भारतीय युवाओं में विदेशों में रोजगार और जीवन बिताने की इच्छा तथा संतानोत्पत्ति को लेकर अनिच्छा की प्रवृत्ति देखने को मिल रही है। बता रहे हैं अजित बालकृष्णन
क्या तुम बच्चों का बच्चे पैदा करने का इरादा नहीं है?’ यह सवाल मैंने अपनी एक भतीजी से पूछा जो हाल ही में हमारे साथ एक सप्ताह का अवकाश बिताने आई थी। बेशक, मैंने उसे और उसके पति को स्नेह के चलते ‘बच्चे’ कहकर संबोधित किया जो उन्हें अच्छा भी लगा लेकिन वे बच्चे नहीं थे। दोनों तकरीबन 35 वर्ष के आसपास के थे उनके पास पेशेवर योग्यता थी और न्यूयॉर्क शहर में अच्छी नौकरी कर रहे थे। ‘हमें लगता है कि बच्चे हमारा ध्यान करियर से हटा देंगे और यह हमारे हक में बेहतर नहीं होगा।’ मेरी भतीजी ने कहा।
उसके इस जवाब ने मुझे गहरी सोच में डाल दिया। भारत तो अपनी बढ़ती, श्रम योग्य आयु वाली आबादी की बदौलत दुनिया पर राज करने वाला था? अगर मेरी भतीजी की उम्र के सभी युवा भारतीय बच्चे पैदा करने से पीछे हटने लगें तो भारत के ‘जनांकिकीय लाभांश’ का क्या होगा? ‘जनांकिकीय लाभांश’ नामक जुमला सबसे पहले हार्वर्ड विश्वविद्यालय के अर्थशास्त्री डेविड ब्लूम तथा उनके सह लेखकों ने इसी नाम की अपनी पुस्तक में दिया था।
पुस्तक में उन्होंने बताया था कि कैसे किसी देश के आयु समूहों का आकार यह निर्धारित करता है कि उस देश का आर्थिक प्रदर्शन कितना अच्छा या बुरा होगा? उदाहरण के लिए जिन देशों में 15 से 64 आयु वर्ग के लोगों की संख्या अधिक होती है, वहां आर्थिक वृद्धि के उन देशों की तुलना में कहीं बेहतर होने की संभावना होती है जिनकी आबादी में 15 से कम उम्र या 65 या उससे अधिक उम्र के लोग ज्यादा हों।
ऐसा इसलिए कि माना जाता है कि बाद वाली आयु वर्ग के लोग आर्थिक संसाधनों की खपत करते हैं और आर्थिक रूप से उत्पादक गतिविधियों में भाग नहीं लेते हैं। इन दिनों इस बात का भी बहुत शोर है कि इस समय भारत की आबादी में 15 से 64 आयु वर्ग के लोग सबसे अधिक हैं तथा ऐसे में वह आर्थिक वृद्धि का वाहक बनने को तैयार है।
परंतु जब भी मैं बार-बार भारत के ‘जनांकिकीय लाभांश’ को लेकर यह शोर सुनता हूं तो मैं खुद को सन 1971 के बारे में सोचने से रोक नहीं पाता हूं। उस समय मैं भारतीय प्रबंध संस्थान कलकत्ता से स्नातक की पढ़ाई पूरी करने वाला था। यह वह दौर था जब यह सिद्धांत इसके ठीक विपरीत था। उस समय यही मान्यता थी कि भारत की आर्थिक समस्याओं की वजह आबादी में वृद्धि की ऊंची दर थी। उस समय अर्थशास्त्री जनसंख्या नियंत्रण को लेकर चिंतित रहते थे।
यही कारण है कि 1971 में जब केंद्र सरकार के ‘पुरुष नसबंदी शिविरों’ में 13 लाख पुरुषों की नसबंदी की गई और अगले साल के लिए 31 लाख लोगों की नसबंदी का लक्ष्य रखा गया तो हम सभी को ताली बजाने के लिए प्रोत्साहित किया गया था।
विश्व बैंक ने भारत को नसबंदी कार्यक्रम चलाने के लिए भारी आर्थिक सहायता दी ताकि वह अपनी जनसंख्या की वृद्धि दर को कम कर सके। उसने सन 1972 से 1980 के बीच 6.6 करोड़ डॉलर की मदद दी। इस दौरान अंतरराष्ट्रीय स्तर पर खासतौर पर पश्चिमी देशों की ओर से बहुत अधिक दबाव था। तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति लिंडन बी जॉनसन ने 1965 में यह कहकर भारत को खाद्य सहायता देने से इनकार कर दिया था कि अगर सहायता चाहिए तो नसबंदी को सरकारी नीति बनाना होगा।
