश्चिम एशिया में दो जंगों से निपटना पड़ रहा है। हिंद-प्रशांत क्षेत्र में भी उसके सामने एक संभावित विवाद खड़ा है। हिंद-प्रशांत में हालात अपेक्षाकृत शांतिपूर्ण हैं और अमेरिका इन्हें ऐसे ही रखना चाहता है। भारत ने हिंद-प्रशांत क्षेत्र में अमेरिका की व्यस्तता और चीन के साथ उसकी प्रतिद्वंद्विता का पूरा लाभ उठाया और अपने लिए कूटनीतिक गुंजाइश बढ़ाई।
अब इसमें कमी आ सकती है क्योंकि अमेरिका कमजोर हुआ है और चीन के साथ वह किसी विवाद से बच रहा है। अगर नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की सरकार पुन: सत्ता में आती है तो यह नजरिया हो सकता है कि ट्रंप का राष्ट्रपति बनना भारत के लिए बेहतर होगा। यह सही नहीं होगा। ट्रंप के राष्ट्रपति बनने से अमेरिका का कद और गिरेगा।
बदलते भूराजनीतिक हालात को लेकर चीन का दृष्टिकोण क्या है? 2019 में आयोजित शांग्री-ला सुरक्षा सम्मेलन में चीन के विदेश मंत्री वांग यी ने क्वाड को खारिज करते हुए कहा था कि यह प्रशांत या हिंद महासागर की समुद्री झाग की तरह है जो कुछ ध्यान खींचने के बाद गायब हो जाएगी। क्वाड के मजबूत होने पर चीन का नजरिया बदल गया। उसने एशियाई नाटो के बनने की प्रक्रिया बता डाला।
क्वाड को लेकर चीन की घटती चिंता का अंदाजा शिन्हुआ विश्वविद्यालय के सेंटर फॉर इंटरनैशनल सिक्युरिटी ऐंड स्ट्रैटजी के चीनी विश्लेषक चाऊ बो के उस वक्तव्य से लगाया जा सकता है जिसमें उन्होंने कहा कि अमेरिका को चीन को नियंत्रित करने के क्रम में साझेदार जुटाने में सीमित कामयाबी मिली है, मसलन क्वाड तथा ऑस्ट्रेलिया, ब्रिटेन तथा अमेरिका की सैन्य साझेदारी यानी अकुस। उन्होंने कहा कि ये समूह एक बड़े समुद्र में छोटे द्वीपों की तरह हैं।
माना जाता है कि भारत दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था वाला देश बन चुका है और 2030 तक वह दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन जाएगा। तब वह एशिया और अफ्रीका में कहीं अधिक मजबूत और प्रभावशाली शक्ति बन जाएगा। एशिया और विश्व अर्थव्यवस्था में भारत की उपस्थिति बहुत मजबूत नहीं है। उसने क्षेत्रीय व्यापक सहयोग संधि यानी आरसेप में हिस्सा नहीं लिया जो दुनिया का सबसे बड़ा क्षेत्रीय आर्थिक गठजोड़ है।
इस बात ने क्षेत्रीय अर्थव्यवस्था में भारत को हाशिये पर धकेल दिया। ऑस्ट्रेलिया और यूरोपीय मुक्त व्यापार संघ (ईएफटीए) जैसे देशों के साथ हमारे सीमित व्यापार समझौते उपयोगी नहीं हैं। ब्रिटेन और यूरोपीय संघ के साथ व्यापार वार्ता में बहुत अधिक प्रगति नहीं हो रही है। बड़ी वृहद आर्थिक प्रोफाइल तभी काम आती है जब क्षेत्रीय और वैश्विक अर्थव्यवस्था में बड़ी हिस्सेदारी हो।
इस बात को लेकर बहुत अधिक चर्चा होती रही है कि निवेश चीन से बाहर निकलकर भारत का रुख करेगा। भारत में ऐपल की परियोजना को इसका उदाहरण माना जाता है। ऐसा करते समय इस बात की अनदेखी कर दी जाती है कि अधिकांश बहुराष्ट्रीय कंपनियां चीन के बाजार से बाहर निकलना नहीं चाहती हैं क्योंकि वह दुनिया का सबसे बड़ा बाजार है और अभी भी उसका विस्तार हो रहा है।
सीमित मात्रा में जो कंपनियां बाहर जा भी रही हैं, वे भी भारत के बजाय वियतनाम तथा दक्षिण पूर्वी एशिया के अन्य देशों का रुख कर रही हैं। चीन से बाहर निकल रहे निवेश का भरोसा करने के बजाय बेहतर होगा कि नई सरकार नीतिगत सुधारों और नियामकीय बेहतरी, अधोसंरचना सुधार पर ध्यान दे तथा कारोबारियों के अनुकूल माहौल के बजाय बाजार के अनुकूल माहौल बनाए।
ऐसा करने से भारत अपनी तरह का आकर्षक निवेश केंद्र बन सकेगा। सीमित संसाधनों का प्रयोग करके चुनिंदा निकायों को बढ़ावा देने की नीति भारत की वृद्धि और उसके भूराजनीतिक परिदृश्य को बेहतर बनाने में मददगार नहीं साबित होगी। उसके बजाय बाजार के हालात को अनुकूल बनाकर सभी कारोबारों और रोजगारों को बढ़ने देने का अवसर देना अधिक उपयोगी होगा।
जब हम घरेलू से परे बाहरी दुनिया पर नजर डालेंगे तो चुनौतियां कई गुना बढ़ जाएंगी। परंतु भूराजनीतिक बदलाव ऐसे अवसर भी देते हैं जिन्हें लेकर नई सरकार को सतर्क रहना चाहिए तथा अवसरों का लाभ लेना चाहिए।
(लेखक पूर्व विदेश सचिव और सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च के मानद फेलो हैं)