यकीनन तमाम फैशनेबल चीजों की तरह इसे भी बौद्धिक समर्थन भी हासिल था। जनसंख्या नियंत्रण के समर्थकों के लिए स्टैनफर्ड विश्वविद्यालय के पॉल एर्लिच की पुस्तक ‘द पॉपुलेशन बम’ बाइबल की तरह थी। इसकी लाखों प्रतियां बिकीं। इस किताब में कहा गया था कि करोड़ों लोगों की भूख से मौत हो जाएगी और कोई भी बात वैश्विक मृत्यु दर में वृद्धि को नहीं रोक सकती।
जनसंख्या से जुड़ी बहस का एक पहलू कोटा जैसा विमर्श भी है जो इस समय मीडिया में चर्चित है। इसमें बताया जाता है कि कैसे उच्च शिक्षण संस्थानों में दाखिले के लिए बड़ी तादाद में बच्चे आवेदन करते हैं। भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान में 10,000 सीटों के लिए 10 लाख से अधिक बच्चे आवेदन करते हैं। देश के चिकित्सा महाविद्यालयों की करीब 80,000 सीटों के लिए भी लगभग इतने ही बच्चे आवेदन करते हैं।
आईआईएम की 4,000 सीटों के लिए करीब 2.5 लाख बच्चे आवेदन करते हैं। मैं अपने समय की यानी 1969 की बात करूं जब मुझे आईआईएम कलकत्ता में दाखिला मिला था तब 100 सीटों के लिए करीब 30,000 लोग आवेदन करते थे।
दूसरे शब्दों में कहें तो जहां उच्च शिक्षण संस्थानों की संख्या में कई गुना इजाफा हुआ है वहीं दाखिले के दावेदारों की संख्या और भी तेजी से बढ़ी है। आश्चर्य नहीं कि कोटा जैसे केंद्रों पर आधारित मनोरंजक फिल्म या सिरीज को बहुत दर्शक मिलते हैं। अगर आपके माता-पिता अमीर हैं तो आप अमेरिकी विश्वविद्यालयों में भी जा सकते हैं। इन दिनों हर साल करीब 7.5 लाख भारतीय युवा विदेशी विश्वविद्यालयों में पढ़ने जाते हैं। मुझे यकीन है कि दुनिया के किसी अन्य देश में इस पैमाने पर योग्यता आधारित छंटनी नहीं होती।
प्रवेश परीक्षाओं के इस भारी इंजन को गति देने का काम इतनी ही बड़ी संख्या में चलने वाले कॉलेज करते हैं। इनमें पढ़ाई के लिए मां-बाप बैंकों से भारी ऋण लेते हैं। राष्ट्रीय पात्रता परीक्षा में घटी हालिया घटनाएं बताती हैं कि इसमें एक हद तक भ्रष्टाचार भी शामिल है।
हम देखते हैं कि दुनिया के कई शीर्ष संस्थानों में भारतीय मूल के या भारत में पढ़े युवा शीर्ष पदों पर पहुंचे हैं। माइक्रोसॉफ्ट में सत्य नडेला, गूगल में सुंदर पिचाई, नोवार्टिस में वसंत नरसिम्हन, आईबीएम में अरविंद कृष्णा, स्टारबक्स में लक्ष्मण नरसिम्हन आदि कुछ ऐसे ही नाम हैं।
विदेशों में भारतीयों की इसी सफलता की बदौलत गत वर्ष भारतीयों ने विदेशों से 125 अरब डॉलर की राशि स्वदेश भेजी। यह हमारे चर्चित सॉफ्टवेयर सेवा निर्यात का करीब 60 फीसदी है। क्या पश्चिमी देशों में नौकरी पाने की यह इच्छा भारतीय कारोबारी जगत की इस हकीकत के कारण है कि यहां अधिकांश कंपनियों का मालिकाना और स्वामित्व कारोबारी परिवारों के पास है और वहां शीर्ष पद परिवारों के सदस्यों के लिए आरक्षित रहते हैं। या शायद ऐसा इसलिए है कि मुंबई तथा देश के अन्य महानगरों में अचल संपत्ति की कीमतें भारतीयों के वेतन की तुलना में बहुत अधिक हैं।
ऐसे में क्या हमारे युवाओं का बच्चे पैदा न करके विदेशों में नौकरी और सुकून की तलाश करने का निर्णय सही है?
(लेखक इंटरनेट उद्यमी हैं)